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सियासत

तमिलनाडु के घटनाक्रम 'फेमिली पॉलिटिक्स' के लिए खतरे का संकेत हैं

    • मृगांक शेखर
    • Updated: 21 अप्रिल, 2017 10:38 AM
  • 21 अप्रिल, 2017 10:38 AM
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क्या तमिलनाडु की राजनीति के मौजूदा घटनाक्रम का उत्तर भारत की राजनीति पर भी कोई असर हो सकता है? क्या तमिलनाडु के घटनाक्रम 'फेमिली पॉलिटिक्स' के लिए किसी खतरे का संकेत है?

उत्तर प्रदेश और तमिलनाडु भले ही देश के अलग अलग छोर पर हों, लेकिन दोनों राज्यों की राजनीति में कई बातें कॉमन देखने को मिलती हैं. नेहरू-गांधी परिवार से थोड़ा आगे बढ़ कर देखें तो यूपी का समाजवादी परिवार सबको पीछे छोड़ता नजर आएगा - उसी तरह तमिलनाडु में करुणानिधि परिवार का दबदबा रहा है, सत्ता में होना न होना अलग फैक्टर है.

यूपी चुनाव के दौरान मुलायम परिवार का झगड़ा और तमिलनाडु में जयललिता की विरासत पर जंग में घटनाक्रम और पात्र दोनों तकरीबन एक जैसे नजर आये.

क्या तमिलनाडु की राजनीति के मौजूदा घटनाक्रम का उत्तर भारत की राजनीति पर भी कोई असर हो सकता है? क्या तमिलनाडु के घटनाक्रम 'फेमिली पॉलिटिक्स' के लिए किसी खतरे का संकेत है?

एक जैसी सियासत और किरदार

यूपी और तमिलनाडु की राजनीति में कॉमन फैक्टर देखना हो तो थोड़ा पीछे लौटना होगा. याद कीजिए जब यूपी में समाजवादी पार्टी का झगड़ा चरम पर था - और दूसरी तरफ तमिलनाडु में जयललिता के निधन के बाद सत्ता और AIADMK के विरासत की जंग छिड़ी हुई थी.

क्या फेमिली पॉलिटिक्स पर किसी खतरे का अंदेशा है...

जिस तरह यूपी में दोनों गुट एक दूसरे के साथ शह-मात का खेल खेल रहा था, उसी तरह तमिलनाडु में शशिकला और ओ पनीरसेल्वम के समर्थक अलग अलग गदर मचाये हुए थे. अगर दोनों राज्यों के सियासी किरदारों की बात करें तो उस वक्त यूपी में अमर सिंह छाये हुए थे तो तमिलनाडु में नटराजन का नाम चर्चा में था. हालांकि, बाद ये दोनों हाशिये पर चले गये और फिर धीरे धीरे ओझल भी होते गये. तब यूपी में कर्ताधर्ता मुलायम सिंह यादव रहे तो उनके भाई शिवपाल यादव साये की तरह उनके साथ रहे. उधर, तमिलनाडु में शशिकला के साथ उनके भांजे टीटीवी दिनाकरन जमे रहे. सियासत के इस ड्रामे में लीड रोल में थे अखिलेश...

उत्तर प्रदेश और तमिलनाडु भले ही देश के अलग अलग छोर पर हों, लेकिन दोनों राज्यों की राजनीति में कई बातें कॉमन देखने को मिलती हैं. नेहरू-गांधी परिवार से थोड़ा आगे बढ़ कर देखें तो यूपी का समाजवादी परिवार सबको पीछे छोड़ता नजर आएगा - उसी तरह तमिलनाडु में करुणानिधि परिवार का दबदबा रहा है, सत्ता में होना न होना अलग फैक्टर है.

यूपी चुनाव के दौरान मुलायम परिवार का झगड़ा और तमिलनाडु में जयललिता की विरासत पर जंग में घटनाक्रम और पात्र दोनों तकरीबन एक जैसे नजर आये.

क्या तमिलनाडु की राजनीति के मौजूदा घटनाक्रम का उत्तर भारत की राजनीति पर भी कोई असर हो सकता है? क्या तमिलनाडु के घटनाक्रम 'फेमिली पॉलिटिक्स' के लिए किसी खतरे का संकेत है?

एक जैसी सियासत और किरदार

यूपी और तमिलनाडु की राजनीति में कॉमन फैक्टर देखना हो तो थोड़ा पीछे लौटना होगा. याद कीजिए जब यूपी में समाजवादी पार्टी का झगड़ा चरम पर था - और दूसरी तरफ तमिलनाडु में जयललिता के निधन के बाद सत्ता और AIADMK के विरासत की जंग छिड़ी हुई थी.

क्या फेमिली पॉलिटिक्स पर किसी खतरे का अंदेशा है...

