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संस्कृति

सत्ता को क्यों याद नहीं है सीता-नवमी!

    • सुशांत झा
    • Updated: 15 मई, 2016 12:30 PM
  • 15 मई, 2016 12:30 PM
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जनमानस की स्मृति में यह दिन भले ही पौराणिक काल से रहा हो, लेकिन (सत्ता) व्यवस्था उसे भूल जाना चाहती है. किसी बड़े नेता का कोई शुभकामना संदेश नहीं आया, शायद नरेंद्र मोदी का भी नहीं! राम के विराट व्यक्तित्व के सामने सीता बौनी बनी रह गईं या बना दी गईं.

आज जानकीनवमी है यानी सीता का जन्मदिन. जनमानस की स्मृति में यह दिन भले ही पौराणिक काल से रहा हो, लेकिन (सत्ता) व्यवस्था उसे भूल जाना चाहती है. किसी बड़े नेता का कोई शुभकामना संदेश नहीं आया, शायद नरेंद्र मोदी का भी नहीं! राम के विराट व्यक्तित्व के सामने सीता बौनी बनी रह गईं या बना दी गईं. संघ परिवार को भी राम ही याद आते हैं! दरअसल, सीता विद्रोह की प्रतीक हैं.

सीता धरती से पैदा हुई थीं, धरती में ही समा गईं. उसने अपमान को पीकर पति के घर जाना ठीक नहीं समझा. कुछ लोगों का ये भी कहना है कि धरती पुत्री होने का मतलब है कि सीता अज्ञात-कुल वंश की थीं! मिथिला की उदार परंपराओं के प्रतिनिधि मिथिलेश जनक ने उसे अपनाया था. हालांकि ये सीता पर आधुनिक विमर्श है, इसका आस्था से कोई संबंध नहीं.

 सीता समाहित स्थल

मिथिला में सीता पर कई दंत कहानियां प्रचलित हैं. आज भी मिथिला में बेटी का नाम सीता या मैथिली नहीं रखा जाता. एक कथा के मुताबिक सीता के दुर्भाग्य पर सीता के चाचा और बाद में मिथिला नरेश बने कुशध्वज जनक इतने दुखी हुए कि उन्होंने मिथिला में कई सारी पाबंदिया लगा दी. विवाहपंचमी के दिन विवाह करना मना कर दिया गया. जबकि परंपराओं के मुताबिक वह विवाह का सर्वोत्तम दिन माना जाता था. जनक ने एक ही घर में तीन बेटियों का विवाह मना कर दिया क्योंकि कुशध्वज की बेटी उर्मिला को अकारण चौदह साल तक पति का वियोग झेलना पड़ा था!

मिथिला में उसी समय से ये परंपरा बना दी गई कि पश्चिम में बेटी का विवाह नहीं होगा. मिथिलेश जनक ने वर के व्यक्तिगत गुणों के आधार पर (शिव धनुष तोड़ने का गुण) बेटियों का विवाह किया था. कहते हैं कि कुशध्वज, सीता के दुर्भाग्य से इतने दुखी हुए कि...

आज जानकीनवमी है यानी सीता का जन्मदिन. जनमानस की स्मृति में यह दिन भले ही पौराणिक काल से रहा हो, लेकिन (सत्ता) व्यवस्था उसे भूल जाना चाहती है. किसी बड़े नेता का कोई शुभकामना संदेश नहीं आया, शायद नरेंद्र मोदी का भी नहीं! राम के विराट व्यक्तित्व के सामने सीता बौनी बनी रह गईं या बना दी गईं. संघ परिवार को भी राम ही याद आते हैं! दरअसल, सीता विद्रोह की प्रतीक हैं.

सीता धरती से पैदा हुई थीं, धरती में ही समा गईं. उसने अपमान को पीकर पति के घर जाना ठीक नहीं समझा. कुछ लोगों का ये भी कहना है कि धरती पुत्री होने का मतलब है कि सीता अज्ञात-कुल वंश की थीं! मिथिला की उदार परंपराओं के प्रतिनिधि मिथिलेश जनक ने उसे अपनाया था. हालांकि ये सीता पर आधुनिक विमर्श है, इसका आस्था से कोई संबंध नहीं.

