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ब्राह्मणवाद विरोधी राज्‍य में एक ब्राह्मण नेता का देवी बन जाना

    • सुशांत झा
    • Updated: 06 दिसम्बर, 2016 01:14 PM
  • 06 दिसम्बर, 2016 01:14 PM
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जयललिता कई मामलों में एक आश्चर्य थीं और विरोधाभासों की पोटली भी- संभवत: उतनी ही जितना कि हमारा समाज है.

जयललिता कई वजहों से खास थीं. एक अधिनायकवादी किस्म की लेकिन अत्यधिक लोकप्रिय नेता जिसके समर्थक उनके जेल जाने की सूरत में अपना अंगूठा तक काटकर मंदिर में चढ़ा सकते थे. भ्रष्टाचार से आरोपों से घिरी, फिर अदालत से बरी हुई, जेल गई, चुनाव हारी और फिर फिनीक्स की तरह उठ खड़ी हुई. एक ऐसी महिला जिसने बहुत कम उम्र में अपने पिता को खो दिया हो, बोर्ड की परीक्षा में पूरे राज्य में अव्वल आई हो, कई भाषाओं का ज्ञान हो और जिसने कई भाषाओं की सैकड़ों फिल्मों में काम किया हो.

जयललिता केवल दो साल की थीं जब उनके पिता की मृत्यु हो गई थी

जयललिता कई मामलों में एक आश्चर्य थीं और विरोधाभासों की पोटली थी- संभवत: उतनी ही जितना कि हमारा समाज है.

एक ऐसे सूबे में जहां ब्राह्मणवाद के खिलाफ संभवत: पहली और निर्णायक लड़ाई ल़ड़ी गई हो, जहां ब्राह्मणवाद के विरोध का मतलब व्यवहारिक तौर पर ब्राह्मण-विरोध हो गया हो-उस सूबे में एक ब्राह्मण जयललिता का लंबे समय तक मुख्यमंत्री बने रहना भारतीय राजनीतिक इतिहास में किसी आश्चर्य से कम नहीं है.  

ये भी पढ़ें- आखिर क्यों मरने-मारने को तैयार हैं तमिलनाडु के AIADMK कार्यकर्ता

चाहे राज्य की नौकरियों और शिक्षण संस्थानों में 69 फीसदी आरक्षण का मामला हो या रामसेतु को भारत का सांस्कृतिक धरोहर मानने का मामला, जयललिता बिल्कुल दो ध्रुवों से राजनीति को संचालित...

जयललिता कई वजहों से खास थीं. एक अधिनायकवादी किस्म की लेकिन अत्यधिक लोकप्रिय नेता जिसके समर्थक उनके जेल जाने की सूरत में अपना अंगूठा तक काटकर मंदिर में चढ़ा सकते थे. भ्रष्टाचार से आरोपों से घिरी, फिर अदालत से बरी हुई, जेल गई, चुनाव हारी और फिर फिनीक्स की तरह उठ खड़ी हुई. एक ऐसी महिला जिसने बहुत कम उम्र में अपने पिता को खो दिया हो, बोर्ड की परीक्षा में पूरे राज्य में अव्वल आई हो, कई भाषाओं का ज्ञान हो और जिसने कई भाषाओं की सैकड़ों फिल्मों में काम किया हो.

जयललिता केवल दो साल की थीं जब उनके पिता की मृत्यु हो गई थी

जयललिता कई मामलों में एक आश्चर्य थीं और विरोधाभासों की पोटली थी- संभवत: उतनी ही जितना कि हमारा समाज है.

एक ऐसे सूबे में जहां ब्राह्मणवाद के खिलाफ संभवत: पहली और निर्णायक लड़ाई ल़ड़ी गई हो, जहां ब्राह्मणवाद के विरोध का मतलब व्यवहारिक तौर पर ब्राह्मण-विरोध हो गया हो-उस सूबे में एक ब्राह्मण जयललिता का लंबे समय तक मुख्यमंत्री बने रहना भारतीय राजनीतिक इतिहास में किसी आश्चर्य से कम नहीं है.  

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चाहे राज्य की नौकरियों और शिक्षण संस्थानों में 69 फीसदी आरक्षण का मामला हो या रामसेतु को भारत का सांस्कृतिक धरोहर मानने का मामला, जयललिता बिल्कुल दो ध्रुवों से राजनीति को संचालित कर रही थीं. उन पर राम मंदिर आन्दोलन में कार-सेवकों का जत्था भेजने का भी आरोप लगा. और ये सब एक ऐसे प्रदेश की नेता कर रही थी जहां पर द्रविड़ राजनीति जड़ जमाए हुए था और जहां एक जमाने में उत्तर-विरोधी, हिंदी विरोधी, आर्य-विरोधी और ब्राह्मण-विरोधी राजनीति चरम पर थी और उसकी जड़ें अभी तक सूखी नहीं हैं!

