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ये घटना दिखाती है कि ओलंपिक में भारत मेडल क्यों नहीं जीतता?

    • अभिषेक पाण्डेय
    • Updated: 29 अगस्त, 2016 09:05 PM
  • 29 अगस्त, 2016 09:05 PM
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रियो ओलंपिक से लौटी भारतीय महिला हॉकी टीम की चार सदस्यों को ट्रेन की फर्श पर बैठकर सफर करने के लिए मजबूर होना पड़ा, आखिर कब हमारा देश अपने खिलाड़ियों का सम्मान करना सीखेगा?

रियो ओलंपिक खत्म होने पर इस बात की बड़ी चर्चा हुई कि आखिर क्यों सवा अरब की आबादी वाला देश भारत ओलंपिक में महज दो ही पदक जीत पाया. ओलंपिक जैसे बड़े खेल मंचों पर भारत के ऐसे लचर प्रदर्शन की वजह क्या है इसका जवाब हाल ही में ओलंपिक से वापस लौटी भारतीय महिला हॉकी टीम के साथ किए गए रेलवे के व्यवहार से आपको बड़ी आसानी से मिल जाएगा.

रियो से वापस लौटी भारतीय महिला हॉकी टीम की कुछ सदस्यों द्वारा अपने घर लौटने के दौरान ट्रेन की टिकट कन्फर्म न होने के बाद ट्रेन की फर्श पर बैठकर सफर करने के लिए मजबूर होना पड़ा. ये खिलाड़ी उस महिला टीम का हिस्सा हैं जिन्होंने भारतीय महिला हॉकी टीम को 36 साल बाद ओलंपिक में खेलने का अवसर उपलब्ध करावाया था. देश को गौरवान्वित करने वाली इन खिलाड़ियों के साथ अपने ही देश में ऐसे शर्मनाक व्यवहार की कहानी सुनकर आपका सिर शर्म से झुक जाएगा.

भारतीय महिला हॉकी टीम को ट्रेन की फर्श पर बैठकर करना पड़ा सफरः स्पोर्ट्सकीड़ा की रिपोर्ट के मुताबिक, रियो ओलंपिक से स्वेदश लौटी भारतीय महिला हॉकी टीम की चार सदस्य नमिता टोप्पो, दीप ग्रेस एक्का, लिलिमा मिंज और सुनीता लाकरा धनबाद-अल्लीपे एक्सप्रेस ट्रेन से रांची से राउरकेला जा रही थीं. स्टेशन पहुंचने पर सुनीता को टीटीई ने सूचित किया कि उनकी सीटें कन्फर्म नहीं हैं.

इस पर उन खिलाड़ियों ने टीटीई के सामने अपनी पहचान जाहिर की लेकिन टीटीई पर इसका कोई असर नहीं पड़ा और उसने कहा कि वे ट्रेन की फर्श पर सफर करें क्योंकि जब तक कोई सीट खाली नहीं होती उन्हें सीट नहीं मिल सकती.

सुनीता ने कहा, 'ट्रेन स्टेशन से करीब 4 बजे छूटी, हमने टीटीई से कहा कि हम पिछले तीन-चार दिनों से सफर कर रहे हैं और उससे एक-दो सीटें देने का अनुरोध किया. उसने कहा कि कोई सीट खाली नहीं है और हम या तो दूसरी ट्रेन का इंतजार करें या फिर ट्रेन के गेट की फर्श पर बैठें. हमने करीब घंटे-डेढ़ घंटे का इंतजार किया. हम 6.45 पर राउरकेला पहुंचे, हममें से दो के पास सीटें नहीं थीं.' पनपोश जिले के एसडीएम ने इस घटना पर नाराजगी...

रियो ओलंपिक खत्म होने पर इस बात की बड़ी चर्चा हुई कि आखिर क्यों सवा अरब की आबादी वाला देश भारत ओलंपिक में महज दो ही पदक जीत पाया. ओलंपिक जैसे बड़े खेल मंचों पर भारत के ऐसे लचर प्रदर्शन की वजह क्या है इसका जवाब हाल ही में ओलंपिक से वापस लौटी भारतीय महिला हॉकी टीम के साथ किए गए रेलवे के व्यवहार से आपको बड़ी आसानी से मिल जाएगा.

