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क्या इशारा कर रही हैं कश्मीरियत, इंसानियत और जम्हूरियत की बदलती तस्वीरें

    • आईचौक
    • Updated: 16 अप्रिल, 2017 03:00 PM
  • 16 अप्रिल, 2017 03:00 PM
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अभी अनंतनाग में विधानसभा चुनाव के दौरान तो सब ठीक ही था, अचानक ये क्या होने लगा? राज्य में चुनी हुई सरकार है लेकिन जम्हूरियत की ये कौन सी तस्वीर उभर रही है?

45 साल के बशीर अहमद डार पहले से ही आतंकियों के निशाने पर थे. वो के पीडीपी कार्यकर्ता थे और राजपुरा में दवा की अपनी दुकान चलाते थे. खबर है, बशीर को आतंकियों की ओर से धमकी मिली थी कि वो पीडीपी से रिश्ता तोड़ लें, लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया.

बात नहीं मानने पर आतंकवादियों ने पुलवामा में बशीर पर पुलवामा में हमला बोल दिया. ताबड़तोड़ फायरिंग में बशीर के साथ उनके चचेरे भाई अल्ताफ अहमद डार भी बुरी तरह जख्मी हो गये. बशीर अस्पताल पहुंचते उससे पहले ही दम तोड़ चुके थे.

जम्हूरियत

जम्मू कश्मीर की तरक्की के लिए पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने एक मंत्र दिया था जिसमें तीन शब्दों पर उनका जोर था - कश्मीरियत, इंसानियत और जम्हूरियत. अब तक जब भी कश्मीर के लोगों के बीच इन तीन शब्दों का जिक्र आता है उनकी भावनाएं उमड़ पड़ती हैं - लेकिन ये लम्हा कभी टिकाऊ नहीं दिखता.

पीडीपी और बीजेपी ने तीन साल पहले जब मिलकर सरकार बनाने के लिए राजी हुए तो हर किसी ने गठबंधन को बेमेल बताया लेकिन बेहतरीन भी बताया. तब भी और उसके बाद भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सूबे की तरक्की के लिए वाजपेयी का तीन शब्दों का मंत्र ही दोहराया और लोगों ने बड़ी उम्मीद के साथ सहमति जतायी. ऊपर से तो सबकुछ ठीक ही चल रहा था लेकिन जुलाई 2016 में लश्कर आतंकी बुरहान वानी की मुठभेड़ में मौत के बाद से हालात जो बिगड़ने शुरू हुए तो अब तक नहीं सुधरे. हद तो श्रीनगर उपचुनाव के वक्त हो गया जब वोटिंग के दौरान हिंसा में आठ लोगों की मौत हो गई - और मतदान महज 7.14 फीसदी रहा. करीब करीब उतना ही जितना घाटी में दहशतगर्दी की शुरुआत के वक्त दर्ज किया गया था. 1989 में 5 फीसदी वोटिंग दर्ज की गयी थी. यहां तक कि चुनाव आयोग को अनंतनाग का दूसरा उपचुनाव रद्द ही कर देना पड़ा. असल में, आयोग ने जब श्रीनगर के 38 बूथों पर दोबारा मतदान कराया तो मालूम हुआ 20 बूथों की ओर से किसी ने रुख करना भी मुनासिब नहीं समझा.

45 साल के बशीर अहमद डार पहले से ही आतंकियों के निशाने पर थे. वो के पीडीपी कार्यकर्ता थे और राजपुरा में दवा की अपनी दुकान चलाते थे. खबर है, बशीर को आतंकियों की ओर से धमकी मिली थी कि वो पीडीपी से रिश्ता तोड़ लें, लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया.

बात नहीं मानने पर आतंकवादियों ने पुलवामा में बशीर पर पुलवामा में हमला बोल दिया. ताबड़तोड़ फायरिंग में बशीर के साथ उनके चचेरे भाई अल्ताफ अहमद डार भी बुरी तरह जख्मी हो गये. बशीर अस्पताल पहुंचते उससे पहले ही दम तोड़ चुके थे.

