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भारतीय राजनीति में ‘मोदी’ होने के मायने

    • शिवानन्द द्विवेदी
    • Updated: 06 जनवरी, 2017 02:34 PM
  • 06 जनवरी, 2017 02:34 PM
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भारतीय राजनीति अब भाई-भतीजावाद से ऊपर उठ चुकी है. एक तरफ नेहरू-गांधी परिवार की चौथी पीढ़ी के राजकुमार हैं तो दूसरी तरफ एक ऐसा इंसान जिसने अपने परिवार को ही त्याग दिया. राजनीति में मोदी की क्या अहमियत है चलिए देखते हैं.

आमतौर पर लोकतंत्र मिलेजुले फैसलों के लिए जाना जाता है. ऐसे साहसिक फैसले कभी-कभार लिए जाते हैं, जो इतिहास में दर्ज होते हों. आठ नवंबर को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा पांच सौ और एक हजार के पुराने नोट बंद करने की घोषणा को भी इसी किस्म के फैसले के रूप में देखा गया. विमुद्रीकरण के बहाने ईमानदारी के उत्सव की चर्चा चली तो कतारों पर राजनीति भी खूब हुई. विरोधियों के सवालों के केंद्र में नरेंद्र मोदी थे.

लगभग पूरा विपक्ष कतारबद्ध होकर कतारों की राजनीति करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ रहा था. विरोधी खेमा जनता के हवाले से मोदी पर सवालों की बारिस कर रहा था तो देश की जनता संयम से कतारबद्ध होकर अपने नोट की जमा और निकासी कर रही थी. कतारबद्ध जनता का संयम और सहयोग भारतीय लोकतंत्र की मजबूती को बयान कर रहा था. एक गरीब परिवार से आकर प्रधानमंत्री बने नरेंद्र मोदी अपने उन्हीं सवा सौ करोड़ मालिकों की अदालत में अंतिम दिन तक हाजिरी लगाते रहे, जिन्होंने सूई का कोण घुमाते हुए वर्ष 2014 में उन्हें सर-आँखों पर बिठाया था.

बिना किसी उग्रता के तमाम तकलीफों के बावजूद कतार में खड़ी जनता, उनसे संवाद करता उनका प्रधानसेवक एवं विरोधियों की भ्रामक दुष्प्रचारों के बीच से तपकर निकलता इस देश का लोकतंत्र और चमकदार दिखने लगा. तीस दिसंबर की तारीख तक विरोधी विरोध के लिए एकजुट तक नहीं रह पाए और देश का प्रधानसेवक अपने सवा सौ करोड़ मालिकों से संवाद कर रहा था. कोई पूछे कि 31 दिसंबर को क्या हुआ, तो जवाब यही होगा कि मोदी जनता के बीच संवाद कर रहे थे और विरोधी अपने बीच हुए बिखराव को समेटने में लगे थे.

 नरेंद्र मोदी के खिलाफ विरोध तो बहुत हुआ, लेकिन ऐतिहासिक फैसले लेने का हौसला भी उन्होंने ही...

आमतौर पर लोकतंत्र मिलेजुले फैसलों के लिए जाना जाता है. ऐसे साहसिक फैसले कभी-कभार लिए जाते हैं, जो इतिहास में दर्ज होते हों. आठ नवंबर को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा पांच सौ और एक हजार के पुराने नोट बंद करने की घोषणा को भी इसी किस्म के फैसले के रूप में देखा गया. विमुद्रीकरण के बहाने ईमानदारी के उत्सव की चर्चा चली तो कतारों पर राजनीति भी खूब हुई. विरोधियों के सवालों के केंद्र में नरेंद्र मोदी थे.

लगभग पूरा विपक्ष कतारबद्ध होकर कतारों की राजनीति करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ रहा था. विरोधी खेमा जनता के हवाले से मोदी पर सवालों की बारिस कर रहा था तो देश की जनता संयम से कतारबद्ध होकर अपने नोट की जमा और निकासी कर रही थी. कतारबद्ध जनता का संयम और सहयोग भारतीय लोकतंत्र की मजबूती को बयान कर रहा था. एक गरीब परिवार से आकर प्रधानमंत्री बने नरेंद्र मोदी अपने उन्हीं सवा सौ करोड़ मालिकों की अदालत में अंतिम दिन तक हाजिरी लगाते रहे, जिन्होंने सूई का कोण घुमाते हुए वर्ष 2014 में उन्हें सर-आँखों पर बिठाया था.

