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ये रेल नहीं हादसों का सफर है....

    • सिद्धार्थ झा
    • Updated: 22 नवम्बर, 2016 01:08 PM
  • 22 नवम्बर, 2016 01:08 PM
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आंकड़ो के मुताबिक प्रतिवर्ष देशभर में 300 से ज्यादा रेल हादसे होते हैं. हर हादसे के बाद जांच होती है, लेकिन नतीजे अगले हादसे के रूप में सामने आते हैं.

भारतीय रेलवे अपनी लंबाई या लम्बी दूरियों और लेट लतीफी के लिए जानी जाती रही है, लेकिन जिस रफ़्तार से पिछले दशकों में रेल हादसे हुए हैं उनकी  श्रृंखला निसंदेह हमारी ट्रेनों  से भी लंबी है. हादसे में जान गंवाने वाले या इससे पीड़ित लोगों की सूची अंतहीन है. भारत में रेल हादसों का इतिहास नया नहीं है बस हर बार एक नया हादसा एक अध्याय जोड़ देता है. रविवार की उस मनहूस सुबह कानपुर के पास इंदौर पटना एक्सप्रेस में जान गंवाने वाले 100 से ज्यादा मुसाफिरों को शायद ये उम्मीद नहीं रही होगी कि ये उनका आखिरी सफर होगा. 200 से ज्यादा घायल हुए लोगो की जिंदगियों में ये त्रासदी आजीवन ज़िंदा रहेगी. आंकड़ो के मुताबिक प्रतिवर्ष देशभर में 300 से ज्यादा रेल हादसे होते हैं. हर हादसे के बाद जांच होती है, लेकिन नतीजे अगले हादसे के रूप में सामने आते हैं.

 रेल दुर्घटना

रेल विभाग यात्रियों का बीमा करवाकर अपनी खानापूर्ति कर देता है जबकि राज्य और केंद्र सरकारों के पास अपनी राजनीति चमकाने का स्वर्णिम अवसर होता है. सब मिलकर मुआवजे का खेल खेलते हैं लेकिन कोई इन हादसों की तह में नही जाता अगर जाते तो इन त्रासदियों की पुनरावृत्ति नही होती. स्व. लाल बहादुर शास्त्री ने छोटे से रेल हादसे के बाद तुरंत नैतिक ज़िम्मेदारी लेते हुए अपने पद से इस्तीफा दिया क्योंकि उन्होंने उस घटना के लिए खुद को ज़िम्मेदार माना. मगर अब आलम ये है कि दुर्घटनाओं के बाद बलि का बकरा ढूंढा जाता है और रेलों का असुरक्षित सफर यूँ ही बदस्तूर जारी रहता है.

ये थे बड़े हादसे...

उत्तर प्रदेश में ही इससे पहले बड़ी घटना 20 अगस्त 1995 को हुई थी जब...

भारतीय रेलवे अपनी लंबाई या लम्बी दूरियों और लेट लतीफी के लिए जानी जाती रही है, लेकिन जिस रफ़्तार से पिछले दशकों में रेल हादसे हुए हैं उनकी  श्रृंखला निसंदेह हमारी ट्रेनों  से भी लंबी है. हादसे में जान गंवाने वाले या इससे पीड़ित लोगों की सूची अंतहीन है. भारत में रेल हादसों का इतिहास नया नहीं है बस हर बार एक नया हादसा एक अध्याय जोड़ देता है. रविवार की उस मनहूस सुबह कानपुर के पास इंदौर पटना एक्सप्रेस में जान गंवाने वाले 100 से ज्यादा मुसाफिरों को शायद ये उम्मीद नहीं रही होगी कि ये उनका आखिरी सफर होगा. 200 से ज्यादा घायल हुए लोगो की जिंदगियों में ये त्रासदी आजीवन ज़िंदा रहेगी. आंकड़ो के मुताबिक प्रतिवर्ष देशभर में 300 से ज्यादा रेल हादसे होते हैं. हर हादसे के बाद जांच होती है, लेकिन नतीजे अगले हादसे के रूप में सामने आते हैं.

