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हिंसक किसान आंदोलन और सौ साल पुरानी गांधी-टैगोर बहस

    • सुशोभित सक्तावत
    • Updated: 10 जून, 2017 06:17 PM
  • 10 जून, 2017 06:17 PM
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यह वह जनजीवन है, जो किसानों की समस्याओं के लिए मूलत: दोषी नहीं था. जो किसान इस आंदोलन का हिस्सा बनने को तैयार नहीं थे और दूध और सब्ज़ियां बेचने निकले थे, उनके सामान को बलपूर्वक नष्ट कर दिया गया.

किसान आंदोलन चल रहा है. आंदोलन महाराष्ट्र से शुरू हुआ था और अब इसने मध्यप्रदेश को अपनी गिरफ़्त में ले लिया है. आंदोलनकारियों की अनेक मांगें हैं, जिनमें कर्जमाफ़ी जैसी अनैतिक मांग भी शामिल है.  

आंदोलनकारी किसानों ने आपूर्ति तंत्र को अपहृत कर लिया है. दूध, फल और सब्ज़ियों के उत्पादन और वितरण के "मैकेनिज़्म" में ये किसान बीच की अहम कड़ी की भूमिका निभाते हैं और अब उन्होंने यह भूमिका निभाने से इनकार कर दिया है. परिणाम यह है कि इससे प्रभावित क्षेत्रों में सामान्य जनजीवन पूरी तरह से अस्त-व्यस्त हो गया. यह वह जनजीवन है, जो किसानों की समस्याओं के लिए मूलत: दोषी नहीं था. जो किसान इस आंदोलन का हिस्सा बनने को तैयार नहीं थे और दूध और सब्ज़ियां बेचने निकले थे, उनके सामान को बलपूर्वक नष्ट कर दिया गया. यहां तक कि सहकारी संस्थाओं के दूध के टैंकरों को भी सड़कों पर उलट दिया गया.

जब मैंने आंदोलनकारियों की तस्वीरें देखीं तो दो चीज़ें मेरे दिमाग़ में आईं. एक तो आंदोलनकारियों की देहभाषा, जिसमें कहीं भी क्षोभ, हताशा या पीड़ा नहीं थी, उल्टे विनाश का "परपीड़क" सुख ही उसमें झलक रहा था. वे दूध और सब्ज़ियां नष्ट करते हुए हंसते-खिलखिलाते नज़र आ रहे थे. दूसरे, मैंने सामान्य लोगों को जीवनयापन के लिए आवश्यक वस्तुओं के लिए संघर्ष करते देखा. मैं समझ नहीं पाया कि सड़कों पर नष्ट कर दी गई आवश्यक वस्तुओं और उन्हें प्राप्त करने के लिए किए जा रहे संघर्ष के बीच के टूटे हुए "तारतम्य" को कैसे परिभाषित करूं. वह कौन-सी कड़ी थी, जिसने मांग और आपूर्ति के तंत्र को इस विडंबनामय तरीक़े से गड़बड़ा दिया था कि उनके बीच की सरणि‍यां विश्रंखल हो गई थीं. आप कह सकते हैं, किसानों के स्तर पर हठ और विवेकशून्यता और प्रशासन के स्तर पर दूरदृष्ट‍ि और संकल्पशक्त‍ि का अभाव. लेकिन मुझे इन प्रवृत्त‍ियों के भीतर ऐतिहासिक विचारधारागत भूलें दिखाई दे रही हैं.

किसान आंदोलन चल रहा है. आंदोलन महाराष्ट्र से शुरू हुआ था और अब इसने मध्यप्रदेश को अपनी गिरफ़्त में ले लिया है. आंदोलनकारियों की अनेक मांगें हैं, जिनमें कर्जमाफ़ी जैसी अनैतिक मांग भी शामिल है.  