जम्हूरियत

जम्मू कश्मीर की तरक्की के लिए पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने एक मंत्र दिया था जिसमें तीन शब्दों पर उनका जोर था - कश्मीरियत, इंसानियत और जम्हूरियत. अब तक जब भी कश्मीर के लोगों के बीच इन तीन शब्दों का जिक्र आता है उनकी भावनाएं उमड़ पड़ती हैं - लेकिन ये लम्हा कभी टिकाऊ नहीं दिखता.

पीडीपी और बीजेपी ने तीन साल पहले जब मिलकर सरकार बनाने के लिए राजी हुए तो हर किसी ने गठबंधन को बेमेल बताया लेकिन बेहतरीन भी बताया. तब भी और उसके बाद भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सूबे की तरक्की के लिए वाजपेयी का तीन शब्दों का मंत्र ही दोहराया और लोगों ने बड़ी उम्मीद के साथ सहमति जतायी. ऊपर से तो सबकुछ ठीक ही चल रहा था लेकिन जुलाई 2016 में लश्कर आतंकी बुरहान वानी की मुठभेड़ में मौत के बाद से हालात जो बिगड़ने शुरू हुए तो अब तक नहीं सुधरे. हद तो श्रीनगर उपचुनाव के वक्त हो गया जब वोटिंग के दौरान हिंसा में आठ लोगों की मौत हो गई - और मतदान महज 7.14 फीसदी रहा. करीब करीब उतना ही जितना घाटी में दहशतगर्दी की शुरुआत के वक्त दर्ज किया गया था. 1989 में 5 फीसदी वोटिंग दर्ज की गयी थी. यहां तक कि चुनाव आयोग को अनंतनाग का दूसरा उपचुनाव रद्द ही कर देना पड़ा. असल में, आयोग ने जब श्रीनगर के 38 बूथों पर दोबारा मतदान कराया तो मालूम हुआ 20 बूथों की ओर से किसी ने रुख करना भी मुनासिब नहीं समझा.

ये कश्मीरियत की कौन सी तस्वीर है?

आखिर ये जम्मू-कश्मीर में जम्हूरियत की कौन सी तस्वीर है? अभी अनंतनाग में विधानसभा चुनाव के दौरान तो सब ठीक ही था, अचानक ये क्या होने लगा? राज्य में चुनी हुई सरकार है लेकिन जम्हूरियत की ये कौन सी तस्वीर उभर रही है? उपचुनाव से पहले चुनाव आयोग ने जब राज्य सरकार की राय ली थी तो सब ठीक ही बताया गया था. क्या महबूबा सरकार को राज्य के जमीनी हालात का अंदाजा नहीं था?

कश्मीरियत

हाल ही में एक सुरंग के उद्घाटन के लिए जम्मू कश्मीर पहुंचे प्रधानमंत्री मोदी ने नौजवानों से कहा कि वे जो रास्ता चाहें चुन लें, उनके पास दो रास्ते हैं - टूरिज्म या टेररिज्म?

पत्थरबाजी में नौजवानों की बढ़ती शिरकत पर प्रधानमंत्री बोले, "मैं कश्मीर के नौजवानों को कहता हूं. पत्थर की ताकत क्या होती है. एक तरफ कुछ नौजवान पत्थर मारने में लगे हैं और कुछ ने पत्थर काट कर यह सुरंग बना दी."

प्रधानमंत्री की बातों की काट में जम्मू कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री फारूक अब्दुल्ला ने अपनी दलील पेश की, “जो युवा पत्थरबाजी कर रहे हैं, उनका पर्यटन से कोई लेना-देना नहीं है. वे ये सब देश के लिए कर रहे हैं. वे अपना जीवन कुर्बान कर रहे हैं, ताकि समस्या का कोई समाधान निकल सके. वे अपना जीवन पर्यटन के लिए कुर्बान नहीं कर रहे."

फारूक अब्दुल्ला श्रीनगर उपचुनाव जीत चुके हैं. पीडीपी के तारिक अहमद कर्रा के इस्तीफे से खाली हुई ये सीट पार्टी बचा नहीं पायी. फारूक अब्दुल्ला का ये सियासी पथराव महज चुनाव के लिए था या आगे भी जारी रहेगा, देखना होगा.

