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संस्कृति

नए दौर में पहुंची रसगुल्‍ले की रस्‍साकशी

    • विनीत कुमार
    • Updated: 29 अगस्त, 2015 02:13 PM
  • 29 अगस्त, 2015 02:13 PM
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अब तक मैं भी यही समझता था कि रसगुल्ला विशुद्ध बंगाली मिठाई है. कई और लोग मेरे जैसा ही सोचते होंगे. लेकिन अब यह घालमेल कंफ्यूजन पैदा कर रहा है.

रसगुल्ला किसने बनाया...भला यह भी कोई सवाल है! और अगर है भी तो एकदम बेतूका. क्या फर्क पड़ता है किसने बनाया. रसगुल्ले का नाम आते ही सवाल-जवाब नहीं, बात खाने-खिलाने की होनी चाहिए. लेकिन हमारे सियासतदानों को कौन समझाए. दो राज्यों में दावे पर दावे ठोके जाने लगे हैं कि रसगुल्ला उनकी देन है. दावे भी ऐसे-ऐसे कि उसे समझने के लिए आपको रसगुल्ले का इतिहास, भूगोल सब छान मारना होगा लेकिन यकीन मानिए एक रसगुल्ला भी हाथ नहीं आएगा.

ओडिशा और पश्चिम बंगाल के बीच विवाद

इस महीने की शुरुआत में ही यह खबर आई थी कि ओडिशा सरकार रसगुल्ला पर जीआई (Geographical indication) लेबल हासिल करना चाहती है. जीआई हासिल करने से यह सुनिश्चित हो जाता है कि फलां चीज मूल रूप से किस जगह की है. ओडिशा की दलील है कि उनके यहां सदियों से रथयात्रा के दौरान भगवान को रसगुल्ला भेंट करने की परंपरा है. फिर यह बंगाल का कैसे हो गया? ओडिशा के कई इतिहासकार इसका समर्थन करते हैं.

ओडिशा में सत्ता पर काबिज बीजू जनता दल (बीजेडी) के सदस्य आरपी स्वैन ने गुरुवार को विधानसभा में मुद्दा उछाल दिया और सरकार से ओडिशा की धरोहर झपटने की हो रही कोशिश को नाकाम करने की मांग कर डाली. अब बंगाल को यह बात कैसे हजम होती. बस, विवाद शुरू हो गया.

रसगुल्लों से पश्चिम बंगाल का नाता

रसगुल्लों से जुड़ी सबसे प्रचलित कहानी यही है इसे बनाने की शुरुआत कोलकाता में 1868 में नोबिन चंद्र दास ने की. कई इतिहासकारों की दलील यह कि 17वीं शताब्दी से पहले 'छेना' का जिक्र भारतीय खानपान में कहीं नहीं मिलता जो रसगुल्ला बनाने की सबसे बड़ी जरूरत है. भारतीय पौराणिक कथाओं में भी दूध, दही, मक्खन का जिक्र तो मिलता है..छेना नहीं मिलता. इसलिए बंगाल का दावा मजबूत है.

वैसे, अब तक मैं भी यही समझता था कि रसगुल्ला विशुद्ध बंगाली मिठाई है. कई और लोग मेरे जैसा ही सोचते होंगे. लेकिन अब यह घालमेल कंफ्यूजन पैदा कर रहा है. इतिहास टटोलेंगे तो कई जगह यह जिक्र भी मिल जाएगा कि...

रसगुल्ला किसने बनाया...भला यह भी कोई सवाल है! और अगर है भी तो एकदम बेतूका. क्या फर्क पड़ता है किसने बनाया. रसगुल्ले का नाम आते ही सवाल-जवाब नहीं, बात खाने-खिलाने की होनी चाहिए. लेकिन हमारे सियासतदानों को कौन समझाए. दो राज्यों में दावे पर दावे ठोके जाने लगे हैं कि रसगुल्ला उनकी देन है. दावे भी ऐसे-ऐसे कि उसे समझने के लिए आपको रसगुल्ले का इतिहास, भूगोल सब छान मारना होगा लेकिन यकीन मानिए एक रसगुल्ला भी हाथ नहीं आएगा.

ओडिशा और पश्चिम बंगाल के बीच विवाद

इस महीने की शुरुआत में ही यह खबर आई थी कि ओडिशा सरकार रसगुल्ला पर जीआई (Geographical indication) लेबल हासिल करना चाहती है. जीआई हासिल करने से यह सुनिश्चित हो जाता है कि फलां चीज मूल रूप से किस जगह की है. ओडिशा की दलील है कि उनके यहां सदियों से रथयात्रा के दौरान भगवान को रसगुल्ला भेंट करने की परंपरा है. फिर यह बंगाल का कैसे हो गया? ओडिशा के कई इतिहासकार इसका समर्थन करते हैं.

ओडिशा में सत्ता पर काबिज बीजू जनता दल (बीजेडी) के सदस्य आरपी स्वैन ने गुरुवार को विधानसभा में मुद्दा उछाल दिया और सरकार से ओडिशा की धरोहर झपटने की हो रही कोशिश को नाकाम करने की मांग कर डाली. अब बंगाल को यह बात कैसे हजम होती. बस, विवाद शुरू हो गया.

रसगुल्लों से पश्चिम बंगाल का नाता

रसगुल्लों से जुड़ी सबसे प्रचलित कहानी यही है इसे बनाने की शुरुआत कोलकाता में 1868 में नोबिन चंद्र दास ने की. कई इतिहासकारों की दलील यह कि 17वीं शताब्दी से पहले 'छेना' का जिक्र भारतीय खानपान में कहीं नहीं मिलता जो रसगुल्ला बनाने की सबसे बड़ी जरूरत है. भारतीय पौराणिक कथाओं में भी दूध, दही, मक्खन का जिक्र तो मिलता है..छेना नहीं मिलता. इसलिए बंगाल का दावा मजबूत है.

वैसे, अब तक मैं भी यही समझता था कि रसगुल्ला विशुद्ध बंगाली मिठाई है. कई और लोग मेरे जैसा ही सोचते होंगे. लेकिन अब यह घालमेल कंफ्यूजन पैदा कर रहा है. इतिहास टटोलेंगे तो कई जगह यह जिक्र भी मिल जाएगा कि पुर्तगालियों के किसी डिश का ही विकसित रूप रसगुल्ला है. मतलब....यह खबर अगर उड़ते-उड़ते पुर्तगाल पहुंच गई तो तीसरा दावेदार भी आ धमकेगा.

एक पुरानी कहावत है कि आम खाओ....गुठली मत गिनो. जो रसगुल्लों से ज्यादा उसके इतिहास में दिलचस्पी ले रहे हैं उन्हें उनका काम करने दीजिए. मेरी दिलचस्पी तो बस रसगुल्ले में है.

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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