बिना किसी उग्रता के तमाम तकलीफों के बावजूद कतार में खड़ी जनता, उनसे संवाद करता उनका प्रधानसेवक एवं विरोधियों की भ्रामक दुष्प्रचारों के बीच से तपकर निकलता इस देश का लोकतंत्र और चमकदार दिखने लगा. तीस दिसंबर की तारीख तक विरोधी विरोध के लिए एकजुट तक नहीं रह पाए और देश का प्रधानसेवक अपने सवा सौ करोड़ मालिकों से संवाद कर रहा था. कोई पूछे कि 31 दिसंबर को क्या हुआ, तो जवाब यही होगा कि मोदी जनता के बीच संवाद कर रहे थे और विरोधी अपने बीच हुए बिखराव को समेटने में लगे थे.

 नरेंद्र मोदी के खिलाफ विरोध तो बहुत हुआ, लेकिन ऐतिहासिक फैसले लेने का हौसला भी उन्होंने ही दिखाया

यह मोदी की जीत थी और विरोधियों की हार की हताशा. हालांकि, इस दौरान भारतीय लोकतंत्र एक और ऐतिहासिक घटना का गवाह बना. 15 नवंबर को देश के सबसे ताकतवर नेता और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की माँ हीराबेन जब बैंक में अपना नोट बदलवाने पहुँची. चूँकि इसके चार दिन पहले ही 11 नवंबर को नेहरु-इंदिरा सल्तनत के वर्तमान वारिस कांग्रेस उपाध्यक्ष भी चार हजार रूपए के लिए कतार में लगे थे और अपने हिस्से का चार हजार लेकर निकले थे.

लोकतंत्र में वंशवाद की स्थापना करने वाले प्रथम परिवार की इस चौथी पीढ़ी के वारिस ने पैसे निकालकर आते ही पहला बयान दिया कि लोगों को नोटबंदी से तकलीफ बहुत है, पैसा नहीं मिल रहा. हालांकि, यहाँ भी उन्होंने झूठ बोला क्योंकि उन्हें पैसा मिल गया था. शायद सच बोलने का साहस वो न जुटा पाए हों. भारतीय लोकतंत्र के लिए यह भी एक अद्भुत दृश्य था कि चार हजार रूपए लेने के लिए नेहरु-इंदिरा परिवार का कोई सदस्य सियासत के लिए ही सही कतार में लगा हो.

ये भी पढ़ें- नोटबंदी के बाद यूपी में बीजेपी की बदली रणनीति

इस दृश्य के चार दिन बाद हमारा लोकतंत्र एक और अद्भुत दृश्य का गवाह बना जो शायद भारत के इतिहास पहले कभी न हुआ हो. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की माँ हीराबेन भी अपने पुराने नोट बदलवाने के लिए बैंक पहुंची और कतारबद्ध होकर नोट बदलवाया. यह दृश्य ही मोदी और बाकियों के बीच का फर्क है. यही वो विश्वास है जो लोगों को प्रतिकूल स्थितियों में भी अपने प्रधान सेवक के प्रति अडिग रूप से निष्ठावान बनाता है. इस दृश्य के बहाने मोदी के व्यक्तित्व का मूल्यांकन भविष्य में अवश्य किया जाएगा. इस अद्भुत छण के माध्यम से मोदी के व्यक्तित्व का वह विराट पक्ष सामने आएगा, जो उनको औरों से अलग खड़ा करता है.

नरेंद्र मोदी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक रहे हैं. वहीं से वे भाजपा में आए हैं. भाजपा संगठन में काम करते हुए नरेंद्र मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री बने. लगातार तीसरी बार गुजरात की जनता ने उन्हें अपना मुख्यमंत्री चुना और फिर 16 मई 2014 एक नया इतिहास दर्ज हुआ जब भारत की जनता ने भारतीय लोकतंत्र के पहले गैर-कांग्रेसी पूर्ण बहुमत की सरकार के प्रधानमंत्री उम्मीदवार के रूप में नरेंद्र मोदी को अपना नेता स्वीकार किया. प्

