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दिल्ली, बिहार और उत्तराखंड के नतीजे एक जैसे क्यों लगते हैं?

    • आईचौक
    • Updated: 22 अप्रिल, 2016 05:26 PM
  • 22 अप्रिल, 2016 05:26 PM
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सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले से मोदी सरकार फौरी राहत जरूर महसूस कर रही होगी. इसका मतलब ये नहीं कि सरकार की जो फजीहत हुई वो पूरी तरह खत्म हो गई - पिक्चर अभी बाकी है.

सुप्रीम कोर्ट ने उत्तराखंड पर हाई कोर्ट के फैसले पर 27 अप्रैल तक रोक लगा दी है - और तब तक उत्तराखंड में राष्ट्रपति शासन लागू रहेगा. यानी, हरीश रावत मुख्यमंत्री नहीं माने जाएंगे. कांग्रेस नेता मनीष तिवारी का कहना है कि वो सुप्रीम कोर्ट में अपना पक्ष रखेंगे और 29 अप्रैल को हरीश रावत बहुमत साबित करेंगे. ऐसा तभी संभव होगा जब सुप्रीम कोर्ट राष्ट्रपति शासन हटाकर रावत को ये मौका बख्श दे.

सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले से मोदी सरकार फौरी राहत जरूर महसूस कर रही होगी. इसका मतलब ये नहीं कि सरकार की जो फजीहत हुई वो पूरी तरह खत्म हो गई - पिक्चर अभी बाकी है.

डायरेक्ट दिल्ली से

वैसे तो उत्तराखंड का मामला अरुणाचल के करीब लगता है, लेकिन रिश्ता दिल्ली और बिहार से ज्यादा करीब प्रतीत हो रहा है. दिल्ली और बिहार में केंद्र की सत्ताधारी पार्टी को मुहंकी खानी ही पड़ी थी - उत्तराखंड के मामले में भी सुप्रीम कोर्ट से राहत नहीं मिलती तो मालूम नहीं क्या हाल होता.

इसे भी पढ़ें: खामोश, महामहिम राष्ट्रपति भी गलत फैसले ले सकते हैं!

खबरें बता रही हैं कि अरुणाचल प्रदेश सरकार में बीजेपी साझीदार बनने की कोशिश में है - बस आलाकमान की हरी झंडी का इंतजार है. खबरें ये भी बता रही हैं कि उत्तराखंड में भी अरुणाचल जैसी ही तैयारी थी - लेकिन ऐन पहले नैनीताल हाई कोर्ट के इंसाफ का हथौड़ा पड़ गया.

कोई बात नहीं, कुछ करते हैं...

केंद्रीय नेतृत्व...

सुप्रीम कोर्ट ने उत्तराखंड पर हाई कोर्ट के फैसले पर 27 अप्रैल तक रोक लगा दी है - और तब तक उत्तराखंड में राष्ट्रपति शासन लागू रहेगा. यानी, हरीश रावत मुख्यमंत्री नहीं माने जाएंगे. कांग्रेस नेता मनीष तिवारी का कहना है कि वो सुप्रीम कोर्ट में अपना पक्ष रखेंगे और 29 अप्रैल को हरीश रावत बहुमत साबित करेंगे. ऐसा तभी संभव होगा जब सुप्रीम कोर्ट राष्ट्रपति शासन हटाकर रावत को ये मौका बख्श दे.

सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले से मोदी सरकार फौरी राहत जरूर महसूस कर रही होगी. इसका मतलब ये नहीं कि सरकार की जो फजीहत हुई वो पूरी तरह खत्म हो गई - पिक्चर अभी बाकी है.

डायरेक्ट दिल्ली से

वैसे तो उत्तराखंड का मामला अरुणाचल के करीब लगता है, लेकिन रिश्ता दिल्ली और बिहार से ज्यादा करीब प्रतीत हो रहा है. दिल्ली और बिहार में केंद्र की सत्ताधारी पार्टी को मुहंकी खानी ही पड़ी थी - उत्तराखंड के मामले में भी सुप्रीम कोर्ट से राहत नहीं मिलती तो मालूम नहीं क्या हाल होता.

