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संस्कृति

कुछ बातें जो फैज को सरहद के दोनों ओर मकबूल बनाती हैं

    • ब्रजेश कुमार सिंह
    • Updated: 20 नवम्बर, 2017 07:13 PM
  • 20 नवम्बर, 2017 07:13 PM
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फैज के तराने जितने जोश के साथ लाहौर में सुने और सुनाये जाते हैं, उतने ही जोश के साथ दिल्ली में भी सुने-सुनाये जाते हैं.

फैज अहमद फैज उन गिने चुने कवियों में से एक हैं, जिनके नाम का जिक्र होते ही हवाओं में कविता की तिलिस्मी पंक्तियां रक़्श करने लगती हैं. फैज के तराने जितने जोश के साथ लाहौर में सुने और सुनाये जाते हैं, उतने ही जोश के साथ दिल्ली में भी सुने-सुनाये जाते हैं. उभरते युवा कवि हो या फिर उम्र के आधे पड़ाव पार कर चुके वरिष्ठ भाषाई आलोचक, फैज का नाम उनकी जुबान पर उसी पाकीजगी के साथ रहता है, जिस तरह एक इंसान के जेहन में अपने पहले महबूब का नाम होता है.

"और भी दुख है जमाने मे मुहब्बत के सिवा

राहतें और भी है वस्ल की राहत के सिवा"

फैज की ये पंक्तियां साहित्य के गलियारों में अब भी किसी चिराग सी जलती नजर आती हैं. ऐसे बिरले ही शख्स होंगे जिन्हें कविता में दिलचस्पी हो और वो फैज के दीवाने न हों. फैज की जादुई शख्सियत का पता इस बात से ही चलता है कि कोर्स की किताबों में जगह न पाने में बावजूद भी फैज, दीवानगी के दौर से गुजरने वाले युवाओं के लबों पर कमल की तरह खिलते हैं. फैज विश्व के उन अदीबों में से एक हैं जो प्रेमियों के बीच गुलाब खिलाने, क्रांतिकारियों के नशों में तेजाब बहाने और नाउम्मीदगी के दलदल में फंसे मजलूमों को उम्मीदों के उजले किनारो पर लाने का माद्दा रखते हैं.

बोल कि लब आजाद हैं तेरे

बोल जबां अब तक तेरी है

बोल ये थोड़ा वक्त बहोत है

जिस्म-ओ-जबां की मौत से पहले

बोल जो कुछ कहना है कह ले

बकौल कवि और आलोचक अशोक वाजपेयी, आधुनिक भारतीय कविता पाकिस्तान के दो बड़े कवियों फैज और इकबाल के बिना मुकम्मल नहीं हो सकती. प्रतिरोध की कविता के झंडाबरदारों में फैज अहमद फैज का नाम घुप्प अंधेरे में जुगनू की भांति चमकता है. एशिया क्या विश्व भर के महान कवियों की फेहरिस्त में फैज अहमद फैज का नाम वैसे ही शुमार है जैसे शहद में मिठास.

सलाखों के बीच लिखे आजादी के...

फैज अहमद फैज उन गिने चुने कवियों में से एक हैं, जिनके नाम का जिक्र होते ही हवाओं में कविता की तिलिस्मी पंक्तियां रक़्श करने लगती हैं. फैज के तराने जितने जोश के साथ लाहौर में सुने और सुनाये जाते हैं, उतने ही जोश के साथ दिल्ली में भी सुने-सुनाये जाते हैं. उभरते युवा कवि हो या फिर उम्र के आधे पड़ाव पार कर चुके वरिष्ठ भाषाई आलोचक, फैज का नाम उनकी जुबान पर उसी पाकीजगी के साथ रहता है, जिस तरह एक इंसान के जेहन में अपने पहले महबूब का नाम होता है.

"और भी दुख है जमाने मे मुहब्बत के सिवा

राहतें और भी है वस्ल की राहत के सिवा"

फैज की ये पंक्तियां साहित्य के गलियारों में अब भी किसी चिराग सी जलती नजर आती हैं. ऐसे बिरले ही शख्स होंगे जिन्हें कविता में दिलचस्पी हो और वो फैज के दीवाने न हों. फैज की जादुई शख्सियत का पता इस बात से ही चलता है कि कोर्स की किताबों में जगह न पाने में बावजूद भी फैज, दीवानगी के दौर से गुजरने वाले युवाओं के लबों पर कमल की तरह खिलते हैं. फैज विश्व के उन अदीबों में से एक हैं जो प्रेमियों के बीच गुलाब खिलाने, क्रांतिकारियों के नशों में तेजाब बहाने और नाउम्मीदगी के दलदल में फंसे मजलूमों को उम्मीदों के उजले किनारो पर लाने का माद्दा रखते हैं.

बोल कि लब आजाद हैं तेरे

बोल जबां अब तक तेरी है

बोल ये थोड़ा वक्त बहोत है

जिस्म-ओ-जबां की मौत से पहले

बोल जो कुछ कहना है कह ले

बकौल कवि और आलोचक अशोक वाजपेयी, आधुनिक भारतीय कविता पाकिस्तान के दो बड़े कवियों फैज और इकबाल के बिना मुकम्मल नहीं हो सकती. प्रतिरोध की कविता के झंडाबरदारों में फैज अहमद फैज का नाम घुप्प अंधेरे में जुगनू की भांति चमकता है. एशिया क्या विश्व भर के महान कवियों की फेहरिस्त में फैज अहमद फैज का नाम वैसे ही शुमार है जैसे शहद में मिठास.