रधानमंत्री के रूप में भविष्य उनका मूल्यांकन कैसे करेगा, ये तो वक्त ही बतायेगा. लेकिन राजनीति में शुचिता को कायम रखते हुए वंशवाद के दाग से मुक्त होकर राष्ट्र को अपना संपूर्ण जीवन समर्पित कर देने वाले इतिहास के चंद नेताओं की सूचि में नरेंद्र मोदी का नाम प्रमुखता से दर्ज हो चुका है. उनका धुर विरोधी अनेक बिन्दुओं पर उनका आलोचक हो सकता है, उनके सरकार की नीतियों का आलोचक हो सकता है. लेकिन जब भी राजनीति में शुचिता और परिवारवाद की बात आयेगी तो नरेंद्र मोदी का नाम एक आदर्श उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किया जाएगा.

 मोदी एकलौते ऐसे प्रधानमंत्री हैं जिनकी मां के अलावा और कोई भी सदस्य प्रधानमंत्री निवास में नहीं रहा

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की प्रार्थना में मातृभूमि के लिए एक वन्दना की पंक्ति है, त्वदीयाय कार्याय बद्धा कटीयं. इसका भाव है कि हम तुम्हारे (हे मातृभूमि) ही कार्यों हेतु कमर कसकर तैयार हैं. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़ाव के बाद इसी संकल्प के साथ नरेंद्र मोदी भी देश और राष्ट्र की सेवा में कमर कसते हुए अपना घर, परिवार सबकुछ छोड़कर निकल गए थे. वे जब अपनी मातृभूमि की सेवा के लिए सबकुछ छोड़कर अपने जीवन को समर्पित कर रहे होंगे तब उन्हें भी नहीं पता होगा कि एकदिन उन्हें प्रधानमंत्री के रूप में भी माँ भारती की सेवा का अवसर मिलेगा.

आज जब राजनीति में परिवारवाद, वंशवाद जैसी कुरीतियाँ राजनीतिक दलों के निर्माण की बुनियाद में हैं. राष्ट्र की बजाय, पुत्र, भाई, परिवार को प्राथमिकता दी जा रही है. सत्ता के लिए परिवार ही आपस में लड़ भी रहे हैं. ऐसे में नरेंद्र मोदी भारतीय राजनीति में अलग स्थान रखते हैं. शायद वो देश के पहले प्रधानमंत्री होंगे जिनके आधिकारिक आवास पर उनकी माँ के अलावा उनके परिवार से और कोई कभी कुछ दिन रहा भी नहीं हो.

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इण्डिया टुडे में छपे एक लेख ‘द अदर मोदीज’ में उदय माहोरकर ने उनके परिवार के बारे में बेहद विस्तार से लिखा है. आज के दौर में जब राजनीति और रसूख एक दूसरे के पर्याय बन गए हैं, नरेंद्र मोदी और उनका परिवार अपवाद है. उनके सभी भाई और परिवार के लोग अपने नौकरी पेशा के साथ सामान्य जीवन जी रहे हैं.  उनके बड़े भाई सोमभाई मोदी के हवाले से लेख में लिखा गया है कि वे नरेंद्र मोदी के भाई हैं, न कि इस देश के प्रधानमंत्री के भाई हैं. प्रधानमंत्री के लिए वह भी वैसे ही हैं जैसे 125 करोड़ और लोग हैं.

आज की राजनीति में जब उत्तर प्रदेश में एक ऐसा परिवार सत्ता में है जो खुद को स्वघोषित रूप से समाजवादी नेता राम मनोहर लोहिया का अनुयायी कहता है लेकिन हकीकत इसके ठीक उलट है. लोहिया के लिए पार्टी ही परिवार था और यूपी के समाजवादी कुनबे के लिए परिवार ही पार्टी है. भारतीय लोकतंत्र में परिवारवादी राजनीति के बढ़ते कु-प्रभाव में नरेंद्र मोदी एक उम्मीद की लौ जलाने वाले नेता की तरह हैं. राष्ट्र प्रथम का संकल्प लेकर एक स्वयंसेवक के तौर घर से निकले नरेंद्र मोदी ने अपना पूरा परिवार छोड़ दिया और आज जब सत्ता और शक्ति के शिखर पर हैं तब भी उसी संकल्प पथ पर आगे बढ़ रहे हैं.

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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