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सियासत

राख के भीतर अब भी ताजा है मुजफ्फरनगर दंगों की आग

    • संजय शर्मा
    • Updated: 20 जनवरी, 2017 09:24 PM
  • 20 जनवरी, 2017 09:24 PM
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मुजफ्फरनगर दंगों के बाद संसदीय क्षेत्र का दौरा कर ये तो समझ आ गया कि वहां मौजूद निवासियों की मानसिक स्थिती क्या है. लोगों के जख्म हरे तो हैं, लेकिन अब दिखते नहीं.

सवा तीन साल पहले बने दंगों के ज़ख्म कितने भरे हैं और कितने हरे, इसका पता विधान सभा चुनाव में चलेगा. हम पहुंचे मुज़फ्फरनगर के पास गांव कवाल. यहीं से शुरु हुआ था सवा तीन साल पहले दंगों का बवाल. हालाँकि, यहां तो तब भी ख़ामोशी थी और अब भी, लेकिन लोग जब मुखर होते हैं तो ये भरोसा जगता है कि हिन्दुतान की आत्मा गाँवों में ही बसी है. मोहम्मद इलियास दंगों के साए से निकलने के सवाल पर तपाक से कहते हैं कि वो पुरानी बात हो गई. दंगों की शुरुआत की वजह यहां ज़रूर थी लेकिन जब पूरा इलाका जला तो यहां कोई तनाव नहीं था.

हाजी मतलूब तो अपने खानदान में हुई शादी का हवाला देते हुए कहते हैं कि सब शादी में आए हैं. हम भी सबके यहाँ आते जाते हैं. कहीं कोई वैसी बात नहीं है जैसा लोग सोचते होंगे. इसी गाँव के चौक पर साईकिल सवार यासीन कहता है दंगे तो नेता कराते हैं. जनता तो मेल चाहती है. जनता का सपना खुशहाल और सुरक्षित ज़िंदगी होता है और ऐसे ही सपनों के सौदागर सारे नेता है. इस इलाके में लोगों से मिलकर लगता है कि एक साईकिल सवार व्यापारी यहां पहले अपना माल बेच गया.

 मुजफ्फरनगर दंगा पीड़ितों के जख्म अभी भरे नहीं हैं.

फुगाना और शामली में भी लोग दंगों की चर्चा करने पर सीधे कहते हैं कि अब हमारी बारी है. जिन्होंने हमें इस दशा में ला कर छोड़ा उन्हें हम भूले नहीं हैं. यानि, वक्त का मरहम लगने के बाद अब ज़ख्म हरे नहीं हैं तो भरे भी नहीं हैं. कहने को तो हर कोई कह रहा है कि दंगों का असर तो तीन चार महीने में ही खत्म हो गया. पर अंदर उठती टीस की वजह से दबी ज़बान से निकले जुमले कह जाते हैं कि ज़ख्म गहराई तक हैं. वक्त लगेगा दिलों से दिलों की लम्बी दूरी तय करने...

सवा तीन साल पहले बने दंगों के ज़ख्म कितने भरे हैं और कितने हरे, इसका पता विधान सभा चुनाव में चलेगा. हम पहुंचे मुज़फ्फरनगर के पास गांव कवाल. यहीं से शुरु हुआ था सवा तीन साल पहले दंगों का बवाल. हालाँकि, यहां तो तब भी ख़ामोशी थी और अब भी, लेकिन लोग जब मुखर होते हैं तो ये भरोसा जगता है कि हिन्दुतान की आत्मा गाँवों में ही बसी है. मोहम्मद इलियास दंगों के साए से निकलने के सवाल पर तपाक से कहते हैं कि वो पुरानी बात हो गई. दंगों की शुरुआत की वजह यहां ज़रूर थी लेकिन जब पूरा इलाका जला तो यहां कोई तनाव नहीं था.

हाजी मतलूब तो अपने खानदान में हुई शादी का हवाला देते हुए कहते हैं कि सब शादी में आए हैं. हम भी सबके यहाँ आते जाते हैं. कहीं कोई वैसी बात नहीं है जैसा लोग सोचते होंगे. इसी गाँव के चौक पर साईकिल सवार यासीन कहता है दंगे तो नेता कराते हैं. जनता तो मेल चाहती है. जनता का सपना खुशहाल और सुरक्षित ज़िंदगी होता है और ऐसे ही सपनों के सौदागर सारे नेता है. इस इलाके में लोगों से मिलकर लगता है कि एक साईकिल सवार व्यापारी यहां पहले अपना माल बेच गया.