आंदोलनकारी किसानों ने आपूर्ति तंत्र को अपहृत कर लिया है. दूध, फल और सब्ज़ियों के उत्पादन और वितरण के "मैकेनिज़्म" में ये किसान बीच की अहम कड़ी की भूमिका निभाते हैं और अब उन्होंने यह भूमिका निभाने से इनकार कर दिया है. परिणाम यह है कि इससे प्रभावित क्षेत्रों में सामान्य जनजीवन पूरी तरह से अस्त-व्यस्त हो गया. यह वह जनजीवन है, जो किसानों की समस्याओं के लिए मूलत: दोषी नहीं था. जो किसान इस आंदोलन का हिस्सा बनने को तैयार नहीं थे और दूध और सब्ज़ियां बेचने निकले थे, उनके सामान को बलपूर्वक नष्ट कर दिया गया. यहां तक कि सहकारी संस्थाओं के दूध के टैंकरों को भी सड़कों पर उलट दिया गया.

जब मैंने आंदोलनकारियों की तस्वीरें देखीं तो दो चीज़ें मेरे दिमाग़ में आईं. एक तो आंदोलनकारियों की देहभाषा, जिसमें कहीं भी क्षोभ, हताशा या पीड़ा नहीं थी, उल्टे विनाश का "परपीड़क" सुख ही उसमें झलक रहा था. वे दूध और सब्ज़ियां नष्ट करते हुए हंसते-खिलखिलाते नज़र आ रहे थे. दूसरे, मैंने सामान्य लोगों को जीवनयापन के लिए आवश्यक वस्तुओं के लिए संघर्ष करते देखा. मैं समझ नहीं पाया कि सड़कों पर नष्ट कर दी गई आवश्यक वस्तुओं और उन्हें प्राप्त करने के लिए किए जा रहे संघर्ष के बीच के टूटे हुए "तारतम्य" को कैसे परिभाषित करूं. वह कौन-सी कड़ी थी, जिसने मांग और आपूर्ति के तंत्र को इस विडंबनामय तरीक़े से गड़बड़ा दिया था कि उनके बीच की सरणि‍यां विश्रंखल हो गई थीं. आप कह सकते हैं, किसानों के स्तर पर हठ और विवेकशून्यता और प्रशासन के स्तर पर दूरदृष्ट‍ि और संकल्पशक्त‍ि का अभाव. लेकिन मुझे इन प्रवृत्त‍ियों के भीतर ऐतिहासिक विचारधारागत भूलें दिखाई दे रही हैं.

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भारतीयों को "सत्याग्रह" और "असहयोग" की दीक्षा गांधी ने दी थी. विरोध की भंगिमा के रूप में विदेशी सामग्र‍ियों का बहिष्कार किया जाए, यह शिक्षा भी भारतीयों को गांधी ने ही दी. गांधी ने कहा था कि "विदेशी कपड़ों की ऐसी होली जलाई जाए, जो लंदन तक दिखाई दे." अलबत्ता मज़े की बात यह है कि धुर दक्षिणपंथी भी यह दावा करने का प्रयास करते हैं कि विदेशी कपड़ों की होली जलाने के मूल में वस्तुत: सावरकर की प्रेरणा थी. आश्चर्य यह है कि जो गांधी केवल इसी कारण से आजीवन एक धोती पहनते रहे कि उनके देशवासियों के पास पहनने के लिए पूरे कपड़े भी नहीं हैं, वे कपड़ों की होली जलाने का अनैतिक आह्वान कर सकते थे, फिर चाहे उसका प्रतीकात्मक महत्व कुछ भी रहा हो.

इसके पीछे "गांधी-टैगोर मतभेदों" का एक सुचिंतित विमर्श रहा है. गांधी और टैगोर दोनों ही राष्ट्रवादी थे, लेकिन टैगोर का राष्ट्रवाद अपनी अवधारणाओं में कहीं व्यापक था. टैगोर सही मायनों में विश्व-नागरिक थे. और गांधी की आंधी के उस दौर में भले ही टैगोर को बंगाल के बाहर उतना महत्व ना दिया गया हो, सच्चाई यही है कि टैगोर के भीतर गांधी से गहरी अंतर्दृष्टि थी. लेकिन गांधी के पास जनसमर्थन था. और अपार जनसमर्थन हमेशा वैचारिक वैधता के प्रति संशय को ही जन्म देगा.