 रेल दुर्घटना

रेल विभाग यात्रियों का बीमा करवाकर अपनी खानापूर्ति कर देता है जबकि राज्य और केंद्र सरकारों के पास अपनी राजनीति चमकाने का स्वर्णिम अवसर होता है. सब मिलकर मुआवजे का खेल खेलते हैं लेकिन कोई इन हादसों की तह में नही जाता अगर जाते तो इन त्रासदियों की पुनरावृत्ति नही होती. स्व. लाल बहादुर शास्त्री ने छोटे से रेल हादसे के बाद तुरंत नैतिक ज़िम्मेदारी लेते हुए अपने पद से इस्तीफा दिया क्योंकि उन्होंने उस घटना के लिए खुद को ज़िम्मेदार माना. मगर अब आलम ये है कि दुर्घटनाओं के बाद बलि का बकरा ढूंढा जाता है और रेलों का असुरक्षित सफर यूँ ही बदस्तूर जारी रहता है.

ये थे बड़े हादसे...

उत्तर प्रदेश में ही इससे पहले बड़ी घटना 20 अगस्त 1995 को हुई थी जब पुरुषोत्तम एक्सप्रेस कालिंदी एक्सप्रेस से जा टकराई थी और 250 से ज्यादा लोगो को अपनी ज़िंदगी से हाथ धोना पड़ा था.

ये भी पढ़ें- एक और गंभीर रेल हादसा: बुलेट ट्रेन या डिरेल्ड डिब्बे?

पिछले वर्ष जनता एक्सप्रेस ट्रेन हादसे में भी 34 लोग दुर्घटना का शिकार हुए. जबकि वर्ष 2012 रेलवे के लिए हादसों का कैलेंडर वर्ष बना एक के बाद एक कई घटनाएं हुई वर्ष 2010 में ही पश्चिम बंगाल में हुए दो हादसों और मध्य प्रदेश के शिवपुरी के पास हुए हादसे में कुल 260 लोगो की मृत्यु हुई. वैसे लिस्ट हादसों की लंबी है लेकिन अगर आज़ाद हिन्दुस्तान में हादसों का ज़िक्र हो तब भी गिनती बहुत है.

बिहार में 6 जून 1981 में तूफ़ान के कारण पूरी की पूरी ट्रेन के नदी में गिर जाने से 800 लोगो की मौत का ज़िक्र ना हो तो बात अधूरी रह जाती है. भारत में रेल हादसों की लंबी कड़ी है जिसको किसी एक आलेख में समेटना कठिन है. आज सेमि-बुलेट ट्रेन ख्वाब से हकीकत बन रहा है बुलेट भी दूर नहीं, लेकिन उस तकनीक या गति का क्या फायदा जो सुरक्षित रेल यात्रा सुनिक्षित नहीं कर सकता है. ऐसा नहीं है कि रेलवे हादसों की बाद चुप्पी साधे बैठी हो. जांच आयोग अपनी रिपोर्ट्स देता भी है लेकिन उन रिपोर्ट्स का हश्र क्या होता है? वो महज़ खानापूर्ती होती हैं या उनकी अनुशंशाओ को आर्थिक तंगी का हवाला देते हुए ठन्डे बस्ते में डाल दिया जाता है. भारतीय रेल विश्व का दूसरा सबसे बड़ा रेल नेटवर्क है जिसमें 16 लाख से ज्यादा कर्मचारी काम करते हैं, लेकिन अपनी इन खामियों के कारण इसको वो सम्मान नहीं मिल सका जिसका ये हकदार है. रेलवे अब तक चुनाव जीतने के अकाट्य हथियार के रूप में इस्तमाल किया जाता रहा है.

 फाइल फोटो

सुरेश प्रभु ने जब रेलवे की कमान संभाली थी तब निसंदेह उनपर अपेक्षाओं का भार था. लोगों को उनसे उम्मींदे थीं की अब शायद रेलवे की सेहत की बेहतरी के लिए काम किए जाएं. उन्होंने 2015-16 के रेल बजट में 52 प्रतिशत की भारी भरकम वृद्धि करके अपने इरादे दिखाए भी, लेकिन इन सबके बावजूद शायद सुरक्षा पर अभी भी काम होना बाकी है. हालांकि, मानवीय चेहरा यदा-कदा दिख जाता है जब रेलमंत्री ट्विटर के माद्यम से रेलवे कोच में दूध,चाय,दवा भिजवाते हैं. गतिमान से भी आगे टेलगो ट्रेन तक का सफर पूरा कर चुके हैं और नए कोच यात्रिओ को लुभा भी रहे हैं. मानव रहित रेल क्रॉसिंग अतीत का हिस्सा होने जा रही हैं. लेकिन इन सबके बीच में राजधानी शताब्दी जैसी ट्रेनों के किराए हवाई जहाज से मुकाबला करते नजर आते हैं. इससे यात्रियों के होश हवाई हो गए हैं. रिफंड संबंधी नियमों के कारण अक्सर टिकट वापसी पर मायूसी ही यात्रियों के हाथ लगती है.

