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सेना को लेकर राजनीति क्यों?

    • अशोक उपाध्याय
    • Updated: 19 दिसम्बर, 2016 04:47 PM
  • 19 दिसम्बर, 2016 04:47 PM
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लेफ्टिनेंट जनरल बिपिन रावत के सेना प्रमुख बनाए जाने पर राजनीति शुरू हो गई है. क्या इस तरह की राजनीति से सेना का बल नहीं टूटेगा? आखिर क्यों ये सीरियोरिटी को सेना में इतनी अहमियत दी जाती है?

अक्सर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के काम करने के लहजे एवं राजनितिक व्यवहार की तुलना पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी से की जाती हैं. राजनीति विश्लेषक मोदी एवं इंदिरा में अनेक समानताएं देखते हैं. इसी कारण जब प्रधानमंत्री ने 16 दिसंबर को भारतीय जनता पार्टी के सांसदों को संबोधित करते हुए कहा ये कहा कि इंदिरा गांधी में बड़े नोटों के विमुद्रीकरण का साहस नहीं था और वो चुनाव के डर से नोटबंदी का प्रस्ताकव नहीं मानी थी तो लोगों को आश्चर्य हुआ. लगा की वो अपनी इस इमेज को बदलना चाहते हैं. लेकिन मोदी के इस वक्तव्य के 24 घंटे के अंदर जब उनकी सरकार ने जनरल दलबीर सिंह की जगह सह-सेना प्रमुख बिपिन रावत को नया सेनाध्यक्ष बनाने की घोषणा की तो बहुतों को एकबार फिर से इंदिरा गाँधी याद आ गई.

 मोदी का बिपिन रावत को आर्मी चीफ बनाने का फैसला काफी कुछ इंदिरा गांधी के फैसले जैसा है

वरिष्ठता की परंपरा का उलंघन...

बिपिन रावत सेना में फिलहाल वरिष्ठता में तीसरे नंबर पर थे. उन्हें सीनियर आर्मी कमांडर ले. जनरल प्रवीण बख्शी एवं दक्षिणी कमांड के चीफ पी.एम. हारिज के इस पद के दावेदारी को दरकिनार करते हुए ये जिम्मेदारी दी गई. मोदी सरकार के इस कदम को इंदिरा गाँधी के 1983 के फैसले के समान माना जा रहा है.

ये भी पढ़ें- क्या आप सेना में शामिल होना चाहते हैं, सिर्फ युद्ध के लिए?

क्या ऐसा पहले भी हुआ है?

सेना में किसी वरिष्ठ अधिकारी को नजरअंदाज कर उससे...

अक्सर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के काम करने के लहजे एवं राजनितिक व्यवहार की तुलना पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी से की जाती हैं. राजनीति विश्लेषक मोदी एवं इंदिरा में अनेक समानताएं देखते हैं. इसी कारण जब प्रधानमंत्री ने 16 दिसंबर को भारतीय जनता पार्टी के सांसदों को संबोधित करते हुए कहा ये कहा कि इंदिरा गांधी में बड़े नोटों के विमुद्रीकरण का साहस नहीं था और वो चुनाव के डर से नोटबंदी का प्रस्ताकव नहीं मानी थी तो लोगों को आश्चर्य हुआ. लगा की वो अपनी इस इमेज को बदलना चाहते हैं. लेकिन मोदी के इस वक्तव्य के 24 घंटे के अंदर जब उनकी सरकार ने जनरल दलबीर सिंह की जगह सह-सेना प्रमुख बिपिन रावत को नया सेनाध्यक्ष बनाने की घोषणा की तो बहुतों को एकबार फिर से इंदिरा गाँधी याद आ गई.

 मोदी का बिपिन रावत को आर्मी चीफ बनाने का फैसला काफी कुछ इंदिरा गांधी के फैसले जैसा है

वरिष्ठता की परंपरा का उलंघन...

बिपिन रावत सेना में फिलहाल वरिष्ठता में तीसरे नंबर पर थे. उन्हें सीनियर आर्मी कमांडर ले. जनरल प्रवीण बख्शी एवं दक्षिणी कमांड के चीफ पी.एम. हारिज के इस पद के दावेदारी को दरकिनार करते हुए ये जिम्मेदारी दी गई. मोदी सरकार के इस कदम को इंदिरा गाँधी के 1983 के फैसले के समान माना जा रहा है.

