• होम
  • सियासत
  • समाज
  • स्पोर्ट्स
  • सिनेमा
  • सोशल मीडिया
  • इकोनॉमी
  • ह्यूमर
  • टेक्नोलॉजी
  • वीडियो
होम
सियासत

इरोम जो हैं रहने दें, उन्हें गांधी या बुरहान न बनाएं

    • आईचौक
    • Updated: 18 अगस्त, 2016 06:54 PM
  • 18 अगस्त, 2016 06:54 PM
offline
आखिर लोग इरोम शर्मिला से किस बात की खुन्नस निकाल रहे हैं? क्या लोगों को उनकी खुशी खलने लगी है? क्या उनका खाना लोगों को हजम नहीं हो रहा है?

कलियुग में तो इरोम शर्मिला जैसा उदाहरण नहीं ही मिलता. जिंदगी की उस दहलीज पर जब लड़कियां घर बसाने के सपने देखती हैं - इरोम ने ऐसे कठिन तपस्या का व्रत लिया जिसके बारे में ही सोच कर ही बहुतों की रूह कांप उठे.

जहां माना जाता हो 'भूखे भजन न होंहि गोपाला', वहां 16 साल तक भूखे रहीं, घर परिवार से दूर और कैद में - 24 घंटे सरकारी पहरा, इल्जाम भी खुद की जान लेने का.

'मैं जीना चाहती हूं', वो चीख चीख कर कहती रहीं, लेकिन कोई उनकी आवाज सुनने को तैयार नहीं. पहले कानून नहीं सुनता था - और अब तो घर परिवार मोहल्ला और समाज सभी ने कान बंद कर लिये.

जान के पीछे क्यों?

हिंसा के रास्ते चलने पर मंजिल दूर रह जाती है, और अंत हिंसा से ही होता है. हिज्बुल कमांडर बुरहान वानी ताजातरीन मिसाल है. कुछ लोग कह सकते हैं कि अहिंसा के सबसे बड़े पैरोकार महात्मा गांधी का अंत भी तो हिंसा से ही हुआ. कह सकते हैं, लेकिन उनकी मंजिल नहीं छूटी. मुल्क को आजादी दिलाने तक उनका बाल-बांका वे भी नहीं कर सके जिनका साम्राज्य सूरज के उगने से लेकर डूबने तक हुआ करता. अब एक सनकी ने गांधी को भी नहीं छोड़ा तो उसका क्या कहा जाये. गांधी अपवाद थे, और हमेशा रहेंगे.

इसे भी पढें: इरोम शर्मिला को डर्टी पॉलिटिक्स से इतना मोह क्यों?

बुरहान को पाकिस्तान की शह पर शहीद साबित करने की कवायद चल रही है - और उसी का नतीजा है कि उसके मां-बाप कह रहे हैं कि बेटा गलत होता तो सड़क पर इतने लोग नहीं निकलते.

लेकिन इरोम ने तो ऐसा कुछ भी नहीं किया. उन्होंने तो वही रास्ता अख्तियार किया जिसे कभी नेल्सन मंडेला ने अपनी मंजिल पाने के लिये अपनाया. अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा भी मानते हैं कि उनके मंजिल तक पहुंचने में गांधी का बड़ा रोल रहा. ताजा मिसाल देखें तो, छोटा ही सही, अरविंद केजरीवाल ने भी मंजिल के...

कलियुग में तो इरोम शर्मिला जैसा उदाहरण नहीं ही मिलता. जिंदगी की उस दहलीज पर जब लड़कियां घर बसाने के सपने देखती हैं - इरोम ने ऐसे कठिन तपस्या का व्रत लिया जिसके बारे में ही सोच कर ही बहुतों की रूह कांप उठे.

जहां माना जाता हो 'भूखे भजन न होंहि गोपाला', वहां 16 साल तक भूखे रहीं, घर परिवार से दूर और कैद में - 24 घंटे सरकारी पहरा, इल्जाम भी खुद की जान लेने का.

'मैं जीना चाहती हूं', वो चीख चीख कर कहती रहीं, लेकिन कोई उनकी आवाज सुनने को तैयार नहीं. पहले कानून नहीं सुनता था - और अब तो घर परिवार मोहल्ला और समाज सभी ने कान बंद कर लिये.

जान के पीछे क्यों?

