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बीजेपी को गले लगाते मुसलमान

    • आर.के.सिन्हा
    • Updated: 26 मई, 2016 11:48 AM
  • 26 मई, 2016 11:48 AM
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मुसलमानों ने कांग्रेस और एआईयूडीएफ से हटकर भाजपा के लिए भी वोट डाले. अगर ये बात न होती तो भाजपा को राज्य में इतनी शानदार सफलता नहीं मिलती.भाजपा अब मुसलमानों के लिए अछूत नहीं रही है. मोदी के विकास के नारे से मुसलमान भी प्रभावित हैं. इसके चलते वे उससे जुड़े रहे हैं.

असम के चुनाव नतीजों से मुस्लिम वोट बैंक का मिथक धूल में मिल गया है. मुसलमानों ने कांग्रेस और ऑल इंडिया यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट(एआईयूडीएफ) से हटकर भाजपा के लिए भी मत डाले. अगर ये बात ना होती तो भाजपा को राज्य में इतनी शानदार सफलता नहीं मिलती. उसके दो मुस्लिम उम्मीदवार चुनाव जीते. असम विधान सभा चुनाव के नतीजों से साफ है कि मुस्लिम वोट बैंक का मिथक सही नहीं है. अपने को असम के मुसलमानों का सबसे बड़ा रहनुमा कहने वाले जनाब चुनाव हार गए. मुसलमान वोट बैंक को लेकर किए जाने वाले दावों की हवा तो बीते लोकसभा चुनाव के समय ही निकल गई थी. तब उत्तर प्रदेश में 10 फीसद मुसलमानों ने भाजपा के हक में वोट डाले थे. ये दावा सेंटर फॉर स्टडीज आफ डेवलपिंग सोसायटीज(सीएसडीएस) ने किया था. उत्तर प्रदेश में मुसलमानों ने लखनऊ, उन्नाव, जौनपुर, संभल, सहारनपुर, रामपुर वगैरह में खासतौर पर भाजपा के लिए मत डाले थे. दरअसल भाजपा अब मुसलमानों के लिए अछूत नहीं रही है. मोदी के विकास के नारे से मुसलमान भी प्रभावित हैं. इसके चलते वे उससे जुड़े रहे हैं.

 भाजपा अब मुसलमानों के लिए अछूत नहीं रही

ये भी पढ़ें- भाजपा केवल हिंदी भाषी प्रदेशों की पार्टी नहीं रह गई है...

औकात अजमल की

दरअसल असम में मुसलमान मतदाताओं को रिझाने, या कहें कि भाजपा से दूर लेकर जाने की कांग्रेस और ऑल इंडिया...

असम के चुनाव नतीजों से मुस्लिम वोट बैंक का मिथक धूल में मिल गया है. मुसलमानों ने कांग्रेस और ऑल इंडिया यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट(एआईयूडीएफ) से हटकर भाजपा के लिए भी मत डाले. अगर ये बात ना होती तो भाजपा को राज्य में इतनी शानदार सफलता नहीं मिलती. उसके दो मुस्लिम उम्मीदवार चुनाव जीते. असम विधान सभा चुनाव के नतीजों से साफ है कि मुस्लिम वोट बैंक का मिथक सही नहीं है. अपने को असम के मुसलमानों का सबसे बड़ा रहनुमा कहने वाले जनाब चुनाव हार गए. मुसलमान वोट बैंक को लेकर किए जाने वाले दावों की हवा तो बीते लोकसभा चुनाव के समय ही निकल गई थी. तब उत्तर प्रदेश में 10 फीसद मुसलमानों ने भाजपा के हक में वोट डाले थे. ये दावा सेंटर फॉर स्टडीज आफ डेवलपिंग सोसायटीज(सीएसडीएस) ने किया था. उत्तर प्रदेश में मुसलमानों ने लखनऊ, उन्नाव, जौनपुर, संभल, सहारनपुर, रामपुर वगैरह में खासतौर पर भाजपा के लिए मत डाले थे. दरअसल भाजपा अब मुसलमानों के लिए अछूत नहीं रही है. मोदी के विकास के नारे से मुसलमान भी प्रभावित हैं. इसके चलते वे उससे जुड़े रहे हैं.