ये भी पढ़ें- क्या आप सेना में शामिल होना चाहते हैं, सिर्फ युद्ध के लिए?

क्या ऐसा पहले भी हुआ है?

सेना में किसी वरिष्ठ अधिकारी को नजरअंदाज कर उससे जूनियर को कमान सौंपे जाने का यह पहला उदाहरण नहीं है, इससे पहले 1983 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने लेफ्टिनेंट जनरल एसके सिन्हा के जगह पर ले. जनरल ए. एस वैद्य को तवज्जो देते हुए सेना प्रमुख बना दिया था. 33 साल के बाद अब मोदी सरकार ने भी वही किया. पर इंदिरा गाँधी ने केवल एक सैन्य अधिकारी की वरीयता को नजरअंदाज किया था पर मोदी सरकार ने दो - दो अधिकारियों के वरीयता को नजरअंदाज किया है.

सरकार का पक्ष...

रावत की नियुक्ति को लेकर सरकारी सूत्रों का मानना है कि मौजूदा लेफ्टिनेंट जनरल्स में उन्हें इस अहम जिम्मेदारी के लिए सबसे उपयुक्त समझा गया. सरकार ये भी मानती है कि वर्तमान चुनौतियों जैसे - सीमा पार से जारी आतंकवाद, पश्चिम से जारी छद्म युद्ध और पूर्वोत्तर की स्थिति को सँभालने के लिए लेफ्टिनेंट जनरल रावत सबसे उपयुक्त हैं.

सेना प्रमुख की नियुक्ति पर राजनीती...

कांग्रेस का कहना है कि हर संस्थात की अपनी मर्यादा होती है और सेना में वरिष्ठसता का सम्माकन किया जाता है. पर खुद इस परंपरा को तोड़ने वाली कांग्रेस इसकी दुहाई दे रही है. इसके नेता मनीष तिवारी ने पूछा है कि आखिर क्यों वरिष्ठ अधिकारियों को छोड़कर वरियता क्रम में चौथे स्थान वाले अधिकारी को सेना प्रमुख नामित किया गया. सीपीआई इस नियुक्ति में हो रहे विवाद पर सरकार को जवाब देने को कह रही है. बीजेपी का मानना है कि ऐसी टिप्पईणियों से सेना के मनोबल को ठेस पहुंचेगी. सत्तारूढ़ दल ने सेना को राजनीति में घसीटने की कोशिशों की भी आलोचना की है.

 मनीष तिवारी ने इस मामले में सवाल उठाया है

क्या सरकार का फैसला गैरकानूनी है?

एक अपवाद को छोड़ कर सेना प्रमुख हमेसा वरिष्ठतम सैन्य अधिकारी को बनाया गया है. यह एक परंपरा है पर कानून नहीं. अपने मनपसंद अधिकारी को सेना प्रमुख बनाना सरकार के अधिकार क्षेत्र में आता है. पूर्व सेना प्रमुख जनरल शंकर रायचौधरी भी यही मानते हैं.

ये भी पढ़ें- एक शहीद सैनिक, जो आज भी देश की सेवा में है!

अब क्या होगा?

अब सबकी निगाहें इस बात पर टिकी हैं कि ले. जनरल प्रवीण बख्शी एवं ले. जनरल पी.एम. हारिज क्या कदम उठाते हैं. क्या वो लेफ्टिनेंट जनरल एसके सिन्हा की तरह अपने पद से त्यागपत्र दे देंगे? सेना में वरीयता को बहुत ही अहमियत दी जाती है. और अपने वरीय अधिकारी के अधीन काम करना इनके लिए मुश्किल हो सकता है. कुछ लोगों का ये भी मानना है कि ये नए सेना प्रमुख की नियुक्ति को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दे सकते हैं.

पीओके में भारतीय सेना के सर्जिकल ऑपरेशन पर राजनीती अभी थमी ही थी कि अब ये विवाद सामने आ गया. इस पूरे विवाद में परंपरा का तो उलंघन हुआ है पर सेना को भी राजनीती में घसीटा जा रहा है. सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों एक दूसरे पर आरोप एवं प्रत्यारोप लगा रहे हैं. पर सेना के विवाद पर राजनीती करना इनके हित में भले ही हो देशहित में तो नहीं ही है.

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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