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...क्योंकि बीएचयू नफरत की जगह नहीं है !

    • सन्‍नी कुमार
    • Updated: 07 जुलाई, 2017 09:06 PM
  • 07 जुलाई, 2017 09:06 PM
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बाहरी नजर से यह ‘हिंदू' विश्वविद्यालय लगता है लेकिन जो अंदर हैं वो जानते हैं कि ये जितना हिंदू है उतना ही मुसलमान भी. यह प्यार करने की जगह है नफरत बोने की नहीं.

जियाउद्दीन, भैया बोलता था मुझे. वो मेरे हॉस्टल में नहीं रहता था, न ही मेरे फैकल्टी में ही था. हम वालीबॉल के कोर्ट में मिले थे. हमारे हॉस्टल में कोर्ट नहीं था सो हम सामने के भाभा हॉस्टल में खेलने जाते थे. मैं एएनडी हॉस्टल में रहता था जो सोशल साइंस का था. मैं और जियाउद्दीन अक्सर अलग-अलग टीम में होते. वो अच्छा प्लेयर था और मैं अच्छा खेलने की कोशिश करता था. हार जीत होती रहती थी. मैं आमतौर पर हार के बाद गुस्सा हो जाता हूं क्योंकि मुझे हारना अच्छा नहीं लगता है, सो गुस्से में कभी-कभी बुरा भला कह देता हूं. जाहिर सी बात है कि मेरा मुख्य प्रतिद्वंद्वी होने के नाते मेरी जियाउद्दीन से भी बहस हुई होगी. मैंने उसे कुछ भी कहा हो लेकिन कभी उसके धर्म पर कोई टिप्पणी नहीं की. मैंने कभी नहीं कहा कि तुम मुसलमान हो इसलिए मैं तुमसे हारना नहीं चाहता. एक क्रोधी आदमी जिसे किसी भी सूरत में अपनी हार बर्दाश्त न हो उसे तत्क्षण भी प्रतिद्वंद्वी के धर्म का ख्याल क्यों नहीं आता? क्या मैं गांधी हूं? नहीं बात कुछ और है.

भाभा हॉस्टल के ही दिवाकर भैया थे. काफी सीनियर थे. वो साइंस के थे मैं सोशल साइंस का था. एक दिन मैं अपने कुछ दोस्तों के साथ लंका के हिंदुस्तान रेस्तरां में खाना खा रहा था. अनुमानत: कोई 400-500 का बिल रहा होगा. बिल काउंटर पर गया तो पता चला कि सामने के टेबल पर जो भैया खा रहे हैं उन्होंने बिल पर कर दिया. वो दिवाकर भैया थे. इतनी रकम बहुत बड़ी तो नहीं थी पर हॉस्टल लाइफ के तौर पर बड़ी ही थी. मैं नहीं जानता दिवाकर भैया की जाति क्या थी? उन्होंने भी ऐसा कभी नहीं पूछा. फिर उन्होंने ऐसा क्यों किया? वो कोई फरिश्ता थे? नहीं, बात कुछ और है.

थर्ड ईयर में मेरा रूम नंबर 58 था. तीन चार कमरे के बाद सद्दाम भाई रहते थे. अलग-अलग मुद्दों पर उनसे खूब बहस होती थी. धर्म पर भी बहस होती थी. लेकिन किसी ने...

जियाउद्दीन, भैया बोलता था मुझे. वो मेरे हॉस्टल में नहीं रहता था, न ही मेरे फैकल्टी में ही था. हम वालीबॉल के कोर्ट में मिले थे. हमारे हॉस्टल में कोर्ट नहीं था सो हम सामने के भाभा हॉस्टल में खेलने जाते थे. मैं एएनडी हॉस्टल में रहता था जो सोशल साइंस का था. मैं और जियाउद्दीन अक्सर अलग-अलग टीम में होते. वो अच्छा प्लेयर था और मैं अच्छा खेलने की कोशिश करता था. हार जीत होती रहती थी. मैं आमतौर पर हार के बाद गुस्सा हो जाता हूं क्योंकि मुझे हारना अच्छा नहीं लगता है, सो गुस्से में कभी-कभी बुरा भला कह देता हूं. जाहिर सी बात है कि मेरा मुख्य प्रतिद्वंद्वी होने के नाते मेरी जियाउद्दीन से भी बहस हुई होगी. मैंने उसे कुछ भी कहा हो लेकिन कभी उसके धर्म पर कोई टिप्पणी नहीं की. मैंने कभी नहीं कहा कि तुम मुसलमान हो इसलिए मैं तुमसे हारना नहीं चाहता. एक क्रोधी आदमी जिसे किसी भी सूरत में अपनी हार बर्दाश्त न हो उसे तत्क्षण भी प्रतिद्वंद्वी के धर्म का ख्याल क्यों नहीं आता? क्या मैं गांधी हूं? नहीं बात कुछ और है.