सलाखों के बीच लिखे आजादी के तराने

फैज अहमद फैज साम्यवादी विचारधारा के थे और पाकिस्तान कम्युनिस्ट पार्टी के अहम स्तम्भ थे. 1936 में उन्होंने अविभाजित भारत के पंजाब प्रांत में प्रगतिशील लेखक संगठन की नींव डाली थी. सूफी रिवायतों से प्रभावित फैज कुछ सालों तक शिक्षक भी रहे. बाद में वो सेना में भर्ती हो गए. हालांकि सेना में भी वो ज्यादा दिन तक बने नहीं रह पाए और सन् 1947 में उन्होंने लेफ्टिनेंट कर्नल के पद से इस्तीफा दे दिया.

मेरी शायरी ही मेरी पहचान है

1947 में हुए भारत पाकिस्तान विभाजन के बाद फैज ने पाकिस्तान का रुख किया. फैज की शायरी में जहां प्रेम था, वहीं नाइंसाफी, शोषण और उत्पीड़न से लड़ने के लिए बारूद भी मौजूद था. पाकिस्तान में फैज को चौधरी लियाकत अली खान के तख्ता पलट के आरोप में गिरफ्तार भी कर लिया गया था. गिरफ्तार होने के बाद तकरीबन 5 साल के लिए उन्होंने सलाखों के पीछे जिंदगी बिताई. इस दौरान कई शायरियां और नज्में लिखीं.

उनके द्वारा जेल में लिखी शायरियां और नज्में "जिंदानामा" और "दस्ते-सबा" नामक दो किताबों में संग्रहित है. फैज के जीवन में वो दौर भी आया जब उन्हें उनके ही मुल्क से बेदखल कर दिया गया. मुल्क छोड़ने के बाद उन्होंने कुछ साल रूस (तब सोवियत संघ) में बिताए. उन्हें तत्कालीन रूसी सरकार ने लेनिन शांति पुरस्कार से भी नवाजा. ये सोवियत संघ का सर्वोच्च सम्मान था. फैज उन कलमकारों में से एक थे जिन्होंने अपने उसूलों और तेवर से समझौता नहीं किया था. इस बातका उदाहरण उनकी इस रचना में मिलता है.

निसार मैं तेरी गलियों के ऐ वतन कि जहां

चली है रस्म कि कोई न सर उठा के चले

जो कोई भी चाहने वाला तवाफ़ को निकले

नजर चुरा के चले, जिस्म-ओ-जां बचा के चले

13 फरवरी, 1911 को अविभाजित भारत के सियालकोट में जन्में इस करिश्माई कलमकार को स्मृति के कोठियों में लाना किसी साहित्य पर्व से कम नहीं है. अगर उनके बारे में उन्हीं के बारे में कहा जाए तो ये पंक्तियां बेहद मुफीद हैं.

वो लोग बहुत खुशकिस्मत थे, जो इश्क को काम समझते थे

या काम से आशिकी करते थे, हम जीते जी मशरूफ रहें

कुछ इश्क किया, कुछ काम किया

73 वर्ष की उम्र में 20 नवंबर 1984 को फैज इस दुनिया को अलविदा कह दूसरी दुनिया को अपने कलम के जादू में डुबोने चले गए. उनको इस दुनिया से गए आज 33 साल हो गए. लेकिन वो अपनी शायरियों अपने नज्मों के जरिये अब भी प्रेमियों के खतों में. दीवाने कवियों के मुशायरे में. चाय की मेजों पर. शराबखानों के तंग कमरों से लेकर लोगो के दिलों में बसे हुए हैं.

2014 में विशाल भारद्वाज के निर्देशन में बनी फिल्म हैदर में भी फैज अहमद फैज की एक नज्म 'आज के नाम औरआज के फन के नाम" को गुलजार साहब ने एक गीत का रूप दिया. यह गाना अबतक लोगों की जुबान पर ठीक वैसे बना हुआ है जैसे तमाम कवियों की मेज पर फैज अहमद फैज की किताब रखी होती है.

गुलों में रंग भरे, बाद-ए- नौबहार चलेचले भी आओ कि गुलशन का करोबार चले

क़फ़स उदास है यारो, सबा से कुछ तो कहोकहीं तो बहर-ए- ख़ुदा आज ज़िक्र-ए- यार चले

कभी तो सुब्ह तेरे कुंज-ए- लब से हो आग़ाज़कभी तो शब सर-ए- काकुल से मुश्क-ए- बार चले

बड़ा है दर्द का रिश्ता, ये दिल ग़रीब सहीतुम्हारे नाम पे आयेंगे ग़मगुसार चले

जो हम पे गुज़री सो गुज़री मगर शब -ए- हिज्राँहमारे अश्क तेरी आक़बत सँवार चले

हुज़ोओर-ए- यार हुई दफ़्तर-ए- जुनूँ की तलबगिरह में लेके गरेबाँ का तार तार चले

मक़ाम 'फैज़' कोई राह में जचा ही नहींजो कू-ए- यार से निकले तो सू-ए- दार चले

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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