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नोटबंदी के दौर में एक कवि की साइकिल यात्रा

    • संजय शेफर्ड
    • Updated: 07 दिसम्बर, 2016 03:18 PM
  • 07 दिसम्बर, 2016 03:18 PM
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एक घुमक्कड़ कवि डिमॉनेटाइजेशन के समय साइकल से उत्तराखंड की साहित्य यात्रा पर निकला है. इस दौरान उन्होंने अपने अनुभवों को हमसे बांटा है. इसमें नोटबंदी का संघर्ष शामिल है.

संजय शेफर्ड एक महीने की उत्तराखंड साहित्य यात्रा पर निकले हुए हैं. यह पूरी यात्रा साइकिल पर होगी. नोटबंदी के समय में संजय के पास एटीएम, डेबिट कार्ड, क्रेडिट कार्ड कुछ भी नहीं है. वो अपने साथ करीब 1000 रुपये लेकर चले थे. ये दिन में यात्रा करते हैं और रातें किसी गांव- देहात या घाटी में खुले आसमान के नीचे टेंट में बिताते हैं. इनका बैगपैक 12 किलो का है, जिसमें तीन जोड़ी कपडे, एक कैमरा, एक सटेलाइट फोन, एक लैपटॉप, टेंट, स्लीपिंग बैग, टार्च, रस्सी, हुक्कस, पानी की बोतल, कुछ जरुरी दवाएं रहती हैं. इस यात्रा के दौरान संजय उत्तराखण्ड के सभी 13 जिलों में साहित्य, संस्कृति और समाज को जानने-समझने का प्रयास कर रहे हैं और साथ ही शिक्षा और वीमेन इम्पॉवरमेंट का अलख जगा रहे हैं.

 

सूने, अजनबी, अंजान रास्तों से चलते हुए एक लम्हें के लिए सोचता हूं कि इस शहर या फिर गांव में कितना अंजान हूं. और दूसरे ही पल एक आवाज़ कानों में आकर टकराती है "चाय पीकर जाओ". पीछे मुड़कर देखता हूं तो ठंड का मौसम है कुछ लोग चौक पर बैठकर धूप सेंक रहे हैं. मैं साइकिल रोक देता हूं.

उनमें से एक इंसान उठकर पूछता है कि कहां से आये. दिल्ली से- मैं जवाब देता हूं. दिल्ली से? लोग चौंकते हैं. हां, मैं सिर हिलाकर जवाब देता हूं. बैठो बैठो दो तीन लोग उठकर खड़े हो जाते हैं. मैं उनके बीचोंबीच बैठ जाता हूं. इतने में एक सात-आठ साल की बच्ची पानी का ग्लास लेकर आती है. लो पानी पियो आपको थनेर की चाय पिलाते हैं. थनेर की चाय? कुछ सोचना चाहता हूं पर उससे पहले ही सवालों का सिलसिला शुरू हो जाता है. तो आप साइकिल से आये? हां. चलाकर? हां. दिल्ली से ही? हां. कहां जावोगे? चमोली. साइकिल से ही? हां. चलाकर? हां....

संजय शेफर्ड एक महीने की उत्तराखंड साहित्य यात्रा पर निकले हुए हैं. यह पूरी यात्रा साइकिल पर होगी. नोटबंदी के समय में संजय के पास एटीएम, डेबिट कार्ड, क्रेडिट कार्ड कुछ भी नहीं है. वो अपने साथ करीब 1000 रुपये लेकर चले थे. ये दिन में यात्रा करते हैं और रातें किसी गांव- देहात या घाटी में खुले आसमान के नीचे टेंट में बिताते हैं. इनका बैगपैक 12 किलो का है, जिसमें तीन जोड़ी कपडे, एक कैमरा, एक सटेलाइट फोन, एक लैपटॉप, टेंट, स्लीपिंग बैग, टार्च, रस्सी, हुक्कस, पानी की बोतल, कुछ जरुरी दवाएं रहती हैं. इस यात्रा के दौरान संजय उत्तराखण्ड के सभी 13 जिलों में साहित्य, संस्कृति और समाज को जानने-समझने का प्रयास कर रहे हैं और साथ ही शिक्षा और वीमेन इम्पॉवरमेंट का अलख जगा रहे हैं.

 

सूने, अजनबी, अंजान रास्तों से चलते हुए एक लम्हें के लिए सोचता हूं कि इस शहर या फिर गांव में कितना अंजान हूं. और दूसरे ही पल एक आवाज़ कानों में आकर टकराती है "चाय पीकर जाओ". पीछे मुड़कर देखता हूं तो ठंड का मौसम है कुछ लोग चौक पर बैठकर धूप सेंक रहे हैं. मैं साइकिल रोक देता हूं.

उनमें से एक इंसान उठकर पूछता है कि कहां से आये. दिल्ली से- मैं जवाब देता हूं. दिल्ली से? लोग चौंकते हैं. हां, मैं सिर हिलाकर जवाब देता हूं. बैठो बैठो दो तीन लोग उठकर खड़े हो जाते हैं. मैं उनके बीचोंबीच बैठ जाता हूं. इतने में एक सात-आठ साल की बच्ची पानी का ग्लास लेकर आती है. लो पानी पियो आपको थनेर की चाय पिलाते हैं. थनेर की चाय? कुछ सोचना चाहता हूं पर उससे पहले ही सवालों का सिलसिला शुरू हो जाता है. तो आप साइकिल से आये? हां. चलाकर? हां. दिल्ली से ही? हां. कहां जावोगे? चमोली. साइकिल से ही? हां. चलाकर? हां. चमोली तक? हां. हां, तो खाना खाकर जाओ. आगे बहुत चलना है. चढ़ाई भी है. मैं कुछ जवाब नहीं देता हूं.

