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वर्णिका कुंडू केस: ये जान लीजिए कि शाम और रात लड़कों की बपौती नहीं है

    • प्रियंका ओम
    • Updated: 10 अगस्त, 2017 05:47 PM
  • 10 अगस्त, 2017 05:47 PM
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कई साल पहले बिहार के एक छोटे से शहर में रात के बारह बजे भाई के साथ बाहर निकली तो लड़के टोंट करने लगे थे. मैंने भाई से कहा तुम कुछ कहते क्यों नहीं? भाई ने कहा 'गलती हमारी है, तुम्हें रात को बाहर नहीं निकलना चाहिए था.'

पिछले दिनों मैं दिल्ली में थी. शाम को कहीं जाना होता तो भाई पहले ही हिदायत दे देता अंधेरा होने से पहले वापस आ जाना ‘सेफ नहीं है’. मैं कहीं आस-पास निकल भी जाती तो ऐसा लगता जैसे कोई पाप कर दिया है. एक बार तो सामने वाले फ्लैट में रहने वाली आंटी ने टोक भी दिया ‘तुम बाहर से आइ हो, इसलिये समझा रही हूं, देर रात को अकेली आया जाया मत करो, दिल्ली सेफ नहीं है.’ भाभी की नाइट शिफ्ट होती तो रात के साढ़े नौ बजे भाई उन्हें छोड़ने जाता था क्योंकि ‘दिल्ली सेफ नहीं है’

दिल्ली या किसी भी शहर में रात को एक लड़की अकेली क्यों नहीं निकल सकती?

कई साल पहले बिहार के एक छोटे से शहर में रात के बारह बजे भाई के साथ बाहर निकली तो लड़के टोंट करने लगे थे. मैंने भाई से कहा तुम कुछ कहते क्यों नहीं? भाई ने कहा 'गलती हमारी है, तुम्हें रात को बाहर नहीं निकलना चाहिए था.'

पिछले चार साल से दिल्ली में अकेली रह रही प्रियंका बताती है- जब वो काम से देर शाम को वापस आती है तो गलियों में एक भी लड़की नहीं दिखाई देती. उनकी बिल्डिंग के गेट पर घटिया कमेंट लिखा होता था, कई बार तो 'रूम फॉर रेंट' भी लिखा पाया लेकिन इस सबसे डरकर न तो उन्होंने देर शाम आना छोड़ा और न ही देर रात अकेली सड़कों पर टहलना छोड़ा, हालांकि इस सब के बदले उन्हें आवारा और बदचलन कहा गया लेकिन इस बात से उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ा.

गुड़गांव में रहने वाली रेवा कहती है- मुझे शाम का खुला आसमान पागल कर देता है. चांदनी रातें दीवाना बना देती हैं. मैं रातों को जी भरकर जीती हूं, खुद में भर लेना चाहती हूं. अब भी अक्सर ही रात में 11-12 बजे एमजी रोड मेट्रो स्टेशन से घर (डीएलएफ फेज़ 2) तक पैदल ही आती हूं. सड़क पर कोई नहीं दिखता सिवाए वॉचमैन के, तब मुझे मैं दिखाई देती...

पिछले दिनों मैं दिल्ली में थी. शाम को कहीं जाना होता तो भाई पहले ही हिदायत दे देता अंधेरा होने से पहले वापस आ जाना ‘सेफ नहीं है’. मैं कहीं आस-पास निकल भी जाती तो ऐसा लगता जैसे कोई पाप कर दिया है. एक बार तो सामने वाले फ्लैट में रहने वाली आंटी ने टोक भी दिया ‘तुम बाहर से आइ हो, इसलिये समझा रही हूं, देर रात को अकेली आया जाया मत करो, दिल्ली सेफ नहीं है.’ भाभी की नाइट शिफ्ट होती तो रात के साढ़े नौ बजे भाई उन्हें छोड़ने जाता था क्योंकि ‘दिल्ली सेफ नहीं है’

दिल्ली या किसी भी शहर में रात को एक लड़की अकेली क्यों नहीं निकल सकती?