 1982 में किया था राजनीति में प्रवेश

जयललिता कई मामलों में स्वनिर्मित थीं. बहुत कम उम्र में वह अपने पिता को खो चुकी थीं. वे दसवीं बोर्ड में पूरे तमिलनाडु में अव्वल आई थीं. उन्हें कई भाषाओं का ज्ञान था और उनकी याददाश्त गजब की थी. कहते हैं अंग्रेजी पर उनके असाधारण अधिकार की वजह से ही रामचंद्रन ने उन्हें प्रोपगंडा विभाग का प्रमुख बना दिया था.

ये भी पढ़ें- जयललिता: कहानी फ़िल्मी नहीं है...

फिल्मी दुनिया से प्रसिद्धि हासिल करते हुए वे द्रविड़ राजनीति के एक धड़े में शामिल हुई थी जिसके नेता उस जमाने के मशहूर फिल्मस्टार से मुख्यमंत्री बने एम जी रामचंद्रन थे. एमजीआर, जयललिता के गाइड, मित्र और राजनीतिक गुरु थे. लेकिन रामचंद्रन की मृत्यु के बाद जयललिता को सारा कुछ थाली में परोसकर नहीं मिला. उन्हें रामचंद्रन की विधवा से राजनीतिक लड़ाई लडनी पड़ी. उन्हें द्रविड़ राजनीति की मूलधारा करुणानिधि की पार्टी डीएमके से लड़ाई लड़नी पड़ी और उन्होंने आखिरकार कांग्रेस के साथ गठबंधन कर तमिलनाडु की सत्ता हासिल कर ली.

 पुरुष वर्चस्व वाले वंशवादी समाज में अपने लिए जगह बनाई

यहां जयललिता और मायावती के राजनीतिक जीवन में हल्की सी समानता दिखती है. जयललिता के साथ भी तत्कालीन सत्ताधारी पार्टी के सदस्यों ने 'दुर्व्यवहार' किया था और मायावती के साथ भी. और दोनों ने प्रबल तरीके से इसका प्रतिकार किया था और विरोधियों को मुंहतोड़ जवाब दिया. मायावती समाजिक रूप से अछूत कही जानेवाली जाति से आती थी तो जयललिता तमिलनाडु के परिप्रेक्ष्य में राजनीतिक रूप से अछूत हो चुकी जाति से थी. दोनों के ही मशहूर गाइड, फिलोस्फर और मित्र, पुरुष राजनेता थे और दोनों ने ही अपनी योग्यता के बल पर वो उत्तराधिकार हासिल किया था. यहां वो नारी शक्ति की पुंज दिखती हैं जिसने पुरुष वर्चस्व वाले वंशवादी समाज में अपने लिए छीनकर जगह हासिल की थी.   

जयललिता द्रविड़ राजनीति में अपेक्षाकृत एक सॉफ्ट धारा का प्रतिनिधित्व करती थी जो मूल धारा से बड़ी होती गई थी. केंद्र के साथ सामंजस्य और उग्र हिंदी विरोध का परित्याग तो उनके राजनीतिक गुरु एमजी रामचंद्रन ही कर गए थे, जयललिता उससे भी आगे एक हद तक राष्ट्रवादी बल्कि कभी-कभार हिंदुत्व की राजनीति तक से तालमेल बनाने में नहीं हिचकीं.

राजनीति से इतर प्रशासनिक रूप से देखें तो सर्व-महिला पुलिस स्टेशन, बालिकाओँ के लिए क्रेडल बेबी स्कीम और अम्मा कैंटीन कुछ ऐसे काम थे जिसे लंबे समय तक याद किया जाएगा. खासकर जयललिता ने अपनी हाल की पारी में राज्य की स्वास्थ्य व्यवस्था पर खासा ध्यान दिया था.अहम बात ये भी है कि वंशवाद में आकंठ डूबे तमिल राजनीति में जयललिता वंशवाद से लगभग मुक्त थीं.

 सितंबर 2016 से अस्पताल में भर्ती थीं जयललिता

जनता और राजनेता के बीच में एकात्मकता अगर देखनी हो तो जयललिता के समर्थकों का इस वक्त गौर से अध्ययन किया जाना चाहिए. यह एक विशद राजनीतिक-सामाजिक शोध का विषय है कि खासकर तमिलनाडु में ऐसा किस तरह से मौजूद है. आने वाली पीढ़ी यकीन नहीं करेगी कि जयललिता के समर्थक उन्माद, श्रद्धा, भक्ति और दीवानगी की हद तक कैसे उनका समर्थन करते थे. संभवत: इसका जवाब तमिलनाडु की क्षेत्रीय लेकिन जनकल्याणकारी पार्टियों और भाषाई रूप से चौकन्ने समाज में है जहां पर पर्दे के नायक और दर्शकों की भाषा में कोई फर्क नहीं होता. तमिलनाडु में कामराज, अन्नादुरई और एमजी रामचंद्रन की एक मजबूत परंपरा रही है जिन्होंने जनकल्याणकारी कार्यों की एक श्रृंखला प्रस्तुत की थी. जयललिता के जनकल्याणकारी कार्य उसी कड़ी के हिस्सा थे और अपने पूर्ववर्तियों सी ही लोकप्रियता ने उन्हें अम्मा बना दिया.

निश्चय ही द्रविड़ राजनीति के एक युग का अंत हो गया है. 

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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