भाभा हॉस्टल के ही दिवाकर भैया थे. काफी सीनियर थे. वो साइंस के थे मैं सोशल साइंस का था. एक दिन मैं अपने कुछ दोस्तों के साथ लंका के हिंदुस्तान रेस्तरां में खाना खा रहा था. अनुमानत: कोई 400-500 का बिल रहा होगा. बिल काउंटर पर गया तो पता चला कि सामने के टेबल पर जो भैया खा रहे हैं उन्होंने बिल पर कर दिया. वो दिवाकर भैया थे. इतनी रकम बहुत बड़ी तो नहीं थी पर हॉस्टल लाइफ के तौर पर बड़ी ही थी. मैं नहीं जानता दिवाकर भैया की जाति क्या थी? उन्होंने भी ऐसा कभी नहीं पूछा. फिर उन्होंने ऐसा क्यों किया? वो कोई फरिश्ता थे? नहीं, बात कुछ और है.

थर्ड ईयर में मेरा रूम नंबर 58 था. तीन चार कमरे के बाद सद्दाम भाई रहते थे. अलग-अलग मुद्दों पर उनसे खूब बहस होती थी. धर्म पर भी बहस होती थी. लेकिन किसी ने उन्हें ये नहीं कहा कि मुझे मुस्लिमों से नफरत है या उन्होंने ये नहीं कहा कि मुझे हिंदुओं से डर लगता है. इधर भी उनको दिल्ली आना था तो उन्होंने मुझे कॉल किया था. हालांकि मैं बहुत मदद नहीं कर पाया था. फिर भी उन्होंने यह जानते हुए कि मैं हिंदू हूं मुझे कॉल क्यों किया? या मैंने एक हद तक उनकी मदद की कोशिश क्यों की? क्या हम सब भगवान हैं? नहीं, बात कुछ और है

ताबिर कलाम सर मेरे सेक्शन में नहीं पढ़ाते थे फिर भी मैं मौका पाते ही उनकी क्लास कर लेता था. दिलशाद हमारी क्रिकेट टीम का अच्छा ऑलराउंडर था. करीम हमारा बैचमेट रहा है. मैंने कभी नहीं पूछा कि तुम हलाल मीट क्यों खाते है हो और मैं झटका क्यों खाता हूं? क्यों नहीं पूछा? क्या हम सब किसी और दुनिया के बासी थे. नहीं, बात कुछ और है.

बात आखिर क्या है? क्या बात यह है कि हम एक दूसरे की अस्मिता से परिचित नहीं थे और रॉल्स की काल्पनिक दुनिया के बाशिंदे थे? क्या हमें किसी ने डंडे के बल पर ऐसे व्यवहार के लिए बाध्य किया था? क्या हम सब आदर्श मानव थे. नहीं. ये सब कुछ नहीं था. बात बहुत सरल सी है. यह एक विश्वविद्यालय है- बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी. सिर्फ चहारदीवारी से घिरा एक क्षेत्र नहीं, सिर्फ भवनों की शृंखला नहीं, सिर्फ चलती बसें और दौड़ते बाइक नहीं. यह एक परिवार है. मानो एक हरी भरी बगिया हो जहां तरह-तरह के फूल हों, फल हों, सबकी अलग-अलग खुशबू अलग-अलग स्वाद. लेकिन वो अपनी बगिया से पहचाना जाता हो. लोग कहते हों कि अहा ये सुंदर फल! निश्चित ही उसी बाग के होंगे. ऐसा है बीएचयू. बाहरी दुनिया की राजनीति और उसकी पूर्वग्रहों से इतर एक शिक्षण संस्थान जहां की हवाओं में उतनी ही समरसता है जितनी की एक आजाद ख्याल शैक्षणिक परिसर में होनी चाहिए.

