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कितने बेशर्म हो गए, कुर्सी बदल जाने के बाद

    • अबयज़ खान
    • Updated: 12 अगस्त, 2017 09:01 PM
  • 12 अगस्त, 2017 09:01 PM
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गोरखपुर की ये खबर जिसने भी सुनी होगी, उसकी इंसानियत ने एक बार तो जरूर उसको धिक्कारा होगा. लेकिन कुर्सियों पे बैठे वोटों के दलालों को इससे कोई फर्क़ नहीं पड़ता. जानवरों से भी बदतर उनकी सोच को मानो दीमक लग चुकी है.

उसका लख्ते जिगर दम तोड़ चुका था, मगर शर्म उन रहबरों को कहां आती है.. वो तो मौतों का हिसाब करने में जुटे थे. उनकी आंख का पानी मर चुका था. और इंसाफ...वो तो बेबसी के आलम में किसी कोने में सिसकारियां भर रहा था, लेकिन रहनुमा किसी बनिये की मानिंद मौतों का गुणा भाग लगाने में जुटे थे. सड़ते सिस्टम के साथ सांसे टूट चुकी थीं, लेकिन सियासत के हमाम में नंगे हो चुके सरमायदार बेशर्मी की हद पार कर चुके थे. 64 मासूमों की सांसें उखड़ चुकी थीं और जालिम कह रहे थे कि मौत की ये तो वजह नहीं जो बताई जा रही है.

एक मां अस्पताल की चौखट पे अपना सिर पटक-पटक के जान देने पे आमदा थी, एक बाप अपने जिगर के टुकड़े के खुद से दूर जाने पे दहाड़ें मार मार के रो रहा था, एक बूढ़ा दादा अपने पोते की लाश को हाथों में उठाये हुए ऊपर वाले से उसकी जिंदगी की भीख मांग रहा था. उसके बुढ़ापे का सहारा, उसके घर का रौशन चिराग खिलखिलाने से पहले ही बुझ चुका था. लेकिन अफसरों से लेकर नेता तक हर कोई इस संगीन गुनाह को एक दूसरे के सिर मढ़ने में लगा था.

न खुदा का दिल पसीजा, न भगवान के आंसू निकले, न कोई फरिश्ता बचाने आया, न कोई देवता संजीवनी लेकर आया. और धरती के भगवान तो पत्थर बन चुके थे, उनके मोम जैसे दिलों में तो जैसे जल्लाद की रूह ने कब्जा कर लिया था. बेहया इतने हुए की काग़ज़ के चंद टुकड़ों के लिए बच्चों की सांसे ही खींच लीं. यमराज की शक्ल में भगवान अस्पताल में घूमते रहे और मुस्कुराते हुए बचपन की गर्दन मरोड़ दी.

गोरखपुर की ये खबर जिसने भी सुनी होगी, उसकी इंसानियत ने एक बार तो जरूर उसको धिक्कारा होगा. लेकिन कुर्सियों पे बैठे वोटों के दलालों को इससे कोई फर्क़ नहीं पड़ता. जानवरों से भी बदतर उनकी सोच को मानो दीमक लग चुकी है. बचपन के कातिल मुस्कुरा रहे हैं, ये जानते हुए भी कि कल जब उन मासूमों के घरवाले इनका गिरेबान पकड़ेंगे तो ये शर्म...

उसका लख्ते जिगर दम तोड़ चुका था, मगर शर्म उन रहबरों को कहां आती है.. वो तो मौतों का हिसाब करने में जुटे थे. उनकी आंख का पानी मर चुका था. और इंसाफ...वो तो बेबसी के आलम में किसी कोने में सिसकारियां भर रहा था, लेकिन रहनुमा किसी बनिये की मानिंद मौतों का गुणा भाग लगाने में जुटे थे. सड़ते सिस्टम के साथ सांसे टूट चुकी थीं, लेकिन सियासत के हमाम में नंगे हो चुके सरमायदार बेशर्मी की हद पार कर चुके थे. 64 मासूमों की सांसें उखड़ चुकी थीं और जालिम कह रहे थे कि मौत की ये तो वजह नहीं जो बताई जा रही है.

एक मां अस्पताल की चौखट पे अपना सिर पटक-पटक के जान देने पे आमदा थी, एक बाप अपने जिगर के टुकड़े के खुद से दूर जाने पे दहाड़ें मार मार के रो रहा था, एक बूढ़ा दादा अपने पोते की लाश को हाथों में उठाये हुए ऊपर वाले से उसकी जिंदगी की भीख मांग रहा था. उसके बुढ़ापे का सहारा, उसके घर का रौशन चिराग खिलखिलाने से पहले ही बुझ चुका था. लेकिन अफसरों से लेकर नेता तक हर कोई इस संगीन गुनाह को एक दूसरे के सिर मढ़ने में लगा था.

न खुदा का दिल पसीजा, न भगवान के आंसू निकले, न कोई फरिश्ता बचाने आया, न कोई देवता संजीवनी लेकर आया. और धरती के भगवान तो पत्थर बन चुके थे, उनके मोम जैसे दिलों में तो जैसे जल्लाद की रूह ने कब्जा कर लिया था. बेहया इतने हुए की काग़ज़ के चंद टुकड़ों के लिए बच्चों की सांसे ही खींच लीं. यमराज की शक्ल में भगवान अस्पताल में घूमते रहे और मुस्कुराते हुए बचपन की गर्दन मरोड़ दी.

गोरखपुर की ये खबर जिसने भी सुनी होगी, उसकी इंसानियत ने एक बार तो जरूर उसको धिक्कारा होगा. लेकिन कुर्सियों पे बैठे वोटों के दलालों को इससे कोई फर्क़ नहीं पड़ता. जानवरों से भी बदतर उनकी सोच को मानो दीमक लग चुकी है. बचपन के कातिल मुस्कुरा रहे हैं, ये जानते हुए भी कि कल जब उन मासूमों के घरवाले इनका गिरेबान पकड़ेंगे तो ये शर्म से डूब भी नहीं पाएंगे.

कितने अरमान उस मां ने अपने लाल के लिए सजाये थे, कितनी मन्नतें ऊपर वाले से मांगी थीं, कितनी चौखटों पे हाज़िरी लगाई थी, कितने मज़ारों पे सजदे किये थे. लेकिन सब तरफ से वो अभागिन तो बस ठगी गयी. उसके कलेजे का टुकड़ा उसकी गोद से खींच लिया गया. उसकी आंखों का तारा...उसकी मुस्कुराने की वजह, उसकी कहानियों का किरदार, उसका राजदुलारा अब चंद मामा के पास जा चुका था. वही चंदा मामा जिनके कई किस्से अभी उसे अपने लाल को सुनाने थे. लेकिन उसका लाडला अब कभी नहीं आएगा. क्योंकि चंद रुपयों के लिए "सफेदपोश" कातिलों ने उसके बच्चे की रूह का सौदा कर लिया था. क्योंकि शर्म उनको आती नहीं है, बेशर्मी के लिबासों में.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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