रियो से वापस लौटी भारतीय महिला हॉकी टीम की कुछ सदस्यों द्वारा अपने घर लौटने के दौरान ट्रेन की टिकट कन्फर्म न होने के बाद ट्रेन की फर्श पर बैठकर सफर करने के लिए मजबूर होना पड़ा. ये खिलाड़ी उस महिला टीम का हिस्सा हैं जिन्होंने भारतीय महिला हॉकी टीम को 36 साल बाद ओलंपिक में खेलने का अवसर उपलब्ध करावाया था. देश को गौरवान्वित करने वाली इन खिलाड़ियों के साथ अपने ही देश में ऐसे शर्मनाक व्यवहार की कहानी सुनकर आपका सिर शर्म से झुक जाएगा.

भारतीय महिला हॉकी टीम को ट्रेन की फर्श पर बैठकर करना पड़ा सफरः स्पोर्ट्सकीड़ा की रिपोर्ट के मुताबिक, रियो ओलंपिक से स्वेदश लौटी भारतीय महिला हॉकी टीम की चार सदस्य नमिता टोप्पो, दीप ग्रेस एक्का, लिलिमा मिंज और सुनीता लाकरा धनबाद-अल्लीपे एक्सप्रेस ट्रेन से रांची से राउरकेला जा रही थीं. स्टेशन पहुंचने पर सुनीता को टीटीई ने सूचित किया कि उनकी सीटें कन्फर्म नहीं हैं.

इस पर उन खिलाड़ियों ने टीटीई के सामने अपनी पहचान जाहिर की लेकिन टीटीई पर इसका कोई असर नहीं पड़ा और उसने कहा कि वे ट्रेन की फर्श पर सफर करें क्योंकि जब तक कोई सीट खाली नहीं होती उन्हें सीट नहीं मिल सकती.

सुनीता ने कहा, 'ट्रेन स्टेशन से करीब 4 बजे छूटी, हमने टीटीई से कहा कि हम पिछले तीन-चार दिनों से सफर कर रहे हैं और उससे एक-दो सीटें देने का अनुरोध किया. उसने कहा कि कोई सीट खाली नहीं है और हम या तो दूसरी ट्रेन का इंतजार करें या फिर ट्रेन के गेट की फर्श पर बैठें. हमने करीब घंटे-डेढ़ घंटे का इंतजार किया. हम 6.45 पर राउरकेला पहुंचे, हममें से दो के पास सीटें नहीं थीं.' पनपोश जिले के एसडीएम ने इस घटना पर नाराजगी जताते हए रेलवे के खिलाफ कार्रवाई करने की बात की है.

यह घटना दिखाती है कि भारत ओलंपिक में मेडल क्यों नहीं जीतता!यह घटना दिखाती है कि सरकार से लेकर सरकारी विभागों तक का खिलाड़ियों के प्रति रवैया कैसा है. अब कुछ लोग ये भी तर्क दे सकते हैं कि अगर टिकट कन्फर्म नहीं थी तो भला टीटीई सीट कैसे दे सकता था. तो भारतीय ट्रेनों में टीटीई मनमुताबिक कैसे सीटें बांटते हैं इसे हर कोई जानता है.

वैसे भी क्या ये खेल मंत्रालय से लेकर हॉकी की संचालन संस्था हॉकी इंडिया की जिम्मेदारी नहीं है कि कम से कम बाकी प्रतियोगिताओं के लिए नहीं तो ओलंपिक की टीम का सम्मान करते हुए खिलाड़ियों को सुविधापूर्वक घर तक पहुंचाना सुनिश्चित किया जाए. अपने देश में ही ट्रेन की फर्श पर बैठकर सफर करने को मजबूर खिलाड़ियों से कैसे हम उम्मीद कर लेते हैं कि वे अमेरिका, ब्रिटेन और चीन जैसे देशों के खिलाड़ियों से टक्कर लेंगे, जहां की सरकारें अपने खिलाड़ियों पर पानी की तरह पैसे बहाती हैं.