यह एक अहसास है जिसे कैंपस में रहने वाला और पढ़ने वाला ही महसूस कर सकता है. बाहरी नजर से यह ‘हिंदू' विश्वविद्यालय लगता है लेकिन जो अंदर हैं वो जानते हैं कि ये जितना हिंदू है उतना ही मुसलमान भी. यह प्यार करने की जगह है नफरत बोने की नहीं. फिर ये रह रह कर बीएचयू की प्रतिष्ठा को धूमिल करने का प्रयास क्यों किया जाता है? इसे समझना होगा. यह अनायास नहीं हो रहा.

दरअसल, जब हम हर बात को अंतत: विरोधाभासी नजरिये से ही देखना समझना चाहते हैं तो हम ऐसी गलतियां करने के लिए बाध्य होते हैं जो समाज को गहरा नुकसान पहुंचाते हैं. जैसे आम की प्रशंसा करनी हो तो कटहल की बुराई बताने लग जाओ. जिस प्रकार एक खास तबका हर समय जेएनयू को निशाने पर रखता है और उसे एंटी-नेशनल कहता है उसी प्रकार एक खास वर्ग ऐसा भी है जो उसके बरक्स बीएचयू को निशाना बनाता है.

बीएचयू को निशाना बनाने की मुख्यतः दो तीन वजहें हैं. एक तो इसके नाम में हिंदू होना जिससे आसानी से इसे मुस्लिम विरोधी परिसर के रूप में चिन्हित कर लेना, दूसरा इसका बनारस(इसे मोदी का संसदीय क्षेत्र पढ़ें) में होना जिसे प्रच्छन्न रूप से मोदी विरोध के लिए इस्तेमाल कर लेना, तीसरा इसका वाम हेजेमनी से मुक्त होना, अत: इस पर चोट कर इसे अंतत: पिछड़ा घोषित कर देना.

ऐसी और भी वजहें हो सकती हैं लेकिन मुझे मूल रूप से यही कारक प्रभावी लगते हैं. अब दुनिया की कोई भी जगह ले लीजिये क्या वो हर प्रकार से भेदभाव से मुक्त हो सका है? कोई अपवाद? समानता एक आदर्श है लेकिन भेदभाव एक सच्चाई. इससे कहां इनकार है? जहां हजारों बच्चे पढ़ते हों वहां ऐसे अपवाद मिल ही जाएंगे तो क्या वो संस्थान किसी खास के लिए असुरक्षित हो गया? इस तरह के सामान्यीकरण से तो हर संस्थान एक असुरक्षित संस्थान हो जाएगा. किसी की पहचान वहां की प्रवृत्ति से होनी चाहिए न कि किसी एक घटना से. किसी एक घटना से अगर बीएचयू अल्पसंख्यकों के लिए असुरक्षित हो जाता है तो क्या कुछ नारे से जेएनयू एंटी नेशनल नहीं हो जाता? क्या जामिया वहां के अल्पसंख्यक छात्रों के लिए डरावना नहीं हो जाता? ऐसा नहीं है.

ऐसा अवैध सामान्यीकरण मत करिये. ये पढ़ने लिखने की जगह है इसे अपने फायदे का अखाड़ा मत बनाइये. मैं ये नहीं कह रहा कि बीएचयू कोई दैवीय संस्था है और सभी बुराइयों से निरापद है. उनमें कई खामियां हैं जिसे दूर करना जरूरी है. और इसे जल्दी ठीक किया जाना चाहिए. लेकिन आपसे गुजारिश है कि इसे हॉब्स की दुनिया मत घोषित कीजिये जहां सबको सबपर संदेह है. हम प्यार करते हैं उस जगह से और वो प्यार करने लायक ही है.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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