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किसानों के लिए गोलियां नहीं नीतियां बनाएं

    • प्रभुनाथ शुक्ल
    • Updated: 08 जून, 2017 12:59 PM
  • 08 जून, 2017 12:59 PM
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राज्य के गृहमंत्री का दावा है कि सरकार ने किसानों पर गोली चलाने का आदेश नहीं दिया, पुलिस ने गोलियां नहीं चलाई. उन्होंने कहा है कि गोलियां असामाजिक लोगों और षडयंत्रकारियों ने चलाईं.

मध्यप्रदेश के मंदसौर में किसानों के साथ जो कुछ हुआ उसे अच्छा नहीं कहा जा सकता. शिवराज सरकार अपनी जवाबदेही और जिम्मेदारियों से बच नहीं सकती. चलिए यह मान भी लिया जाए कि सरकार इसके लिए दोषी नहीं है फिर किसके आदेश पर गोलियां बरसाई गईं, जिसकी वजह से छह किसानों की मौत हो गई. लेकिन अब किसानों पर राजनीति की जा रही है.

मध्यप्रदेश की शिवराज सरकार और कांग्रेस इस पर खुली राजनीति कर रही है. राज्य की सत्ता से बाहर कांग्रेस इस मसले को हवा देकर जहां वापसी का रास्ता खोज रही है वहीं शिवराज सरकार किसी भी कीमत पर इसका लाभ कांग्रेस के हाथ नहीं जाने देना चाहती है. लेकिन सरकार के लिए यह आंदोलन बड़ी मुसीबत बन गया है. विपक्ष इस पर लामबंद होता दिख रहा है.

किसानों के गुस्से और आंदोलन की आग को कम करने के लिए सरकार ने मुआवजे को बढ़ा दिया है. सरकार ने पहले हादसे का शिकार हुए किसानों के लिए दो से दस लाख का मुआवजा घोषित किया, लेकिन बाद में इसकी राशि बढ़ा कर दस लाख से एक करोड़ कर दी गई. देश के मुवावजा इतिहास में शायद यह सबसे बड़ी राशि है. बावजूद अब यह आंदोलन पूरे राज्य में फैलता दिख रहा है.

आंदोलनकारी किसानों का गुस्सा इतना तीव्र था कि समझाने पहुंचे जिलाधिकारी को भी नहीं बख्शा गया, उनके कपड़े फाड़ दिए गए. हाईवे जाम करने के बाद कई वाहनों को आगे के हवाले कर दिया गया. थाने को भी आग लगाने की कोशिश की गई. पुलिस से कई जगह मंडियों और राजमार्ग पर हिंसक झड़प हुईं. इस आंदोलन की वजह से करोड़ों रुपये की क्षति हुई है. राज्य की कानून-व्यवस्था की स्थिति बिगड़ गई है. मंदसौर और दूसरे जिलों में कफर्यू लगा दिया गया है. कई जिलों की टेलीफोन और इंटरनेट...

मध्यप्रदेश के मंदसौर में किसानों के साथ जो कुछ हुआ उसे अच्छा नहीं कहा जा सकता. शिवराज सरकार अपनी जवाबदेही और जिम्मेदारियों से बच नहीं सकती. चलिए यह मान भी लिया जाए कि सरकार इसके लिए दोषी नहीं है फिर किसके आदेश पर गोलियां बरसाई गईं, जिसकी वजह से छह किसानों की मौत हो गई. लेकिन अब किसानों पर राजनीति की जा रही है.

मध्यप्रदेश की शिवराज सरकार और कांग्रेस इस पर खुली राजनीति कर रही है. राज्य की सत्ता से बाहर कांग्रेस इस मसले को हवा देकर जहां वापसी का रास्ता खोज रही है वहीं शिवराज सरकार किसी भी कीमत पर इसका लाभ कांग्रेस के हाथ नहीं जाने देना चाहती है. लेकिन सरकार के लिए यह आंदोलन बड़ी मुसीबत बन गया है. विपक्ष इस पर लामबंद होता दिख रहा है.

