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ऊट पटांग चुनावी प्रतियोगिता के चमकते सितारे

    • मौसमी सिंह
    • Updated: 05 मार्च, 2017 11:45 AM
  • 05 मार्च, 2017 11:45 AM
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ऊट पटांग भाषण और तल्ख़ बयानबाज़ी के लिए अगर अवार्ड दिए जाते तो मेरे हिसाब से ये 5 नेताओं को ज़रूर अवार्ड से नवाजा जाता.

उत्तर प्रदेश के इस बार के चुनाव ऐतिहासिक हैं. ये चुनाव हाल ही के सबसे लंबे और बोरिंग चुनाव हैं. इसके लिए चुनाव आयोग का शुक्रिया अदा करना चाहिए. आख़िरी चरण आते-आते इतना वक्त बीत गया कि पहले चरण की यादें मंद पड़ गई हैं. यही नहीं सियासी दल मुद्दों के लिए अकालग्रस्त हैं. नेताओं के गले बैठे हुए हैं और भाषण बहके हुए हैं. ज़ाहिर है चुनावी मौसम में नेता की खराब टीआरपी उसके सियासी सफर का दी एन्ड करने की क्षमता रखती है. इसलिए सुर्ख़ियों में बने रहना उसके लिए वो संजीवनी है जिसके ज़रिये वो सत्ता के सपने संजोय रहते हैं.

ऊट पटांग भाषण और तल्ख़ बयानबाज़ी के लिए अगर अवार्ड दिए जाते तो मेरे हिसाब से ये 5 नेताओं को ज़रूर अवार्ड से नवाजा जाता.

नंबर 1: साक्षी महाराज, भाजपा सांसद - वोटरों को साक्षी मान कर ये कह सकती हैं की महाराज जी को कटु वचन बोलने में महारथ हासिल है. संत तो सत्य वचन बोलते हैं फिर समझ नहीं आता की उनकी वाणी हमेशा ज़हर क्यों उगलती है? आखिर उनको मुस्लिम महिलाओं के बारे में टिपण्णी करने या उनकी वकालत करने का अधिकार किसने दिया? उनकी ज़हरीली भाषा सिर्फ मुस्लिम विरोधी नहीं बल्कि नारी विरोधी है और मानवता का अपमान है. आखिर कब तक और कहां तक भाजपा उनको बढ़ावा देगी? बहरहाल चुनावी नौटंकी में लीड रोल में है साक्षी महाराज.

नंबर 2: आज़म खान, सपा के वरिष्ठ नेता : वाह भाई वाह! जिस नज़ाकत से आज़म खान साहब अंगारे उगलते है उससे तो शोला भी जलने को तैयार हो जाए. पूरे अदब के साथ वो वोटरों को अपने नुक्तों वाले भाषण का मुरीद बनाते हैं. जनता को उनसे गंभीरता की उपेक्षा होती है पर अफ़सोस उनके तीख़े तेवर में वो क्या क्या नहीं कहते. रामपुर के रैली याद होगी जब खान साहब ने पीएम पर निशाना साधा '131 करोड़ भारतीयों पर शासन करने वाले राजा रावण का पुतला दहन करने लखनऊ गए,...

उत्तर प्रदेश के इस बार के चुनाव ऐतिहासिक हैं. ये चुनाव हाल ही के सबसे लंबे और बोरिंग चुनाव हैं. इसके लिए चुनाव आयोग का शुक्रिया अदा करना चाहिए. आख़िरी चरण आते-आते इतना वक्त बीत गया कि पहले चरण की यादें मंद पड़ गई हैं. यही नहीं सियासी दल मुद्दों के लिए अकालग्रस्त हैं. नेताओं के गले बैठे हुए हैं और भाषण बहके हुए हैं. ज़ाहिर है चुनावी मौसम में नेता की खराब टीआरपी उसके सियासी सफर का दी एन्ड करने की क्षमता रखती है. इसलिए सुर्ख़ियों में बने रहना उसके लिए वो संजीवनी है जिसके ज़रिये वो सत्ता के सपने संजोय रहते हैं.

ऊट पटांग भाषण और तल्ख़ बयानबाज़ी के लिए अगर अवार्ड दिए जाते तो मेरे हिसाब से ये 5 नेताओं को ज़रूर अवार्ड से नवाजा जाता.

नंबर 1: साक्षी महाराज, भाजपा सांसद - वोटरों को साक्षी मान कर ये कह सकती हैं की महाराज जी को कटु वचन बोलने में महारथ हासिल है. संत तो सत्य वचन बोलते हैं फिर समझ नहीं आता की उनकी वाणी हमेशा ज़हर क्यों उगलती है? आखिर उनको मुस्लिम महिलाओं के बारे में टिपण्णी करने या उनकी वकालत करने का अधिकार किसने दिया? उनकी ज़हरीली भाषा सिर्फ मुस्लिम विरोधी नहीं बल्कि नारी विरोधी है और मानवता का अपमान है. आखिर कब तक और कहां तक भाजपा उनको बढ़ावा देगी? बहरहाल चुनावी नौटंकी में लीड रोल में है साक्षी महाराज.

