• होम
  • सियासत
  • समाज
  • स्पोर्ट्स
  • सिनेमा
  • सोशल मीडिया
  • इकोनॉमी
  • ह्यूमर
  • टेक्नोलॉजी
  • वीडियो
होम
समाज

बचपन की जरूरत है ‘हम दो-हमारे दो’

    • प्रियंका ओम
    • Updated: 31 मई, 2017 01:38 PM
  • 31 मई, 2017 01:38 PM
offline
आजकल परिवार में लोग एक ही बच्चे से संतुष्ट तो हैं, लेकिन सवाल उठता है कि क्या जिंदगी से बुआ, चाचा और मौसी जैसे रिश्ते ऐसे ही दम तोड़ देंगे?

पिछले एक दशक से बढ़ती हुई जनसंख्या और महंगाई का आम जन जीवन पर इतना ज्यादा असर पड़ा है कि परिवार अब दिन-ब-दिन छोटे होते जा रहे हैं. "हम दो हमारे दो" का नारा चुपचाप ‘हम दो हमारा एक’ हो गया. आजकल हर परिवार में एकल बच्चा है. कोई दूसरा बच्चा चाहता ही नहीं है. पूछने पर नपे तुले से जवाब मिलते हैं- ‘we can’t afford’, ‘महंगाई बहुत है’ या ‘पढ़ाई बहुत महंगी हो गई है, एक को ही पढ़ा लिखाकर काबिल बना दें यही बहुत है.’

हालांकि ये सारे जवाब अपनी जगह सही हैं लेकिन फिर सवाल ये उठता है कि क्या जिंदगी से बुआ, चाचा और मौसी जैसे रिश्ते बढ़ती हुई महंगाई के खौफ से दम तोड़ देंगे?

बेशक ये भवुक करने वाली बात है, लेकिन क्या वाकई जीवन में भावनाओं का कोई स्थान नही रहा. हम इतने भौतिकवादी होते जा रहे है कि हमें जीने के लिये सिवाय पैसे के और कुछ नहीं चाहिये.

मात्र रिश्तों की चेन के लिये ही नहीं बल्कि बच्चों के व्यक्तित्व विकास के लिये भी कम से कम दो बच्चे जरूरी हैं.

आजकल बच्चों का टीवी से या टैब से लगाव बहुत कॉमन हो गया और पेरेंट्स की शिकायत लगातार बनी रहती है. असल में दोष बच्चों का नहीं, दोष हमारा है. हमने उनके पास कोई रास्ता छोड़ा ही नहीं.

पहले परिवारों में घर में कई बच्चे होते थे, जिससे बच्चे टीवी कम देखते थे, आपस में खेलते ज्यादा थे. मेरी एक दोस्त का एक ही बेटा है. उसे खेलना बहुत पसंद है. उसकी मम्मी उसके लिये तरह-तरह खिलौने ले आती हैं, लेकिन वो जल्दी ही उन चीज़ों से बोर हो जाता है और स्कूल से आने के बाद सारा दिन या तो टीवी पर कार्टून देखता है या फिर टैब पर गेम खेलता है. लेकिन जब कभी उसका कोई दोस्त उसके घर आता है या वो किसी के घर जाता है तब न तो वो टीवी देखता है ना टैब पर गेम खेलता है.

पिछले एक दशक से बढ़ती हुई जनसंख्या और महंगाई का आम जन जीवन पर इतना ज्यादा असर पड़ा है कि परिवार अब दिन-ब-दिन छोटे होते जा रहे हैं. "हम दो हमारे दो" का नारा चुपचाप ‘हम दो हमारा एक’ हो गया. आजकल हर परिवार में एकल बच्चा है. कोई दूसरा बच्चा चाहता ही नहीं है. पूछने पर नपे तुले से जवाब मिलते हैं- ‘we can’t afford’, ‘महंगाई बहुत है’ या ‘पढ़ाई बहुत महंगी हो गई है, एक को ही पढ़ा लिखाकर काबिल बना दें यही बहुत है.’

हालांकि ये सारे जवाब अपनी जगह सही हैं लेकिन फिर सवाल ये उठता है कि क्या जिंदगी से बुआ, चाचा और मौसी जैसे रिश्ते बढ़ती हुई महंगाई के खौफ से दम तोड़ देंगे?

बेशक ये भवुक करने वाली बात है, लेकिन क्या वाकई जीवन में भावनाओं का कोई स्थान नही रहा. हम इतने भौतिकवादी होते जा रहे है कि हमें जीने के लिये सिवाय पैसे के और कुछ नहीं चाहिये.

मात्र रिश्तों की चेन के लिये ही नहीं बल्कि बच्चों के व्यक्तित्व विकास के लिये भी कम से कम दो बच्चे जरूरी हैं.

आजकल बच्चों का टीवी से या टैब से लगाव बहुत कॉमन हो गया और पेरेंट्स की शिकायत लगातार बनी रहती है. असल में दोष बच्चों का नहीं, दोष हमारा है. हमने उनके पास कोई रास्ता छोड़ा ही नहीं.

