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ममता की मुश्किल माया-मुलायम नहीं बल्कि केजरीवाल जैसी है

    • आईचौक
    • Updated: 23 मार्च, 2017 01:07 PM
  • 23 मार्च, 2017 01:07 PM
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नारदा स्टिंग चुनाव के ऐन पहले सामने आया था और इसीलिए उसके पीछे राजनीतिक मंशा लोगों को समझाने में ममता कामयाब रहीं - लेकिन जब कोर्ट को मामला गंभीर लगता है तो ममता को भी जरूर गौर करना चाहिये.

अवाम को बहकाना मुश्किल है, लेकिन अदालत को गुमराह करना नामुमकिन है. ममता बनर्जी ने मुश्किल काम तो कर लिया लेकिन नामुमकिन तो नामुमकिन होता है, भला वो कोई कैसे कर सकता है? नारदा स्टिंग केस में ममता बनर्जी के साथ यही हुआ है.

नारदा स्टिंग के वीडियो तब सामने आये थे जब 2016 के पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव में दो महीने बचे थे - लेकिन ममता ने बड़ी मजबूती से उन्हें झूठा बताते हुए लोगों को भरोसा दिला दिया और 211 (कुल 294) सीटें जीत कर सरकार भी बना ली. बावजूद इसके इस केस की सीबीआई जांच रोकने में नाकाम हो गईं.

नोटबंदी से लेकर ईवीएम तक, केंद्र की बीजेपी सरकार से मोर्चा लेतीं ममता बनर्जी को ये जरा भी फिक्र नहीं कि सीबीआई खुद उनका कुछ बिगाड़ लेगी - बल्कि उन्हें चिंता अपने नेताओं की है. इस बात से तो वो निश्चिंत होंगी कि उन्हें मायावती या मुलायम की तरह कोई नचा सकता है - लेकिन अपने नेताओं का बचाव कैसे करें, ये शायद समझ में नहीं आ रहा होगा.

ममता की मुश्किल

अगर अदालत से मदद न मिली होती तो नारदा न्यूज के सीईओ मैथ्यू सैमुअल तृणमूल कांग्रेस के नेताओं के खिलाफ स्टिंग का खामियाजा सलाखों के पीछे भुगत रहे होते. जेल जाने से तो बच गये लेकिन सैमुअल को अब धमकियां मिलने लगी हैं.

पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी की दोबारा जीत के बाद सैमुअल के खिलाफ आपराधिक मामला दर्ज उन्हें अफसरों ने तलब भी कर लिया था. जब फोरेंसिक जांच में वीडियो सही पाये गये तो अदालत को हस्तक्षेप करने का मौका मिला - और फिर मामला सीबीआई जांच तक पहुंच पाया.

ममता की मुश्किल ये है कि रोज वैली चिट फंड स्कैम में उनके दो सांसद सुदीप बंदोपाध्याय और तपस पाल पहले से ही जेल में हैं - और अब नारदा स्टिंग में फंसे नेताओं पर भी गिरफ्तारी की तलवार लटकने वाली है.

दिलचस्प बात ये है कि स्टिंग में फंसने के बावजूद उनमें से जो टीएमसी नेता चुनाव लड़े, ममता के प्रचार से भारी बहुत से जीते - और फिर उन्हें कैबिनेट में भी शामिल कर लिया गया. अब वो सभी जांच के लपेटे...

अवाम को बहकाना मुश्किल है, लेकिन अदालत को गुमराह करना नामुमकिन है. ममता बनर्जी ने मुश्किल काम तो कर लिया लेकिन नामुमकिन तो नामुमकिन होता है, भला वो कोई कैसे कर सकता है? नारदा स्टिंग केस में ममता बनर्जी के साथ यही हुआ है.

नारदा स्टिंग के वीडियो तब सामने आये थे जब 2016 के पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव में दो महीने बचे थे - लेकिन ममता ने बड़ी मजबूती से उन्हें झूठा बताते हुए लोगों को भरोसा दिला दिया और 211 (कुल 294) सीटें जीत कर सरकार भी बना ली. बावजूद इसके इस केस की सीबीआई जांच रोकने में नाकाम हो गईं.

नोटबंदी से लेकर ईवीएम तक, केंद्र की बीजेपी सरकार से मोर्चा लेतीं ममता बनर्जी को ये जरा भी फिक्र नहीं कि सीबीआई खुद उनका कुछ बिगाड़ लेगी - बल्कि उन्हें चिंता अपने नेताओं की है. इस बात से तो वो निश्चिंत होंगी कि उन्हें मायावती या मुलायम की तरह कोई नचा सकता है - लेकिन अपने नेताओं का बचाव कैसे करें, ये शायद समझ में नहीं आ रहा होगा.

ममता की मुश्किल

अगर अदालत से मदद न मिली होती तो नारदा न्यूज के सीईओ मैथ्यू सैमुअल तृणमूल कांग्रेस के नेताओं के खिलाफ स्टिंग का खामियाजा सलाखों के पीछे भुगत रहे होते. जेल जाने से तो बच गये लेकिन सैमुअल को अब धमकियां मिलने लगी हैं.

पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी की दोबारा जीत के बाद सैमुअल के खिलाफ आपराधिक मामला दर्ज उन्हें अफसरों ने तलब भी कर लिया था. जब फोरेंसिक जांच में वीडियो सही पाये गये तो अदालत को हस्तक्षेप करने का मौका मिला - और फिर मामला सीबीआई जांच तक पहुंच पाया.

ममता की मुश्किल ये है कि रोज वैली चिट फंड स्कैम में उनके दो सांसद सुदीप बंदोपाध्याय और तपस पाल पहले से ही जेल में हैं - और अब नारदा स्टिंग में फंसे नेताओं पर भी गिरफ्तारी की तलवार लटकने वाली है.

दिलचस्प बात ये है कि स्टिंग में फंसने के बावजूद उनमें से जो टीएमसी नेता चुनाव लड़े, ममता के प्रचार से भारी बहुत से जीते - और फिर उन्हें कैबिनेट में भी शामिल कर लिया गया. अब वो सभी जांच के लपेटे में आने वाले हैं.

ममता का स्टैंड

ममता के स्टैंड से एक ही बात नहीं समझ आती? वो अपने नेताओं का बचाव करने की बजाये उन्हें जांच एजेंसियों का सामना क्यों नहीं करने देतीं. आखिर जांच का आदेश केंद्र सरकार ने तो दिया नहीं है जिस पर उन्हें यकीन नहीं. नारदा स्टिंग में सीबीआई जांच का आदेश को कलकत्ता हाई कोर्ट का है - ऊपर से सुप्रीम कोर्ट ने भी ममता सरकार की दलील खारिज कर दी है. कोर्ट ने उनकी एसआईटी से जांच की मांग भी ठुकरा दी है.

आखिर ममता ने जनता की अदालत से उन्हें बाइज्जत विधानसभा पहुंचाया, लेकिन अगर कोर्ट को लगता है कि मामला गंभीर है और उसे अदालती कानूनी प्रक्रिया से गुजरना चाहिये.

वैसे भी ममता को सीबीआई पर यकीन न होने की अपनी दलील हो सकती है - लेकिन कोर्ट पर भरोसा न होने जैसा तो कुछ नहीं होना चाहिये. फिर भी अगर लगता है कि सीबीआई की चाबुक उनके नेताओं पर बेवजह चल सकती है तो वो कोर्ट से जांच की निगरानी की गुजारिश कर सकती हैं - या फिर कोर्ट से मिलने वाली किसी भी कानूनी मदद के लिए गुजरिश कर सकती हैं.

लेकिन एक बात नहीं समझ आती - बरसों से साधारण साड़ी और हवाई चप्पल पहनने वाली ममता बनर्जी ऐसे नेताओं का बचाव क्यों करती हैं जिन पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप हैं.भ्रष्टाचार से खुद दूर रहने का मतलब ये थोड़े ही न हुआ कि बाकियों को इसकी खुली छूट देने की छूट मिल जाये.

मनमोहन सिंह पर भी आज तक किसी ने उंगली नहीं उठायी, लेकिन उनकी नाक के नीचे जो कुछ होता रहा उसकी जिम्मेदारी से वो कैसे बच सकते हैं? यही बात ममता पर भी लागू होती है.

हो सकता है कि ममता को अपने नेताओं पर भरोसा हो कि वो कोई गलत काम नहीं करते होंगे, लेकिन वे उनका भरोसा तोड़ कर अगर गलत कर रहे हैं, फिर भी ममता को इसका आभास नहीं फिर तो ऊपरवाला ही मालिक है.

ऐसा भी हो सकता है कि ममता भी केजरीवाल की तरह अपने नेताओं को तब तक बचाने की कोशिश कर रही हों जब तक उन्हें खुद उनकी गलतियों पर यकीन न हो जाये - या फिर उनके पास बचाव का कोई रास्ता न बच पा रहा हो. दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने अपने कानून मंत्री जितेंद्र सिंह तोमर के मामले में शुरू में तो दिल्ली पुलिस से लेकर मोदी तक पर वो परेशान करने का आरोप लगाते रहे - लेकिन जब कोई रास्ता न बचा तो खुद ही बर्खास्त कर क्रेडिट लेने की कोशिश की.

नारदा स्टिंग चुनाव के ऐन पहले सामने आया था और इसीलिए उसके पीछे राजनीतिक मंशा लोगों को समझाने में ममता कामयाब रहीं - लेकिन जब कोर्ट को मामला गंभीर लगता है तो ममता को भी जरूर गौर करना चाहिये.

बेहतर तो यही होता कि ममता अपने नेताओं को जांच का सामना करने देतीं और उस दिन का इंतजार करतीं जब उनका भरोसा कायम रखते हुए वो पाक साफ होकर निकलते.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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