नंबर 2: आज़म खान, सपा के वरिष्ठ नेता : वाह भाई वाह! जिस नज़ाकत से आज़म खान साहब अंगारे उगलते है उससे तो शोला भी जलने को तैयार हो जाए. पूरे अदब के साथ वो वोटरों को अपने नुक्तों वाले भाषण का मुरीद बनाते हैं. जनता को उनसे गंभीरता की उपेक्षा होती है पर अफ़सोस उनके तीख़े तेवर में वो क्या क्या नहीं कहते. रामपुर के रैली याद होगी जब खान साहब ने पीएम पर निशाना साधा '131 करोड़ भारतीयों पर शासन करने वाले राजा रावण का पुतला दहन करने लखनऊ गए, लेकिन वह भूल गए कि सबसे बड़ा रावण लखनऊ में नहीं, बल्कि दिल्ली में रहता है.' खान साहब यहीं रुक जाते तो शायद सियासत इतनी बेआबरू ना होती पर वो तो दूसरों की बदज़ुबानी भी उधार लेकर गधे का सबक सुनाने लगते हैं.

नंबर 3: नरेंद्र मोदी, पीएम-माफ़ कीजियेगा, आपको शायद अफ़सोस होगा की आप नो 1 नहीं 3 पर हैं पर ये सच है. किसी ने कभी ख़्वाब में भी नहीं सोचा होगा की चुनाव में रमज़ान, शमशान का मातम भाषणों में यो छाया रहेगा. फिर दिवाली और रमजान की रंजिशें मनाई जाएंगी. पीएम साहब चुनाव में मुद्दों की कमी नहीं थी फिर आपने भी क्या नाजायज़ मुद्दा छेड़ा. उत्तर प्रदेश पिछड़ेपन से दम तोड़ रहा है. यहाँ बचपन और बुढापा दोनों लाठी के सहारे है. कुपोषण, बुखमारी, गरिबी और बेरोजगारी की दलदल में फंसे इस प्रदेश को उबारने के लिए धर्म नहीं कर्म की ज़रुरत है.

नंबर 4: अखिलेश यादव, सीएम: इनको सबसे नायाब मुद्दा छड़ने का खिताब मिलता है. उन्होंने चुनावी बेहस को जनसभाओं से उठा कर अजायबघर के गधेखाने में पहोंचा दिया. मान लेते है कि नेताओं के लिए जनता भेड़ बकरी की ही तरह हैं. जब चाहा तो इधर उधर हॉक दिया. फिर चारा पकड़ा दिया मानो जनता उनके खूटे में बंधी है. पर यूपी चुनाव में गधे के भाव जनता से ज़्यादा बढ़ जाएंगे ये तो पब्लिक ने सोचा ना था. ताज्जुब इस बात का है की आपके बयान ने चुनावी चर्चा का रूख ही पलट कर रख दिया. सो पीएम साहब से लेकर तमाम सियासी दलों के नेता और मीडिया ने गधे पर चर्चा शुरू कर दी.

नंबर 5: मायावती, बसपा सुप्रीमो: प्रदेश की 4 बार मुख्यमंत्री रह चुकी मायावती से हल्की बात की उम्मीद तो विपक्षी दल भी नहीं करते. अच्छा होता अगर वो अपने कार्यकाल में हुए कामकाज का बखान करती. पर सियासी गणित बिठाने की फिराक में बहनजी अक्सर अपने भाषणों में चुनाव आयोग के आदेश की धज्जियां उड़ाती नज़र आई. आखिर चुनाव के समय ही नेताओं को मुसलमान क्यों याद आते हैं? उससे पहले और बाद में वो क्यों गायब हो जाते हैं. सपा कमज़ोर है, बीजेपी आ रही है, आ ही रही है ... इस तरह की लोरी कब तक जनता को सुनाएंगी? भाइयों बच के, सोच लीजिये, देख लेना ,वरना... ये भाषा से 21 सदी का मुसलमान जब माँ की कोख़ में था तब से...अब बस.

जो नेता इस फ़ेहरिस्त में नाम ना होने के चलते शोक मना रहे हैं दुखी मत हों अभी आपके लिए आसमां और भी हैं...वैसे इन नेताओं को स्पेशल मेंशन मिलना ही चाहिए. सबसे पहले चील कऊओं का ख्याल रखने के लिए लालू यादव को, गब्बर सिंह की याद के लिये राहुल गांधी को कसाब के भद्दे उदाहरण के लिए अमित शाह की हौसला अफजाई बेहद ज़रूरी है.

वैसे नेताओं के मानसिक दीवालियेपन का बेहतर जवाब जनता 11 तरीके को देगी पर किसी शायर के लफ़्ज़ों में अगर जनता अर्ज़ करती तो कहती ..मज़हबी बहस मैंने की ही नहीं, फालतू अक्ल मुझमे थी ही नहीं ...

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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