इंसानियत

बंदूक और हथगोलों से इतर इन दिनों घाटी में वीडियो सबसे बड़ा हथियार बन कर उभरा है. मोबाइल कैमरे से बनाये गये कई वीडियो आजकल वायरल हो रहे हैं. इनमें खास तौर पर दो वीडियो ने हर किसी का ध्यान खींचा है.

एक वीडियो वो है जिसमें सीआरपीएफ के एक जवान के साथ कश्मीरी नौजवान के साथ किसी अपराधी जैसा सलूक कर रहे हैं. उनके तमाम उकसावे के बावजूद वो हथियारबंद जवान अप्रतिम धैर्य की मिसाल पेश करते नजर आया है. इस वीडियो के बाद ऐसी खबरें भी आईं जिनसे पता चला कि ड्यूटी पर तैनात जवानों के लिए ये रूटीन की बात हो गयी है.

दूसरा वीडियो वो है जिसमें एक शख्स सेना की गाड़ी के बोनट पर बंधा हुआ है. इस वीडियो के वायरल होने के बाद वो शख्स सामने आया तो मालूम हुआ कि वो पेशे से दर्जी है और उसे गाड़ी पर बांध कर कई गांवों में घुमाया गया.

लग तो ऐसा रहा है कि जम्हूरियत, कश्मीरियत और इंसानियत तीनों की तस्वीरें धुंधली पड़ती जा रही हैं. जम्हूरियत के इस हाल के लिए श्रीनगर और अनंतनाग उपचुनावों से बड़ा भला क्या उदाहरण हो सकता है? कश्मीरियत के भी दो फलक तो फिलहाल पत्थरबाजी में यकीन रखने वाले नौजवान और उनके कार्यकलाओं को एनडोर्स करने वाले सियासतदां नजर आ रहे हैं. दोनों वीडियो में जो कुछ देखने को मिला है उसके बाद इंसानियत के बारे में बहुत कुछ सोचने समझने को बचता भी क्या है?

जम्मू कश्मीर की मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती ने आर्मी चीफ बिपिन रावत से मुलाकात में कहा है कि उस शख्स को जीप से बांधकर घुमाने का वीडियो सामने आने के बाद लोगों में गुस्सा है. महबूबा का ये कहना भी सही है कि ऐसी बातों से अब तक जो भी प्रोग्रेस हुई है सब मिट्टी में मिल जाएगी. मीडिया में आई खबरों के अनुसार, महबूबा ने रावत से मुलाकात में कहा, "डंडे से कुछ नहीं निकलेगा. अब तक जो हुआ सो हुआ. अब इसे दोहराया नहीं जाना चाहिए."

एकदम सही बात है - बिलकुल नहीं दोहराया जाना चाहिये. लेकिन महबूबा की ओर से एक बात सुनने को नहीं मिली - क्या कश्मीर के उन नौजवानों के लिए भी उनकी कोई सलाह है जो उस सीआरपीएफ जवान की बेइज्जती कर रहे थे. ये तो है कि मुख्यमंत्री बनने के बाद महबूबा के नजरिये में काफी बदलाव आया है लेकिन बुरहान वानी केस में भी उनके बयान का आशय यही था कि उन्हें पहले से पता होता तो मुठभेड़ टाली जा सकती थी. सुना है वीडियो सामने आने के बाद महबूबा प्रधानमंत्री मोदी से मिलना चाहती थीं, लेकिन दिल्ली से बाहर होने के कारण मुलाकात नहीं हो सकी.

पिछले साल सितंबर में गृह मंत्री राजनाथ सिंह के साथ एक सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल भी जम्मू-कश्मीर गया था. प्रतिनिधिमंडल ने जब अलगाववादी नेताओं से मुलाकात करनी चाही तो उसे बैरंग लौटा दिया गया. प्रतिनिधिमंडल की मंशा को लेकर तो राजनाथ ने कहा कि उस मसले पर न तो उनकी 'हां' थी न 'ना', लेकिन अलगाववादियों के अड़ियल रुख पर राजनाथ सिंह का कहना था, "ये न तो जम्हूरियत है, न कश्मीरियत है और न ही इंसानियत है." तो फिर क्या इशारा कर रही हैं कश्मीरियत, इंसानियत और जम्हूरियत की बदलती तस्वीरें?

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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