जब दलाल गिरोह सक्रिय था तब भी होली छठ त्योहारों में दिल्ली से पटना 400 वाला टिकट 500 से 700 में मिल जाता था जो आज हज़ारो में पहुँच जाता है. किस तरह से यात्रियों की जेब पर डाका डाला जा रहा है इसका इससे बेहतर उदाहरण और क्या हो सकता है. रेलवे की कार्यप्रणाली पर सिर्फ दो वक्त सवालों के घेरे में होती है एक बजट के समय दूसरा हादसों के वक़्त.

अब रेलबजट अलग से नही आएगा तो सिर्फ हादसों के वक़्त ही आप इसपर सवालिया निशान लगा सकते हैं. बुलेट ट्रेन और सेमि-बुलेट के हसीं सपनों के बीच हमें ये नही भूलना चाहिए कि हमारी पुरानी जर्जर पटरियों पर औसतन एक्सप्रेस ट्रैन भी 50 की गति ही दे पाती है. सर्दियां आने को हैं और ट्रेनें घण्टों में नही दिन के हिसाब से लेट होंगी. धुंध और कोहरे के बीच दुर्घटनाओं की आशंका से इंकार नही किया जा सकता. एक तरफ मुंबई-अहमदाबाद रेल खंड की 533 किलोमीटर लंबी लाइन पर 350 किमी की गति से ट्रेन दौड़ाने के प्रोजेक्ट पर काम हो रहा है, वहीं दिल्ली पटना रूट पर 100 किमी की गति भी दुर्घटनाओं को दावत देती नज़र आती है. हो सकता है एक ख़ास तबके को चीन सरीखी बुलेट लुभाती हो, लेकिन बहुसंख्यक तबका आज भी सुरक्षित सफर,कंफर्म टिकेट और सस्ती यात्रा का हिमायती है जिसे दे पाने में हम पिछले 7 दशको में नाकाम रहे हैं. आये दिन ट्रेनों में लूटपाट होती है खून खराबा होता है जिसपर प्रशाशन मौन है.

 फाइल फोटो

इन सब के बीच विश्व बैंक ने अच्छी पहल की है. वो अगले 7 वर्षों में रेलवे के बुनियादी विकास पर 5 अरब डॉलर की सहायता करेगा. रेल मंत्रालय पहले ही साफ कर चुका है रेलवे में सुधार तो होगा लेकिन निजीकरण की शर्त पर नहीं. गौरतलब है कि विवेक देवराय समिति ने घाटे में चल रही रेलवे की निगमीकरण की सिफारिश की थी. इस समिति ने परिचालन और उत्पादन में निजी क्षेत्र की भागीदारी बढ़ाने की सिफारिश की थी. पीपीपी मॉडल के नाम पर सप्रंग सरकार के दौरान जो मुंगेरी सपने दिखाए गए थे उनकी हकीकत भी सामने है. ये मॉडल ज्यादा सफल नही हो पाया. इससे पहले अनिल काकोडकर समिति ने भी 106 अहम बिंदुओं पर अपने सुझाव प्रस्तुत किये थे जिससे दुर्घटनाओं का आंकड़ा शून्य हो सकता था. इससे पहले भी समय-समय पर समितियां बनीं जिसने पटरियों के दोहरीकरण, उन्नत सिग्नल तकनीक अपनाने, असुरक्षित क्रॉसिंग, नए पुल के निर्मण, शार्ट सर्किट, उपकरणों की खामियों की तरफ रेलवे का ध्यान आकर्षित किया था.

लेकिन दुर्घटनाएं निरंतर हो रही हैं इसका अर्थ है इन सुझावो पर अमल नही किया गया. इसलिए एक के बाद एक रेल हादसे होते रहे हैं. उम्मीद की जानी चाहिए की कम से कम अब रेल प्रशासन की नींद टूटेगी और बुनियादी सुधारों पर काम हो सकेगा.

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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