किसानों के गुस्से और आंदोलन की आग को कम करने के लिए सरकार ने मुआवजे को बढ़ा दिया है. सरकार ने पहले हादसे का शिकार हुए किसानों के लिए दो से दस लाख का मुआवजा घोषित किया, लेकिन बाद में इसकी राशि बढ़ा कर दस लाख से एक करोड़ कर दी गई. देश के मुवावजा इतिहास में शायद यह सबसे बड़ी राशि है. बावजूद अब यह आंदोलन पूरे राज्य में फैलता दिख रहा है.

आंदोलनकारी किसानों का गुस्सा इतना तीव्र था कि समझाने पहुंचे जिलाधिकारी को भी नहीं बख्शा गया, उनके कपड़े फाड़ दिए गए. हाईवे जाम करने के बाद कई वाहनों को आगे के हवाले कर दिया गया. थाने को भी आग लगाने की कोशिश की गई. पुलिस से कई जगह मंडियों और राजमार्ग पर हिंसक झड़प हुईं. इस आंदोलन की वजह से करोड़ों रुपये की क्षति हुई है. राज्य की कानून-व्यवस्था की स्थिति बिगड़ गई है. मंदसौर और दूसरे जिलों में कफर्यू लगा दिया गया है. कई जिलों की टेलीफोन और इंटरनेट सेवाएं ठप कर दी गई हैं.

राज्य के गृहमंत्री का दावा है कि सरकार ने किसानों पर गोली चलाने का आदेश नहीं दिया, पुलिस ने गोलियां नहीं चलाई. उन्होंने कहा है कि गोलियां असामाजिक लोगों और षडयंत्रकारियों ने चलाईं. जिले की प्रभारी मंत्री अर्चना चिटनीस ने तो चार कदम और आगे बढ़ते हुए घटना को सियासी साजिश बताते हुए इसके पीछे मादक तस्करों और कांग्रेस का हाथ बता डाला. मुख्यमंत्री ने भी कहा है कि आंदोलन को उग्र और हिंसक बनाने में कांग्रेस की भूमिका रही है.

हम मानते हैं सरकार की बात में दम हो सकता था फिर मुख्यमंत्री और उनकी सरकार के मंत्रियों ने यह सब जानते हुए भी समय पर कार्रवाई क्यों नहीं की. केंद्र से लेकर राज्य सरकारें किसानों पर राजनीति करती आई हैं. कांग्रेस आज किसानों की सबसे हितैषी बन गयी है. राहुल गांधी किसानों पर खासे चिंचित दिखते हैं, लेकिन 60 सालों तक राज करने वाली कांग्रेस किसान और कृषि के लिए ठोस नीति क्यों नहीं तैयार कर पाई.

महाराष्ट्र, आंध्रप्रदेश, कर्नाटक, तमिलनाडू, पंजाब, उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश, जैसे बड़े राज्यों में किसानों की स्थिति बेहद बुरी है. आए दिन किसान आत्महत्या कर रहे हैं. लेकिन सरकारें किसानों की कर्जमाफी और उनकी बदहाली को चुनावी मसला बना कर सत्ता में आती हैं फिर उसपर राजनीति करती हैं. तमिलनाडू के किसान मार्च में 40 दिनों तक राजधानी दिल्ली में जंतर-मंतर पर अपनी मांगों को लेकर प्रदर्शन किया. सरकार का ध्यान अपनी तरफ खींचने के लिए नरमुंड के साथ जहां प्रदर्शन किया वहीं मूत्रपान भी किया. बाद में तमिलनाडू हाईकोर्ट ने सरकार को किसानों की कर्जमाफी का आदेश दिया. तमिलनाडू में एक साल के दौरान तकरीन 400 किसान खुदकुशी कर चुके हैं. राज्य के किसानों पर 7000 करोड़ का कर्ज है.

देश में 12,000 किसान प्रति वर्ष फसल की बार्बादी, कर्ज की अधिकता, राजस्व वसूली और बैंकों के दबाव के कारण आत्महत्या को मजबूर होते हैं. देश में 1.2 करोड़ हेक्टेयर पर बोयी गयी गेहूं की फसल बर्बाद हो चली है. जिसकी कीमत तकरीबन 65,000 करोड़ रुपए है. 4.5 करोड़ किसान इस आपदा से प्रभावित हैं. कृषि के लिए ढ़ांचागत विकास न होने से किसानों की संख्या घट रही है. किसान अब मजबूर है. 2001 में किसानों की संख्या 12.73 करोड़ थी जबकि 2011 में यह घट कर 11 करोड़ 88 लाख पर पहुंच गयी.