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 यह पांचों बच्चे उत्तरकाशी जिले के पुरोला के नजदीक सुकडाला गांव के हैं. इस गांव में सिर्फ एक प्राइमरी स्कूल है. संजय ने इनकी शिक्षा के लिए सोशल मीडिया पर लोगों से मदद भी मांगी है.

कुछ बच्चे आकार सामने खड़े हो जाते हैं. उनकी आंखों में भारी उत्सुकता है. आप दिल्ली से आये हैं? हां. साइकिल कितने की है? 38 हज़ार. 38 हजार? हां. अरे! इसमें गियर भी है. बच्चे छूकर देखने लगते हैं. एक चक्कर चलाकर देखूं? एक बच्चा सकुचाते हुए पूछता है. और देखते ही देखते उन बच्चों के मन की उत्सुकता जिज्ञासा और फिर रोमांच में परिवर्तित हो जाती है. एक लड़का साइकिल का पैडल मार भगाता है. बाकि आठ दस बच्चे उसके पीछे पीछे भागते भागते आंखों से ओझल हो जाते हैं.

कुछ देर के लिए मैं भी शान्त हो जाता हूं. जीवन की कई परतों को एक साथ खुलते हुए देखता हूं. यहां का यही जीवन है. और इसी एक कहानी को मैं हर दिन दोहराता हूं. हर रोज जीता हूं. यहां का जीवन कठिन है पर लोगों का दिल बर्फ की फाहों की तरह बेहद ही नरम. महज़ एक दो घंटे के अंदर आत्मीयता के इतने तार जुड़ जाते हैं कि पूरा गांव हमारा और हम उस गांव के हो जाते हैं.

 अगर पहाड़ चढ़ना हो तो सबसे ज्यादा भरोसा पत्थरों पर होना चाहिए. यहां के पत्थर बहुत ही विश्वसनीय होते हैं.आप बेफिक्र होकर इन पर भरोसा कर सकते हैं.

मैं एक बार सिर उठाकर आसमान की तरफ देखता हूं. इस दुनिया को बनाने वाले का हजारों बार शुक्रिया कहना चाहता हूं. और अपनी बाहें खोल आंखों को बंदकर कुछ देर तक जीवन को अंदर तक महसूसने की कोशिश करता हूं. कुछ देर बाद सूनी वादियों के बीच खुलकर हंसता हूं. थोड़ी ऊंचाई पर जाकर कुछ देर अपलक उस गांव, उस गांव से होकर गुजरती सड़क और बहती नदी को देखता रहता हूं. और कुछ देर के लिए हरी भरी खूबसूरत वादियों में खो जाता हूं.

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रुद्रप्रयाग जिले के ऊखीमठ से ली गई तस्वीर

यह किसी एक गांव की नहीं, उत्तराखंड में बसे सैकड़ों गांवों की यही कहानी है. यहां ज्यादा सुख सुविधाएं नहीं हैं और ना ही पर्याप्त रोजगार के साधन पर जीवन प्रचुर मात्रा में बचा हुआ है. गांव के ज्यादातर लोग छोटी-छोटी सीढ़ीदार जोत में खेती का काम करते हैं तो कुछ खेती के साथ साथ पशुपालन भी. और इसी में लोग अपनी जिंदगी को लेकर पूरी तरह से संतुष्ट दिखाई देते हैं, तो कहीं ना कहीं अपने बच्चों के भविष्य को लेकर गहरे चिंतित भी.

 रुद्रप्रयाग के बाशिंदे

कुछेक जिलों को छोड़ दिया जाये तो पूरे प्रदेश की शिक्षा और चिकित्सा की स्थिति बदतर और बदहाल नजर आती है. शायद इसीलिए पिछले कुछेक वर्षों में पहाड़ों से समतल क्षेत्र की तरफ बहुत ही भारी संख्या में पलायन भी हुआ है. सच कहूं तो यहां पर जीवन ठहरा हुआ है. पर इस ठहराव में भी इतना सकून और संगीत है कि मन नदियों की कलकल और चिड़ियों की चहचहाहट के बीच कहीं खो सा जाता है.

 

कभी कहीं सुना और पढ़ा था कि यात्राएं अनुभव की ऐसी पिटारा होती हैं जो मानव जीवन को सदैव से समृद्ध करती रही हैं. पिछले एक महीने से उसी बात को अपनी इस साहित्यिक यात्रा के दौरान जी रहा हूं. इन दिनों मुझे जीवन के तमाम ऐसे अनुभवों से होकर गुजरना पड़ रहा है जिसे बस एक यायावर ही समझ सकता है. मेरे लिए नदी, पहाड़, जंगल कोई नई बात नहीं थी. पर इन नदियों, पहाड़ों और जंगलों के बीच का जीवन हर रोज अनुभव का एक नया पट खोलता जान पड़ रहा है. अपनी इस यात्रा से हर रोज मैं समृद्ध हो रहा हूं.

घूमना सिर्फ पागलपन नहीं है. घूमना जीवन की सार्थकता को करीब से देखना और उसे महसूस कर पाने की कसौटी पर खरा उतरना भी है. उस सभ्यता, संस्कृति और लोक को समझना है जहां जहां से होकर हमारे पैर गुजरते हैं.

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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