टैगोर इस बात के बिलकुल पक्ष में नहीं थे कि स्वदेशी आंदोलन के चलते बहिष्कार के एक उपकरण के रूप में विदेशी कपड़ों की होली जलाई जाए. भारत में स्वदेशी आंदोलन वर्ष 1905 में "बंग-भंग" के बाद से प्रारंभ हो चुका था, अलबत्ता दादाभाई नौरोजी 1850 से ही इस दिशा में प्रवृत्त हो चुके थे. लेकिन इसे गति मिली वर्ष 1915 में गांधी की भारत वापसी से, जो दक्षिण अफ्रीका में "सत्याग्रह" के अपने प्रयोगों की पूंजी साथ लेकर आए थे. गांधी ने भारत लौटते ही अपने पूर्वग्रहों को सामने रखा. किंतु टैगोर ने गांधी की विचार-श्रंखला में निहित दुर्बलताओं को तुरंत भांप लिया था.

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1916 में टैगोर का उपन्यास "घरे-बाइरे" प्रकाशित हुआ था, जिसे भारत में राष्ट्रवादी आंदोलन की "गांधी प्रणीत धारा" और "टैगोर प्रणीत पूर्वग्रह" के मूल में माना जाता है. टैगोर ने वह उपन्यास तब लिखा था, जब अभी तो "चंपारण सत्याग्रह" भी नहीं हुआ था और "असहयोग आंदोलन" भविष्य के गर्भ में था. टैगोर के उपन्यास में संदीप नामक पात्र है. संदीप राष्ट्रवादी है और "स्वराज" के लिए संघर्ष कर रहा है. वह विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार की अपील करता है और जो उसके आह्वान को स्वीकार नहीं करते, उनकी वस्तुओं को बलात् नष्ट कर देता है (आज के किसान आंदोलनकारियों की तरह.) उपन्यास का नायक निखिल इस तौर-तरीक़ों से सहमत नहीं है. अनेक समालोचक गांधी को संदीप और टैगोर को निखिल के प्रतिनिधि के रूप में देखते रहे हैं. संदीप का संकीर्ण राष्ट्रवाद उग्र विरोध का हामी था, जबकि निखिल का मत था कि वस्तुओं को बलात् नष्ट करने से स्थानीय लोग और मुश्क‍िल में आ जाएंगे.

वस्तु अगर विदेशी हो तो भी अगर उसका एक "लोकल मर्केंडाइल" है तो वह स्थानीय बाज़ार में पूंजी का संचार करती है और रोज़गार के अवसरों का निर्माण करती है, यह अर्थशास्त्र की मूल धारणा है. और आप जब उत्कृष्ट उत्पादन को नष्ट करते हैं, तो यह ना केवल उपभोक्ता, जो कि अपनी प्रवृत्त‍ि में हमेशा "भूमंडलीकृत" होता है "स्थानीय" नहीं, के निजी अधिकारों का हनन होता है, बल्कि यह अर्थव्यवस्था में स्वस्थ प्रतिस्पर्धा के निर्माण की संभावनाओं को भी समाप्त करता है. गांधी के व्यक्त‍ित्व में भीषण हठधर्मिता थी, और उनके "असहयोग" के आह्वान में भी एक सूक्ष्म हिंसा थी, दबाव की रणनीति थी, जो कि "साधन-शुचिता" के उनके स्वयं के आग्रहों के विपरीत थी. "सत्याग्रह" में भी एक "आग्रह" है और आग्रह की अति एक "दुराग्रह" है, गांधी की बुद्धि इसको समझने के लिए तैयार नहीं थी.

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1921 में जोड़ासांको की "ठाकुरबाड़ी" में गांधी और टैगोर की भेंट हुई. टैगोर ने गांधी के मुंह पर कहा कि स्वदेशी आंदोलन के नाम पर "टेक्सटाइल इंडस्ट्री" को समाप्त कर देना किसी लिहाज़ से विवेकपूर्ण नहीं है. इसके मूल में विनाश, नकारात्मकता और असहिष्णुता है. गांधी ने अपने सुपरिचित अंदाज़ में जवाब दिया, "डूबता हुआ आदमी औरों की परवाह नहीं करता!"