रियो ओलपिक में भाग लेने वाली भारतीय महिला हॉकी टीम की 4 सदस्यों को ट्रेन की फर्श पर सफर करना पड़ा

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यही रवैया है कि देश को चार साल बाद याद आता है कि ओलंपिक जैसी भी कोई खेल प्रतियोगिता होती है. ओलंपिक खत्म, फिर सबकुछ भुला दिया जाता है. न खिलाड़ियों की आर्थिक स्थित का ध्यान रखा जाता है न ही उनके भविष्य का. ऐसे में अगर साक्षी मलिक और पीवी सिंधू जैसी खिलाड़ी अपनी प्रतिभा के दम पर ओलंपिक में मेडल जीतती हैं तो इसका श्रेय लेने वालों की लाइन लग जाती है. लेकिन इन खिलाड़ियों के संघर्ष भरे दिनों में उनकी मदद करने के लिए कोई आगे नहीं आता.

हॉकी के जादूगर मेजर ध्यानचंद को क्यों नहीं दिया गया भारत रत्न?

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हां, यही वजह है कि इस देश में हॉकी मर रही है या कोमा में पहुंच चुकी है. आज यानी 29 अगस्त को हॉकी के जादूगर कहे जाने वाले मेजर ध्यानचंद का जन्मदिन है. हर साल उनके जन्मदिन पर उन्हें भारत रत्न दिए जाने की मांग उठती है और फिर अगले जन्मदिन तक उसे भुला दिया जाता है.

जिस देश में सरकारें नेताओं को भारत रत्न रेवड़ियों की तरह बांटती हों और ओलंपिक में भारत को तीन गोल्ड मेडल दिलाने वाले ध्यानचंद जैसे महान खिलाड़ियों को भारत रत्न के लायक न समझती हों वहां खेल और खिलाड़ियों की स्थिति का अंदाजा बड़ी आसानी से लग जाता है.

अगर इस देश में सरकारों, नेताओं और समाज का खेल के प्रति ऐसा ही रवैया है तो खिलाड़ियों से ओलंपिक में मेडल जीतने की उम्मीदें  ही क्यों, मेडल न जीत पाने के लिए खिलाड़ियों को दोषी ठहरान से पहले सरकार, खेल संघों, नेताओं और समाज को भी अपने गिरेबां में झांककर देखने की जरूरत है कि आखिर क्यों भारत खेलों में अमेरिका तो छोड़िए पड़ोसी देश चीन के आसपास भी नहीं पहुंच सकता. यकीन मानिए अगर सरकारों ने खेलों के प्रति अपना रवैया नहीं बदला तो अगला ओलंपिक छोड़िए अगले पचास वर्षों में भी हम चीन की  बराबरी तक नहीं पहुंच पाएंगे.

अगर भारत को खेलों की महाशक्ति बनना है तो 'हर चार साल में ओलंपिक में मेडल क्यों नहीं जीत पाए' का रोना छोड़कर खेल को अपने जीवन, सोच और संस्कृति का हिस्सा बनाना होगा, खेलों को लेकर सरकारों को ठोस नीति बनानी होगी. खेल को भी पढ़ाई की तरह महत्वपूर्ण मानकर बचपन से ही बच्चों के मन में जीतने और बेहतरीन खिलाड़ी बनने की सोच पैदा करनी होगी. तब कहीं जाकर देश में एक-दो नहीं बल्कि सैकड़ों चैंपियनों की फौज पैदा होगी.

अगर ऐसा हो गया तो ओलंपिक की पदक तालिका में आपको भारत को खोजने की जरूरत नहीं पड़ेगी बल्कि वह आपको अमेरिका और चीन से भी आगे खड़ा नजर आएगा.

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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