 सीता समाहित स्थल

मिथिला में सीता पर कई दंत कहानियां प्रचलित हैं. आज भी मिथिला में बेटी का नाम सीता या मैथिली नहीं रखा जाता. एक कथा के मुताबिक सीता के दुर्भाग्य पर सीता के चाचा और बाद में मिथिला नरेश बने कुशध्वज जनक इतने दुखी हुए कि उन्होंने मिथिला में कई सारी पाबंदिया लगा दी. विवाहपंचमी के दिन विवाह करना मना कर दिया गया. जबकि परंपराओं के मुताबिक वह विवाह का सर्वोत्तम दिन माना जाता था. जनक ने एक ही घर में तीन बेटियों का विवाह मना कर दिया क्योंकि कुशध्वज की बेटी उर्मिला को अकारण चौदह साल तक पति का वियोग झेलना पड़ा था!

मिथिला में उसी समय से ये परंपरा बना दी गई कि पश्चिम में बेटी का विवाह नहीं होगा. मिथिलेश जनक ने वर के व्यक्तिगत गुणों के आधार पर (शिव धनुष तोड़ने का गुण) बेटियों का विवाह किया था. कहते हैं कि कुशध्वज, सीता के दुर्भाग्य से इतने दुखी हुए कि उन्होंने ये नियम बना दिया कि 'वर' नहीं वर का 'परिवार' देखकर विवाह होगा. राजा जनक को जब धरती पर स्वर्ण फाल वाला हल चलाने के उपरांत सीता मिली थी, तो एक किसान मिथिलेश के पास आया और उसने कहा, 'महाराज! आप तो राजा हैं. लेकिन कल को हमें अगर इस तरह से धरती से बच्चे मिलने लगे तो हम उसे कैसे पालेंगे?' जनक ने उस दिन ये घोषणा की कि सीतानवमी के दिन कोई हल नहीं चलाएगा और कोई कितना भी धनी हो, हल का फाल हमेशा लोहे का होगा.

एक कथा यह भी है कि कुशध्वज के बेटे ने राम द्वारा सीता को वनवास दिए जाने के कारण विद्रोह किया था. यह लोककथा है. राम के जीवनीकार उचित ही इसका कहीं जिक्र नहीं करते. राम ने उस विद्रोह को कुचल दिया था और उस विद्रोह में मिथिला की सेना ने भी अपने राजा का साथ न देकर राम का ही साथ दे दिया. उसी लोककथा के मुताबिक सीता इससे बहुत क्षुब्ध हुई और उन्होंने मिथिला को श्राप दिया कि विद्रोह उसके स्वभाव से खत्म हो जाएगा. मैथिल लोग कभी व्रिदोही नहीं बन पाएंगे.

बहरहाल जो भी हो, सीता के दुख को देखकर कुशध्वज ने नियम बनाया कि सीता की कभी पूजा नहीं की जाएगी. पूजा अगर होगी तो अन्नपूर्णा की होगी. दरअसल, राजा जनक ने अन्न के लिए जमीन पर हल चलाया था और उसके बाद वर्षा भी हुई थी. मिथिला में आज भी कुंआरी कन्याएं देवी पूजा के नाम पर सीता की पूजा नहीं करती. वो गौरी की पूजा करती हैं.

उन्हें सीता सा सौभाग्य नहीं चाहिए, उन्हें गौरी सा सौभाग्य चाहिए! लोककथाओं के माध्यम से मिथिला आज भी उस संत्रास, उस विद्रोह और उस दुख को जीती है. मिथिला की दादी-नानियां आज भी काशी-मथुरा-जगन्नाथ का नाम लेती हैं, अयोध्या का नहीं! अयोध्या उनकी जुबान पर हाल ही में आया है जिसके स्पष्ट कारण हैं.

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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