 भाजपा अब मुसलमानों के लिए अछूत नहीं रही

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औकात अजमल की

दरअसल असम में मुसलमान मतदाताओं को रिझाने, या कहें कि भाजपा से दूर लेकर जाने की कांग्रेस और ऑल इंडिया यूनाईटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट की हरचंद कोशिशें नाकाम ही रहीं. और इसके साथ ही असम के मुसलमानों के बीच अपने को सर्वोच्च नेता के रूप में पेश करने वाले फ्रंट के करोड़पति इत्र व्यापारी नेता बदरुद्दीन अजमल को भी प्रदेश के मतदाताओं ने औकात बता दी. वे खुद भी चुनाव हार गए. इससे ज्यादा उनकी क्या दुर्गति हो सकती है. उन्हें कांग्रेस के वाजेद अली चौधरी ने पानी पिला दिया. उनकी पार्टी ने मात्र 126 सदस्यीय विधान सभा में 13 सीटें जीतीं. जबकि निवर्तमान विधानसभा में फ्रंट के 18 विधायक थे.

नहीं चली मजहब की राजनीति

अजमल की हार ने संदेश दे दिया कि असम का मुसलमान भी मजहब के नाम पर राजनीति करने वालों को खारिज करने का मन बना चुका था. इस बात को कांग्रेस और अजमल समझ नहीं सके. नतीजा सबके सामने है. अजमल साहब भाजपा और उसके सहयोगी दलों के इस दावे को नकार रहे थे कि असम में बांग्लादेशी भरते जा रहे हैं. भाजपा की सहयोगी असम गण परिषद तो एक दौर में इस मसले पर लंबा संघर्ष कर चुकी है. असम की जनता को ये बात सही नहीं लगी कि कांग्रेस और अजमल बांग्लादेशियों के पक्ष में खड़े थे.

अवैध बांग्लादेशी

बेशक, असम में बांग्लादेशियों के मुद्दे पर कांग्रेस और अजमल की पार्टी की लुटिया डूब गई. असम में अवैध बांग्लादेशियों का मसला स्थायी रूप से गर्म रहता है. भारतीय जनता पार्टी ने कैंपेन के वक्त "घुसपैठिए" के मसले को तबियत से उठाया. जो जरूरी भी था. वादा किया कि इन्हें देश से बाहर खदेड़ा जाएगा. चुनाव प्रचार के समय, असम में बोडो भी बांग्लादेशियों की संख्या लाखों लाख होने का दावा कर रहे थे.

इसे भी पढ़ें: राहुल गांधी खुद ही कांग्रेस मुक्त भारत का क्रेडिट क्यों लेना चाहते हैं

असम में करीब 34 फीसदी मुसलमानों की आबादी है. जिनमें असमिया मुसलमान और बांग्लादेश से आकर असम में बसे मुसलमान दोनों शामिल हैं. कहने वाले कहते थे, असम में कुल 126 विधानसभा सीटों में से 43 सीटों पर सीधे तौर पर मुस्लिम मतदाता उम्मीदवारों के जीत-हार तय करते हैं. अगर ये सीटें किसी एक पार्टी को मिल जाए तो भले ही उसे सत्ता ना मिले, लेकिन वो किंगमेकर की भूमिका में जरूरी आ जाती थी. लेकिन इस बार मुसलमानों की सीटों और वोटों को लेकर बना हुआ मिथक टूट गया.

राज्य विधान सभा चुनाव के बाद बदरुद्दीन अजमल अपने को किंगमेकर की भूमिका में देख रहे थे. अब उन्हें अपनी सियासत को नए सिरे से परिभाषित करना होगा. उन्हें समावेशी तरीके से सियासत करनी होगी. मुंबई में पैदा हुए बदरुद्दीन अजमल ने दारुल उलूम देवबंद से पढ़ाई पूरी की. उन्होंने 2005 में अपना पार्टी बनाई और उसके अगले साल ही असम हुए विधानसभा चुनाव में कूद पड़े. पहली बार मैदान में उतरी अजमल की पार्टी साल 2006 में अल्पसंख्यकों के समर्थन से 10 सीटें जीतने में कामयाब रही थी. पर उन्हें और कांग्रेस को समझ लेना होगा कि अब मुसलमानों को भेड़-बकरियों की तरह से हांकने का वक्त गुजर गया है.