देश में साल 2011 में 14027, 2012 में 13754 और 2013 में 11772 किसानों ने विभिन्न कराणों से आत्महत्या की. महाराष्ट्र में सत्ता की कमान संभालने वाली फड़नवीस सरकार में अब तक 852 किसान आत्महत्या कर चुके हैं. एक हेक्टेयर पर बोयी गयी गेहूं की फसल पर 90 हजार से अधिक की लागत लगती है. जिसमें सबसे अधिक खर्च 68 हजार रुपये श्रम पर आती है. लेकिन मुवावजे पर सरकरों की ओर से किसानों के साथ कितना भद्दा मजाक किया जा रहा है. उन्हें मुवावजे के नाम पर 62 और 72 रुपये के चेक दिए जा रहे हैं. वह भी बाउंस हो रहे हैं. सबसे अधिक कर्ज उत्तर प्रदेश के किसानों पर है.

पंजाब में दो महीने के अंदर 37 से अधिक किसान आत्महत्या कर चुके हैं. पंजाब में 2000 से 2010 के बीच 6,926 किसान आत्महत्या कर चुके हैं. इनमें से 3,954 किसान और 2,972 खेती से जुड़े मजदूर थे. पंजाब की अमरिंदर सरकार इस समस्या को लेकर खासी परेशान है और वह किसानों से आत्महत्या न करने की अपील कर चुकी है.

जबकि महाराष्ट्र में सिर्फ पांच माह में 852 किसान आत्महत्या कर चुके हैं. किसानों की आत्महत्या पर फड़नवीस सरकार के एक मंत्री के बयान पर बवाल मचा था. बाद में उन्होंने खुद खेत में हल चला खुद को किसान हितैषी साबित करने की कोशिश की. राज्य में किसान आंदोलन को देखते हुए सरकार ने किसानों की कर्जमाफी का एलान किया है.

किसानों की कर्जमाफी बड़ा मसला है. लेकन केंद्र की सरकारें हमेशा इससे बचती रहती हैं. हालांकि कांग्रेस ने 2008 में 60 हजार करोड़ का कर्जमाफ किया था, लेकिन केंद्र की मोदी सरकार इस मसले को कभी गंभीरता से नहीं लिया. वह हमेशा कर्जमाफी के बजाय किसानों को दूसरे रास्ते से लाभ पहुंचाने की बात करती रही है. लेकिन जमीनी सच्चाई है कि किसानों की हालत इतनी बुरी है कि उसे सरकार की नीतियों के बदौलत नहीं सुधारा जा सकता है. केंद्र सरकार इस बोझ को उठाने के लिए तैयार नहीं दिखती है. हालांकि केंद्र सरकार ने किसान क्रेडिटकार्ड की राशि को 8.50 लाख से बढ़ा कर 10 लाख करोड़ कर दिया है. लेकिन वह भी किसानों की स्थिति देखते हुए नाकाफी है.

भारत की अर्थ व्यवस्था में कृषि और उसके उत्पादनों का बड़ा योगदान है. खाद्यान्न के मामले में अगर आज देश आत्मनिर्भर है तो यह अन्नदाताओं की कृपा है. उफ! लेकिन यह दर्दनाक तस्वीर हैं. बुंदेलखंड का किसान परिवार अनाज के अभाव में सूखे बेर और पापड़ बनी पूड़ियां खाने को मजबूर होता है. लेकिन खेती और किसानों पर सिर्फ और सिर्फ राजनीति होती है. सब कुछ धोखा, हर जगह छलावा. प्राकृतिक आपदा ने हमारी व्यवस्था को जमीन पर ला दिया है. सरकार और उसकी ब्यूरोक्रेसी कटघरे में है. किसानों की कर्जमाफी पर एक आयोग गठित कर राज्य और केंद्र सरकारों को मिलकर नीति बनानी चाहिए. समस्या का समाधान गोलियां नहीं नीतियां हैं. किसानों पर राजनीति बंद होनी चाहिए.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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