हिंसा के रास्ते चलने पर मंजिल दूर रह जाती है, और अंत हिंसा से ही होता है. हिज्बुल कमांडर बुरहान वानी ताजातरीन मिसाल है. कुछ लोग कह सकते हैं कि अहिंसा के सबसे बड़े पैरोकार महात्मा गांधी का अंत भी तो हिंसा से ही हुआ. कह सकते हैं, लेकिन उनकी मंजिल नहीं छूटी. मुल्क को आजादी दिलाने तक उनका बाल-बांका वे भी नहीं कर सके जिनका साम्राज्य सूरज के उगने से लेकर डूबने तक हुआ करता. अब एक सनकी ने गांधी को भी नहीं छोड़ा तो उसका क्या कहा जाये. गांधी अपवाद थे, और हमेशा रहेंगे.

इसे भी पढें: इरोम शर्मिला को डर्टी पॉलिटिक्स से इतना मोह क्यों?

बुरहान को पाकिस्तान की शह पर शहीद साबित करने की कवायद चल रही है - और उसी का नतीजा है कि उसके मां-बाप कह रहे हैं कि बेटा गलत होता तो सड़क पर इतने लोग नहीं निकलते.

लेकिन इरोम ने तो ऐसा कुछ भी नहीं किया. उन्होंने तो वही रास्ता अख्तियार किया जिसे कभी नेल्सन मंडेला ने अपनी मंजिल पाने के लिये अपनाया. अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा भी मानते हैं कि उनके मंजिल तक पहुंचने में गांधी का बड़ा रोल रहा. ताजा मिसाल देखें तो, छोटा ही सही, अरविंद केजरीवाल ने भी मंजिल के लिये वही राह चुनी. जिस तरह अरविंद केजरीवाल ने अपनी स्ट्रैटेजी बदली, इरोम भी तो उसी तरह की बात कर रही हैं. केजरीवाल की राजनीति और रणनीति से असहमत होने के अलग अलग तर्क हो सकते हैं, वैसे इरोम को लेकर भी लोगों को असहमत होने का अधिकार है. लेकिन खुलेआम धमकी देना, खून के प्यासे हो जाना, मोहल्ले में घुसने नहीं देना - ये सब क्या है?

अकेले क्यों पड़ीं इरोम...

बार बार इरोम कह रही हैं कि उन्होंने आंदोलन खत्म नहीं किया सिर्फ स्ट्रैटेजी बदली है. लोगों को यकीन क्यों नहीं हो रहा, या वो करना नहीं चाहते? इरोम की बस इतनी ही तो ख्वाहिश है - वो भी एक आम इंसान की जिंदगी जियें. खाना खायें, शादी करें और घर में परिवार के साथ रहें.

आखिर लोग इरोम शर्मिला से किस बात की खुन्नस निकाल रहे हैं? क्या लोगों को उनकी खुशी खलने लगी है? क्या उनका खाना लोगों को हजम नहीं हो रहा है?

मणिपुर के अलगाववादी नेता एन ओकेन और कस लाब मैतेई की ओर से जारी बयान पर गौर कीजिए - "जिन भी लोगों ने राजनीति में कदम रखा उन्‍हें पता है कि यह अंत है. जिस एनआरआई के साथ इरोम शादी करना चाहती है उसे सुरक्षा एजेंसियों ने AFSPA के खिलाफ लड़ाई को कमजोर करने और औपनिवेशिक प्रभुत्‍व को बनाए रखने के लिए प्‍लांट किया है.” इरोम शर्मिला ने भारतीय मूल के ब्रिटिश नागरिक डेसमंड कुटिन्हो के साथ घर बसाने के संकेत दिये हैं - और ये बात उनके घरवाले भी स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं.

भूख हड़ताल खत्म कर जमानत पर रिहा होने के बाद इरोम ने साफ साफ कहा - ''मेरे खून से उन्हें अपना भ्रम दूर करने दीजिए.''

असल में इरोम को भी मालूम है अपने समाज की हकीकत, तभी तो वो मीडिया से बोलीं, ''कुछ लोग फिलहाल संतुष्ट नहीं हो सकते. जिस तरह लोगों ने गांधी जी की हत्या की और उन पर हिंदू विरोधी होने का आरोप लगाया, उसी तरह उन्हें मेरी हत्या करने दीजिए. लोगों ने ईसा मसीह की भी हत्या कर दी.''

आम इंसान का हक

भूख हड़ताल खत्म करने के बाद इरोम ने जितनी भी बातें कहीं, लब्बोलुआब था - वो एक आम इंसान हैं, लेकिन लोग उन्हें शहीद के तौर पर लेते हैं. मशहूर कवि गोपालदास नीरज का एक गीत है - "अब तो मजहब कोई ऐसा भी चलाया जाए, जिसमें इंसान को इंसान बनाया जाए,"

जब नीरज को भी आगे का रास्ता नहीं सूझता तो पूछते हैं - "आग बहती है यहां गंगा में झेलम में भी कोई बतलाए कहां जाके नहाया जाए." इरोम की भी मनोदशा तकरीबन वैसी ही होगी जैसी नीरज देखते हैं. फिर भी इरोम ने हिम्मत नहीं हारी है.