बंगाल में "गांधी-टैगोर डिबेट" पर बहुत विमर्श हुआ है और अमर्त्य सेन से लेकर आशीष नंदी तक ने इसकी बारीक़ पड़ताल की है. टैगोर के मानसपुत्र सत्यजित राय ने तो "घरे-बाइरे" पर एक फ़िल्म ही बनाई है, जिसमें राष्ट्रवादी संदीप स्पष्टतया एक खलचरित्र है. अलबत्ता सनद रहे कि वर्ष 1916 में टैगोर के उस विवेकशील हस्तक्षेप को बहुतों के द्वारा "विलायत-परस्ती" की संज्ञा दी गई थी! टैगोर को तीन साल पहले ही नोबेल पुरस्कार दिया गया था.

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आज किसान आंदोलन के मूल में प्रतिहिंसा, नाश, असहयोग और हठधर्मिता की जो वृत्त‍ियां आपको नज़र आ रही हैं, वह भारत के जनमानस को गांधी की स्थायी देन है. मेरी मांगें मानो, अन्यथा मैं भूख हड़ताल कर दूंगा, असहयोग कर दूंगा, उत्पाद को नष्ट कर दूंगा, इस हिंसक और हठपूर्ण आग्रह को गांधी के "आभामंडल" ने एक नैतिक मान्यता प्रदान कर दी है. आपको शायद यह जानकर अच्छा ना लगे किंतु गुर्जरों द्वारा पटरियां उखाड़ देना, जाटों द्वारा सामूहिक बलात्कार करना, पटेलों द्वारा नगर-व्यवस्था को अपहृत कर लेना और किसानों द्वारा आपूर्ति-तंत्र को पंगु बना देने की प्रवृत्त‍ियों के पीछे जाने-अनजाने गांधी की ही प्रेरणा काम कर रही है.

गांधी को लगता था कि वे अपने अनुयायियों को "असहयोग" सिखा रहे हैं, जबकि उनके अनुयायी "उद्दंडता" सीख रहे थे.

गांधी को लगता था कि वे अपने अनुयायियों को "सत्याग्रह" सिखा रहे हैं, जबकि उनके अनुयायी "हठधर्मिता" सीख रहे थे.

एक "चौरी-चौरा" हमेशा गांधी की नियति में बदा रहता है.

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मैंने किसानों की कर्जमाफ़ी की मांग को पहले ही अनुचित क़रार दे दिया है, क्योंकि जहां करोड़ों लोग नियमपूर्वक ऋण चुका रहे हों, तब कोई भी व्यवस्था "कर्जमाफ़ी" के तर्क पर नहीं चल सकती. मैं आगे जाकर यह भी कहूंगा कि किसानों के आंदोलन में निहित विनाश का व्याकरण घोर अनैतिक और आपराधिक है. उपज को नष्ट करने वाला कभी किसान नहीं हो सकता. अनाज की अवमानना करने वाला कभी "अन्नदाता" नहीं हो सकता. दूधमुंहे बच्चे एक-एक बूंद दूध के लिए तरसते रहें और गैलनों दूध को सड़कों पर नष्ट कर दिया जाए, यह कृत्य करने वाला आंदोलन कभी भी "वैध" नहीं हो सकता. और बल, आग्रह, हठ और हिंसा की जो प्रवृत्त‍ियां इस तरह के आंदोलनों के मूल में निहित होती हैं, वे कभी भी "साधन-शुचिता" की श्रेणी में नहीं रखी जा सकतीं.

और यही कारण है कि अब समय आ गया है कि भारत के भूमंडलीकृत विश्व-नागरिक गांधी और टैगोर में से किसी एक चुनाव करें और गांधी के छद्म आभामंडल से मुक्त हो जाएं.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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