पहले परिवारों में घर में कई बच्चे होते थे, जिससे बच्चे टीवी कम देखते थे, आपस में खेलते ज्यादा थे. मेरी एक दोस्त का एक ही बेटा है. उसे खेलना बहुत पसंद है. उसकी मम्मी उसके लिये तरह-तरह खिलौने ले आती हैं, लेकिन वो जल्दी ही उन चीज़ों से बोर हो जाता है और स्कूल से आने के बाद सारा दिन या तो टीवी पर कार्टून देखता है या फिर टैब पर गेम खेलता है. लेकिन जब कभी उसका कोई दोस्त उसके घर आता है या वो किसी के घर जाता है तब न तो वो टीवी देखता है ना टैब पर गेम खेलता है.

साथ न मिले तो अकेला महसूस करते हैं बच्चे

मैंने कुछ एकल बच्चे वाले पेरेंट्स से बात की. एक ने कहा ‘आजकल महंगाई इतनी बढ़ गई है कि हम दोनों काम पे जाते हैं. बिटिया जब छोटी थी तब उसे क्रेच छोड़ कर जाते थे, अब पूरे दिन के लिए मेड रखी है.’

‘किसी बुज़ुर्ग को क्यों नहीं बुला लेते?’

‘उनके आने से खर्चा बढ़ जायेगा. एक तरफ रोज-रोज उनकी बुढ़ापे की बीमारी तो दूसरी तरफ सोच और समझ का फर्क. बच्चों को वो सिर्फ पुरानी बातें सिखायेंगे. इससे अच्छा है मैं काम पे ही न जाऊं.'

‘तो मत जाओ’. ‘कैसे न जाऊं, आजकल स्कूल की फीस और कंपटीशन इतना बढ़ गया है कि एक की कमाई से खर्चा पूरा नहीं पड़ता.’

मेरे बेटे के क्लास में पढ़ने वाला एक लड़का हमेशा अपनी नानी के साथ स्कूल आता जाता है. उसकी मम्मी जॉब करती हैं और पापा किसी अन्य देश में है. सात साल के उस बच्चे का दिमाग धर्म और जात पात की बातों से भरा है. वो अक्सर स्कूल में दूसरे बच्चों से कहता रहता है ‘फलाने से बात मत करो मुस्लिम है, ढ़िमकाने के साथ मत खाना वो पाकिस्तानी है.’

एक दूसरी महिला ने सात साल बाद जिंदगी की दूसरी जरूरतों को नजरंदाज करते हुए जॉब छोड़ अपनी बेटी के अकेलेपन को दूर करने का फैसला किया. लेकिन उसकी बेटी ने कहा "मैं आपके साथ खेल नहीं सकती, आपने इतना लेट क्यों किया?

अक्सर पहले बच्चे की परवरिश में आई परेशानी के कारण हम दूसरे बच्चे के बारे में सोचने में बहुत वक़्त लगा देते हैं. तब पहला बच्चा दूसरे बच्चे का भैया या दीदी बनकर रह जाता है. जब तक दूसरा बच्चा बड़ा होता है तब तक पहला काफी बड़ा हो जाता है, ऐसे में वे कभी दोस्त नहीं बन पाते हैं.

अकेले पलने वाले बच्चों में संवेदना की कमी पाई गई है. वो स्वार्थी हो जाते हैं. अकेले रहते-रहते वो अकेलेपन का शिकार हो जाते हैं, ऐसा बच्चा बाद में अनसोशल कहलाता है, इसलिये परिवार में कम से कम दो बच्चे होना बहुत जरूरी हैं.

ये भी पढ़ें-

बच्चा माता-पिता के ऐसे वीडियो बनाए, उससे पहले प्रलय क्यों नहीं आ जाए !

बच्चे के रिजल्ट वाले दिन माता-पिता ये करें

मां-बाप और बच्चे एक ही बिस्तर पर सोएं, तो इसमें अजीब क्या है??

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

ये भी पढ़ें

Read more!

संबंधि‍त ख़बरें

  • offline
    आम आदमी क्लीनिक: मेडिकल टेस्ट से लेकर जरूरी दवाएं, सबकुछ फ्री, गांवों पर खास फोकस
  • offline
    पंजाब में आम आदमी क्लीनिक: 2 करोड़ लोग उठा चुके मुफ्त स्वास्थ्य सुविधा का फायदा
  • offline
    CM भगवंत मान की SSF ने सड़क हादसों में ला दी 45 फीसदी की कमी
  • offline
    CM भगवंत मान की पहल पर 35 साल बाद इस गांव में पहुंचा नहर का पानी, झूम उठे किसान
Copyright © 2025 Living Media India Limited. For reprint rights: Syndications Today.

Read :

  • Facebook
  • Twitter

what is Ichowk :

  • About
  • Team
  • Contact
Copyright © 2025 Living Media India Limited. For reprint rights: Syndications Today.
▲