इसे भी पढें: इरोम से उम्मीदें तो बहुत हैं, बस डर है कहीं केजरीवाल न बन जाएं

भूख हड़ताल खत्म करने का फैसला तो इरोम ने काफी सोच समझ कर किया होगा, लेकिन लगता है राजनीति में उतरने का फैसला उन्होंने जल्दबाजी में कर दिया हो. वो चाहतीं तो भूख हड़ताल खत्म करने के बाद कुछ दिन ब्रेक लेकर इत्मीनान से विचार कर सकती थीं. एक बार मणिपुर का दौरा कर लोगों से मिल कर उनकी बात सुन सकती थीं. उनकी राय जानने के बाद कोई फैसला ले सकती थीं. हो सकता है चुनाव की संभावित नजदीकी तारीख के चलते उन्हें ऐसा करना पड़ा हो. लेकिन क्या उन्हें इन सबका अधिकार नहीं है.

हो सकता है इसके लिए किसी राजनीतिक दल ने उन्हें भरोसा दिलाया हो. संभव है कुछ राजनीतिक दल अब भी उनके संपर्क में हों और चुनाव में अपनी पार्टी की ओर से कुछ ऑफर कर रहे हों. वैसे अभी तक जेडीयू की तरफ से ही इरोम को घोषित तौर पर ज्वाइन करने का ऑफर मिला है. हालांकि, इरोम ने इस सिलसिले में अभी कुछ कहा नहीं है.

पिछले 16 साल में इरोम ने जिंदगी में बहुत उतार चढ़ाव देखे हैं - लोगों का प्यार देखा, दुराव देखा. लोगों को पास आते महसूस किया तो दूर जाते भी देखा. इरोम ने आंदोलन अकेले ही शुरू किया था, संघर्ष का सफर भी अकेले ही जारी रखा - और एक बार फिर उसी पड़ाव पर खड़ी हैं जहां खुद को अकेले पा रही हैं.

प्रतिपक्ष डॉट कॉम पर शंकर अर्निमेष लिखते हैं, "भारतीय कानून में जघन्य अपराध की सजा भी 14 साल कारावास है. इरोम ने तो 16 साल का कारावास काटा है. हॉस्पिटल की एक बेड पर बैठे, लेटे नाक में पाइप लगाकर. न किसी से मिलने की आजादी, न कोस्टा कॉफी पीने की आजादी. हॉस्पिटल के कॉरिडोर में ज्यादा से ज्यादा टहलने की आजादी."

शंकर अर्निमेष इसे अन्ना से जोड़ कर भी देखते हैं, "अन्ना के साथ क्या हुआ? कहीं तो इरोम के साथ भी अन्ना चैप्टर तो नहीं दुहराया जा रहा? यह किसी जन आंदोलन की त्रासदी भी है और असफलता भी लेकिन ये इरोम शर्मिला की असफलता नहीं है."

कुछ भी हो. कितने भी सवाल पूछे जायें. इरोम से कितनी भी असहमति जतायी जाये. इरोम की मुहिम थमनी नहीं चाहिये और न ही किसी को आम जिंदगी बसर करने से किसी को उन्हें रोकना चाहिये.

आनेवाली पीढ़ी के लिए इरोम का संघर्ष इतिहास का वो पन्ना होना चाहिये जो उन्हें हर कदम पर सही रास्ता बताये और भटकाव की किसी भी स्थिति में उन्हें बुरहान बनने से रोके. इसलिए इरोम को गांधी या बुरहान नहीं, इरोम ही रहने दें - और इसके लिए इरोम का जिंदा रहना जरूरी है.

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

ये भी पढ़ें

Read more!

संबंधि‍त ख़बरें

  • offline
    अब चीन से मिलने वाली मदद से भी महरूम न हो जाए पाकिस्तान?
  • offline
    भारत की आर्थिक छलांग के लिए उत्तर प्रदेश महत्वपूर्ण क्यों है?
  • offline
    अखिलेश यादव के PDA में क्षत्रियों का क्या काम है?
  • offline
    मिशन 2023 में भाजपा का गढ़ ग्वालियर - चम्बल ही भाजपा के लिए बना मुसीबत!
Copyright © 2025 Living Media India Limited. For reprint rights: Syndications Today.

Read :

  • Facebook
  • Twitter

what is Ichowk :

  • About
  • Team
  • Contact
Copyright © 2025 Living Media India Limited. For reprint rights: Syndications Today.
▲