कई साल पहले बिहार के एक छोटे से शहर में रात के बारह बजे भाई के साथ बाहर निकली तो लड़के टोंट करने लगे थे. मैंने भाई से कहा तुम कुछ कहते क्यों नहीं? भाई ने कहा 'गलती हमारी है, तुम्हें रात को बाहर नहीं निकलना चाहिए था.'

पिछले चार साल से दिल्ली में अकेली रह रही प्रियंका बताती है- जब वो काम से देर शाम को वापस आती है तो गलियों में एक भी लड़की नहीं दिखाई देती. उनकी बिल्डिंग के गेट पर घटिया कमेंट लिखा होता था, कई बार तो 'रूम फॉर रेंट' भी लिखा पाया लेकिन इस सबसे डरकर न तो उन्होंने देर शाम आना छोड़ा और न ही देर रात अकेली सड़कों पर टहलना छोड़ा, हालांकि इस सब के बदले उन्हें आवारा और बदचलन कहा गया लेकिन इस बात से उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ा.

गुड़गांव में रहने वाली रेवा कहती है- मुझे शाम का खुला आसमान पागल कर देता है. चांदनी रातें दीवाना बना देती हैं. मैं रातों को जी भरकर जीती हूं, खुद में भर लेना चाहती हूं. अब भी अक्सर ही रात में 11-12 बजे एमजी रोड मेट्रो स्टेशन से घर (डीएलएफ फेज़ 2) तक पैदल ही आती हूं. सड़क पर कोई नहीं दिखता सिवाए वॉचमैन के, तब मुझे मैं दिखाई देती हूं.

लेकिन प्रियंका और रेवा जैसी कितनी लड़कियां हैं? ज़्यादातर लड़कियां अंधेरा होते ही घर से बाहर नहीं निकलना चाहती हैं और अगर वो निकलने की सोच भी लें तो घरवाले याद दिला देते हैं कि लड़की का रात में अकेले निकलना कितना unsafe है, क्योंकि बलात्कार तो लड़कियों का होता है, बदनाम लकड़ी होती है, आखिर वो रात को निकली ही क्यों ? रात को बाहर निकलने का, पब में जाने का, डिस्को जाने का, या शराब पीने का लाइसेन्स तो सिर्फ लड़कों को मिला है. अगर गलती से भी लड़कियां ये सब करती हैं तो वो चरित्रहीन हैं, बदचलन हैं, आवारा हैं. ये सब करके वो लड़कों को बुलाती हैं.

आखिर वर्णिका कुंडू का दोष भी तो यही था ना. वो आधी रात को अकेली सड़क पर अकेली थी ? वो अकेली क्यों थी ?

क्योंकि हम डरकर घर के अंदर छुपे बैठे हैं. हम डरते हैं वो हमें डराते हैं. हमारे डर से उनका हौसला बढ़ता है, वो हमें और डराते हैं, हम बहुत ज़्यादा डर जाते हैं. हम डर के मारे घर में दुबके रहते हैं. अंधेरा होते ही अपने पंख समेट लेते हैं. हम सवालों से डरते हैं. हम बलात्कार होने से डरते हैं. हम बलात्कार के बाद के आरोपों से डरते हैं. हम डरते हैं, वे हमें डराते हैं. लेकिन कब तक ?

डर की इस लुका-छिपी को बंद करना होगा. हमें खुद में साहस भरना होगा. और डटकर इस डर का मुकाबला करना होगा...एक साथ. क्योंकि रात हमें भी खूबसूरत लगती है. हमें भी खुले में आसमान में तारे देखना अच्छा लगता है. लड़की होना कमजोरी नहीं. आइये ताकत बनाते हैं आइये मिलकर सड़क पर उतरते हैं.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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