गर्त में कांग्रेस

बहरहाल 'कांग्रेस मुक्त भारत' का जो सपना देखा गया उसके इतनी तेजी से सच्चाई में परिवर्तित होने की उम्मीद तो शायद नरेंद्र मोदी को भी नहीं रही होगी. जाहिर है कि वो भी राहुल गांधी की क्षमताओं से पूरी तरह वाकिफ नहीं थे. कांग्रेस की जिन राज्यों में सरकारें बची हैं उनकी कुल मिलाकर आबादी महज छह फीसदी है. कर्नाटक को छोड़कर हिमाचल, उत्तराखंड, मणिपुर, मेघालय, मिजोरम और पुंडुचेरी बहुत ही छोटे राज्य हैं. इनमें भी कर्नाटक और हिमाचल में पार्टी के बड़े नेता करप्शन के गंभीर आरोपों से जूझ रहे हैं. उत्तराखंड में पार्टी ने जिन नौ विधायकों को बर्खास्त किया है उन्हें यदि सुप्रीमकोर्ट से वोटिंग का अधिकार मिला तो वहां भी सरकार चली जाती. मणिपुर में भी काफी विधायकों ने भाजपा में जाने के संकेत दे दिये हैं. इस लिहाज से आने वाले समय में कांग्रेस के पास सिर्फ पुंडुचेरी, मिजोरम और मेघालय ही बचे रह सकते हैं. मिजोरम की कुल आबादी महज ग्यारह लाख और मेघालय की बत्तीस लाख है.

 आने वाले समय में कांग्रेस के पास सिर्फ पुंडुचेरी, मिजोरम और मेघालय ही बचे रह सकते हैं

जरा सोचिए कि जिस दल का इतना लंबा इतिहास रहा हो, अब उसकी क्या दुर्दशा हो रही है. कांग्रेस का पहला अधिवेशन 28 दिसंबर 1885 को बंबई के गोकुलदास तेजपाल संस्कृत कालेज में हुआ था. उसमें लखनऊ के मुंशी गंगाप्रसाद वर्मा थे, आगरा के लाला बैजनाथ थे, अध्यापक सुंदर रमण थे और महाराषट्र से महादेव गोविंद रानाडे थे, पुणे से केसरी और मराठा के संपादक बाल गंगाधर तिलक थे, पूना से सदाशिव आप्टे थे, गोपाल गणेश आगरकर थे. मद्रास से एस सुब्रमण्यम अय्यर थे, पी आनंदराव चार्लू थे, दीवान बहादुर आर रघुनाथ राव थे, एम वीर राघवाचार्य थे, तिरुअनंतपुरम से पी केशव पिल्लै थे. इंडियन मिरर, हिंदू और ट्रिब्यून के संपादक थे. उसमें नेहरु परिवार शामिल नहीं था. पर विडबंना देखिए कि अब यही परिवार दशकों से कांग्रेस पर राज कर रहा है.

कांग्रेस में अब हद दर्जे के करप्ट और प्रो-अमीर लोग काबिज हैं. सादगी के लिए कांग्रेस में कोई जगह नहीं है. इसमें जनता के बीच जुझारू तरीके से काम करने वाले नेता-कार्यकर्ता लगभग खत्म हो गए हैं. जाहिर है, 131 साल पुरानी कांग्रेस मृतप्राय: है. कांग्रेस पूरी तरह से परिवारवाद पर खड़ी है. परिवार के सदस्य करप्ट हैं. यही नहीं देश की बहुसंख्यक लोगों को अतिवादी आतंकी बताकर उन्हें आरएसएस की तरफ धकेल रहे हैं. आप हिंदू हैं, आप ईश्वरवादी हैं, आस्तिक हैं और सत्य बोलने वाले हैं तो कांग्रेस में आपके लिए जगह नहीं है. इसीलिए कांग्रेस आज देश से सिकुड़ती जा रही है. पर कांग्रेस चीफ के 10 जनपथ स्थित आवास से लेकर अकबर रोड स्थित हेड आफिस में इस बारे में कोई मंथन नहीं हो रहा कि इसका पतन क्यों होता जा रहा है.

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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