इसे भी पढ़ें: खामोश, महामहिम राष्ट्रपति भी गलत फैसले ले सकते हैं!

खबरें बता रही हैं कि अरुणाचल प्रदेश सरकार में बीजेपी साझीदार बनने की कोशिश में है - बस आलाकमान की हरी झंडी का इंतजार है. खबरें ये भी बता रही हैं कि उत्तराखंड में भी अरुणाचल जैसी ही तैयारी थी - लेकिन ऐन पहले नैनीताल हाई कोर्ट के इंसाफ का हथौड़ा पड़ गया.

कोई बात नहीं, कुछ करते हैं...

केंद्रीय नेतृत्व ने पश्चिम बंगाल चुनाव में व्यस्त कैलाश विजयवर्गीय को आनन फानन में दिल्ली बुला लिया - और रणनीति तैयार होने लगी. सतपाल महाराज और भगत सिंह कोश्यारी को विधायकों का ख्याल रखनेवाली ड्यूटी पर लगा दिया गया.

लेकिन इन सबके बीच स्थानीय नेताओं की परवाह किसी को नहीं रही. बीजेपी का ये फैसला उस पर हमेशा भारी पड़ता है - उत्तराखंड में भी तकरीबन ऐसा ही रहा.

स्थानीय बोले तो?

दिल्ली विधानसभा चुनाव में स्थानीय नेताओं को जितना भी नजरअंदाज किया जा सकता था, किया गया. बिहार चुनाव में भी स्थानीय नेता आखिर तक कन्फ्यूज रहे - कई जगह तो ऐसा लग रहा था जैसे सिविल पुलिस को पैरा मिलिट्री फोर्स को रिपोर्ट करने को बोल दिया गया है. अब ऐसी हालत में जो होने की आशंका थी वही हुआ. यहां तक कि नतीजा आने के बाद हार का ठीकरा भी उन्हीं पर फोड़ने की कोशिश हुई. जब कुछ स्थानीय नेता खड़े हुए और मार्गदर्शक मंडल ने भी दबाव बनाया तब जाकर मामला रफादफा वाले अंदाज में शांत हुआ.

अपनी फेसबुक पोस्ट में वरिष्ठ पत्रकार शंकर अर्निमेष लिखते हैं, "राज्य के एक बड़े नेता को फोन लगाते ही मैंने पूछा ये क्या हो गया सर? जवाब आया ये तो होना ही था. राज्य के नेताओं को बिना विश्वास में लिए केन्द्र ने ये फैसला लिया. उनसे ही पूछो. भावार्थ साफ था अगर सुप्रीम कोर्ट से स्टे नहीं मिला तो कहीं के नहीं रहेंगे यानि न खुदा मिला न बिसाले सनम."

इसे भी पढ़ें: अरुणाचल के बाद मणिपुर संकट की वजह बीजेपी है या खुद कांग्रेस?

शंकर अर्निमेष ने इस सिलसिले में बीजेपी के कई नेताओं से बातचीत का जिक्र किया है और बताया है कि किस तरह उन्हें कोर्ट से तो कतई ऐसी उम्मीद नहीं थी. जाहिर है, अब पूरी उम्मीद सुप्रीम कोर्ट से होगी.

इस बीच मौका मिलते ही हरीश रावत जल्दी जल्दी कैबिनेट की बैठक बुलाकर ताबड़तोड़ फैसले किये. कैबिनेट की बैठक में रावत सरकार ने अतिथि शिक्षकों का मानदेय 15 हजार महीने करते हुए उनकी नियुक्ति एक साल के लिए कर दी. समाज कल्याण से जुड़ी सभी पेंशन 200 रुपये बढ़ा दी गई. साथ ही, मलिन बस्ती के सभी पट्टेधारकों को मालिकाना हक देने का फैसला किया गया.

कोर्ट के फैसले पर हरीश रावत ने प्रेस कांफ्रेंस बुलाई और पूरा मजा लेते हुए मन की बात कही, "हम झगड़ा नहीं करना चाहते... वे ताकतवर और चौड़ी छाती वाले हैं."

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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