जिस तरह यूपी में दोनों गुट एक दूसरे के साथ शह-मात का खेल खेल रहा था, उसी तरह तमिलनाडु में शशिकला और ओ पनीरसेल्वम के समर्थक अलग अलग गदर मचाये हुए थे. अगर दोनों राज्यों के सियासी किरदारों की बात करें तो उस वक्त यूपी में अमर सिंह छाये हुए थे तो तमिलनाडु में नटराजन का नाम चर्चा में था. हालांकि, बाद ये दोनों हाशिये पर चले गये और फिर धीरे धीरे ओझल भी होते गये. तब यूपी में कर्ताधर्ता मुलायम सिंह यादव रहे तो उनके भाई शिवपाल यादव साये की तरह उनके साथ रहे. उधर, तमिलनाडु में शशिकला के साथ उनके भांजे टीटीवी दिनाकरन जमे रहे. सियासत के इस ड्रामे में लीड रोल में थे अखिलेश यादव और पनीरसेल्वम. ये दोनों ही उस वक्त मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठे थे, लेकिन दोनों को कुर्सी गंवानी पड़ी. एक बार फिर ये दोनों ही फ्रंट पर नजर आते हैं, जबकि बाकी किरदार मेनस्ट्रीम से बाहर जा चुके हैं.

फेमिली पॉलिटिक्स पर खतरे के संकेत

फेमिली पॉलिटिक्स में लेटेस्ट एंट्री मायावती ने की है. मायावती ने बीएसपी में अपने भाई आनंद कुमार को लाकर साफ कर दिया कि भरोसा सिर्फ परिवार के लोगों पर ही किया जा सकता है. ठीक वैसे ही जैसे जेल जाने से पहले शशिकला नटनाजन ने अपने भांजे टीटीवी दिनाकरन को डिप्टी महासचिव बनाकर किया था.

समाजवादी पार्टी की ही तरह बिहार में राष्ट्रीय जनता दल को भी उन दिनों बड़े संकट से गुजरना पड़ा था जब लालू प्रसाद रांची जेल में बंद थे. पहले तो लालू के साले साधु यादव पार्टी पर नजर गड़ाये हुए थे. बाद में पप्पू यादव भी वारिस बनने के चक्कर में पड़े रहे. चारा घोटाले में जब लालू पहली बार जेल गये थे तब राबड़ी देवी मुख्यमंत्री थीं और उनकी मदद के लिए सलाहकारों की अच्छी खासी टीम थी, लेकिन दूसरी बार सब कुछ दांव पर था तब मीसा भारती और तेजस्वी यादव ही मोर्चा संभाले हुए थे.

कांग्रेस की तो गांधी परिवार के बगैर कल्पना भी नहीं की जा सकती, लेकिन वहां भी विरोध की आवाजें उठती रही हैं. राहुल गांधी के अध्यक्ष नहीं बन पाने में कुछेक मौकों पर ये बात भी आड़े आई है. कांग्रेस में ही अमरिंदर सिंह जैसे नेता राहुल का विरोध करते हैं और उन्हें अपने मनपसंद नेता को हटाने को मजबूर करते हैं - तो हिमंता बिस्वा सरमा जैसे नेता भी हैं कि जब देखते हैं कि राहुल गांधी को उनकी बातों से ज्यादा मजा डॉगी के साथ खेलने में है तो बीजेपी का दामन थाम लेते हैं - और अब नॉर्थ ईस्ट को कांग्रेस मुक्त करने के मिशन पर निकल पड़े हैं. कांग्रेस नेता बरखा शुक्ला सिंह ने तो राहुल गांधी को सीधे सीधे टारगेट किया है.

मायावती अब तक अपने परिवार को राजनीति से दूर रखती रहीं, लेकिन अब बीएसपी उपाध्यक्ष बन चुके उनके भाई को मायावती के उत्तराधिकारी के तौर पर देखा जा रहा है. मुलायम की ही तरह फेमिली पॉलिटिक्स में शामिल हो चुकीं मायावती के अलावा बिहार में लालू प्रसाद यादव राजनीति में परिवारवाद के बड़े नमूदार हैं. नेहरू-गांधी परिवार तो इस मामले में पूरी दुनिया में मशहूर है. पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी के भतीजे को भी आगे चल कर उनके उत्तराधिकारी के तौर पर देखा जाता है. वैसे तो आरएलडी, एनसीपी, टीडीपी, जेडीएस, आईएनएलडी और टीआरएस जैसी पार्टियों में परिवार का ही दबदबा है, लेकिन तमिलनाडु से जो बदली बयार बह रही है उसके संभावित नतीजे कुछ भी हो सकते हैं.

शशिकला ने जेल जाने से पहले पनीरसेल्वम से सत्ता की सारी शक्तियां छीन ली और उन्हें हर तरीके से पार्टी से भी बेदखल कर दिया. AIADMK की कमान भी उन्होंने अपने भांजे टीटीवी दिनाकरन को सौंप दिया और ई पलानीसामी जैसे अपने भरोसेमंद नेता को मुख्यमंत्री बनाया. ज्यादा दिन नहीं बीता और सीएम पलानीसामी और पनीरसेल्वम गुट आपस में मिल गये और दिनाकरन और शशिकला के परिवार का वर्चस्व खत्म करने के लिए हाथ मिला लिया. हालांकि, अभी कई पेंच फंसे हुए भी हैं.

मायावती ने भले ही शशिकला की तरह सेफ्टी वॉल्व लगाया हो - लेकिन तमिलनाडु की सियासी मिसाल देख कर तो लगता है कि कार्यकर्ता अगर तय कर लें तो पार्टी पर किसी परिवार का कब्जा कुछ समय तक भले ही कायम रहे - हमेशा के लिए नामुमकिन है. इस व्यवस्था में यकीन रखने वाले राजनीतिक दलों के लिए ये एक बड़ा सबक है.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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