 मुजफ्फरनगर दंगा पीड़ितों के जख्म अभी भरे नहीं हैं.

फुगाना और शामली में भी लोग दंगों की चर्चा करने पर सीधे कहते हैं कि अब हमारी बारी है. जिन्होंने हमें इस दशा में ला कर छोड़ा उन्हें हम भूले नहीं हैं. यानि, वक्त का मरहम लगने के बाद अब ज़ख्म हरे नहीं हैं तो भरे भी नहीं हैं. कहने को तो हर कोई कह रहा है कि दंगों का असर तो तीन चार महीने में ही खत्म हो गया. पर अंदर उठती टीस की वजह से दबी ज़बान से निकले जुमले कह जाते हैं कि ज़ख्म गहराई तक हैं. वक्त लगेगा दिलों से दिलों की लम्बी दूरी तय करने में.

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ये सच है कि चुनाव इस टीस के इज़हार की असली कसौटी होंगे. जिस पर हर नेता अपनी सियासत परखेगा. उसके लिए इतिहास भी खंगाले जा रहे हैं. यानि टटोला जा रहा है कि कब किसने क्या कहा था. सरधना के बीजेपी विधायक संगीत सोम दंगों के आरोप पर अपनी सफाई देते हुए ये ज़रूर कहते हैं कि अब तक कोई चार्जशीट फाइल नहीं की गई है. कोई सबूत पेश नहीं किया हमारे खिलाफ आरोप की तस्दीक में. लेकिन लगे हाथ ये कहने से भी नहीं चूकते कि दंगों के समय मुलायम सिंह ने कहा था कि दंगे जाट मुस्लिम की लड़ाई थी. तो अब मुलायम वो सब क्यों नहीं कहते?

शामली से कांग्रेस विधायक पंकज मलिक दंगों की राजनीति करने का इलज़ाम बीजेपी पर लगाते हैं. उनका कहना है कि जनता को भी इसका बेहतर पता है कि दंगों के पीछे किसकी खता है. इस पूरे सर्कस में दंगा पीड़ित कैप की सोच और हालत सबसे अलग है. यहां दंगों का दर्द नहीं मुआवज़े की ख़ुशी दिखती है इनके चेहरों पर. किसने अपनी ज़मीन से उजाड़ कर यहां तक पहुंचाया उससे शिकायत नहीं. यहां रहने की जगह.. मकान और दालान बन गए ... मुआवजा मिल गया इससे खुश हैं.

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शाहपुर के पास लोई गाँव में दंगा पीड़ित राहत कैप में रहने वालों को सरकार ने यहीं रहने की जगह और मकान फ्री में बनवा दिये. इरफ़ान मिले दो तगड़ी भैंसों की सानी पानी में मशगूल. पूछने पर बोले सरकार ने करा हमारे लिये. हम तो उन्हीं के पीछे हैं. जब सवाल किया कि दंगों का जिम्मेदार कौन था तो जवाब टालते हुए सिर्फ इतना कहा कि अब उन बातों पर सोचकर क्या फायदा? हम अब तो सुखी हैं.

इस कॉलोनी से बाहर निकले तो एक चांदीदार दाढ़ी वाले साहब बोल पड़े- जिनसे आप बात करके निकले इनका क्या भरोसा है रिपोर्टर साहब! ये तो अपना एक और आदमी मरवाने को तैयार हैं अगर मुआवजा मिले तो. जिन गाँवों से ये आये वहां तो दंगा फसाद भी नहीं हुए. इनके वहां के झोपड़े भी देख आओ आप. यहां तो इनकी ऐश कट रही है.

ये सज्जन बोल रहे हैं पर इरफ़ान अपनी भैंस दुहने में मशगूल है. दोनों रोज़ 18 लीटर दूध देती है. पश्चिमी यूपी के इस दंगा सियासी इलाके में घूम कर तो यही पता चलता है कि यहां दरअसल दुहने की सियासत ही चल रही है. हर कोई मौके के इंतज़ार में अपना बछड़ा लिए डोल रहा है. जैसे ही मौका लगा लपक कर थनों के नीचे अपना बछड़ा लगाओ और दूध निकाल लो. सियासी दुहने में कौन सा सुबह शाम दूध आएगा. अबकी दुह लिया तो अगले पांच साल तक चैन.

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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