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संस्कृति

जो दीपावाली हम जी चुके हैं, आज के बच्चे क्या ख़ाक जिएंगे

    • पीयूष द्विवेदी
    • Updated: 28 अक्टूबर, 2016 07:52 PM
  • 28 अक्टूबर, 2016 07:52 PM
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पड़क्का खरीदने के लिए घर से पैसा मिलने में दिक्कत हुई तो नया खुराफात कर दिया, थक-हार घर वाले पैसा दे ही देते...

तारीख से अभी दीवाली आने में दो-एक दिन बाकी हैं, लेकिन माहौल में तो कब की आ गई है. साथ ही, बाजार में भी. हर पांच-दस मिनट में कोई बच्चा माहौल में तड़ाक-भड़ाक करके दीवाली की दस्तक सुना देता है. इस टाइम में एक नॉस्टेल्जिक टाइप महसूस हो रहा है. मन हो रहा कि कोई मिले अपने जैसा तो उससे झूमकर कर बतियाएं उस दीवाली के बारे में. दसेक साल पहले, गाँव पर जो मनाते थे. हमें तो वही दीवाली आज भी अपनी लगती है. आज वाली तो चाइनीज झालरों जैसी ही नकली.

दीवाली से दस दिन पहले से ही हम दीवाली मनाने लगते थे. पड़क्का छोड़ना तो आखिरी मज़ा था, इससे पहले और भी बहुत से मज़े होते थे. दीवाली आते ही साइकिल पर झूले की तरह कपड़ा लटकाए फेरीवाले आने लगते थे, उस झूले की तरह लटके कपड़े में हम बच्चों के लिए दीवाली का खजाना होता था. दीये, जांत, भरुकी, वगैरह का खज़ाना. ‘दीया आ गईल, दीया आ गईल’ का हल्ला मचाते हुए हम दौड़ पड़ते थे. घर के बड़े दीया खरीदने पर ध्यान लगाते और हम लोग जांत वगैरह पर. जाँत आते ही उस स्तर की कुटाई-पिसाई का खेल मचाते कि जैसे दीवाली के पकवानों के लिए अनाज हमें पीसना हो. सिर्फ कुटाई-पिसाई ही नहीं करते, वैज्ञानिक सोच भी रखते थे.

इसे भी पढ़ें: आओ दीपावली पर खाएं मिलावटी मिठाइयां

पड़क्का खरीदने के लिए घर से पैसा मिलने में दिक्कत हुई तो नया खुराफात पैदा कर दिए. साइकिल के टायर की तिल्ली और हवा रोकने वाली हुक निकाल लेते. फिर तिल्ली में एक धागा बांध उसके एक सिरे पर वो हुक लगा देते. बस हमारा नया पड़क्का फोड़क यंत्र तैयार हो जाता. इसमें लगे हुक में माचिस की काठी का मसाला भरकर उसे साइकिल की तिल्ली के दूसरे सिरे पर फंसा दिया जाता. फिर उस हुक वाले सिरे को झटके से दीवाल पर पटकने पर क्या धांसू आवाज निकलती कि बड़े-बड़े बम सुने तो हदस के जान दे दें. हमारे इस खुराफात में घर की साइकिल का तो काम तमाम होता ही,...

तारीख से अभी दीवाली आने में दो-एक दिन बाकी हैं, लेकिन माहौल में तो कब की आ गई है. साथ ही, बाजार में भी. हर पांच-दस मिनट में कोई बच्चा माहौल में तड़ाक-भड़ाक करके दीवाली की दस्तक सुना देता है. इस टाइम में एक नॉस्टेल्जिक टाइप महसूस हो रहा है. मन हो रहा कि कोई मिले अपने जैसा तो उससे झूमकर कर बतियाएं उस दीवाली के बारे में. दसेक साल पहले, गाँव पर जो मनाते थे. हमें तो वही दीवाली आज भी अपनी लगती है. आज वाली तो चाइनीज झालरों जैसी ही नकली.

दीवाली से दस दिन पहले से ही हम दीवाली मनाने लगते थे. पड़क्का छोड़ना तो आखिरी मज़ा था, इससे पहले और भी बहुत से मज़े होते थे. दीवाली आते ही साइकिल पर झूले की तरह कपड़ा लटकाए फेरीवाले आने लगते थे, उस झूले की तरह लटके कपड़े में हम बच्चों के लिए दीवाली का खजाना होता था. दीये, जांत, भरुकी, वगैरह का खज़ाना. ‘दीया आ गईल, दीया आ गईल’ का हल्ला मचाते हुए हम दौड़ पड़ते थे. घर के बड़े दीया खरीदने पर ध्यान लगाते और हम लोग जांत वगैरह पर. जाँत आते ही उस स्तर की कुटाई-पिसाई का खेल मचाते कि जैसे दीवाली के पकवानों के लिए अनाज हमें पीसना हो. सिर्फ कुटाई-पिसाई ही नहीं करते, वैज्ञानिक सोच भी रखते थे.

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पड़क्का खरीदने के लिए घर से पैसा मिलने में दिक्कत हुई तो नया खुराफात पैदा कर दिए. साइकिल के टायर की तिल्ली और हवा रोकने वाली हुक निकाल लेते. फिर तिल्ली में एक धागा बांध उसके एक सिरे पर वो हुक लगा देते. बस हमारा नया पड़क्का फोड़क यंत्र तैयार हो जाता. इसमें लगे हुक में माचिस की काठी का मसाला भरकर उसे साइकिल की तिल्ली के दूसरे सिरे पर फंसा दिया जाता. फिर उस हुक वाले सिरे को झटके से दीवाल पर पटकने पर क्या धांसू आवाज निकलती कि बड़े-बड़े बम सुने तो हदस के जान दे दें. हमारे इस खुराफात में घर की साइकिल का तो काम तमाम होता ही, माचिस के भी लाले पड़ने लगते. मजबूरन घरवालों को पड़क्का के लिए कुछ हिदायतों के साथ ही सही बजट आवंटित करना पड़ता. ये पैसा दीवाली वाले दिन से अलग होता था.

 दीयो संग सादगी की वो दीपावली

पैसा हाथ में आते ही आती चिटपुटिया वाली बन्दूक. चिटपुटिया और छुरछुरिया का डिब्बा. सांप की टिकिया. फिर घर में तड़ाक-भड़ाक का सिलसिला शुरू हो जाता. कभी अपनी बन्दूक में चिटपुटिया भर उसे अपने पैंट में खोंसकर अस्सी-नब्बे की हिंदी फिल्म का कोई हीरो या गुंडा बन जाते. अगर बन्दूक ढंग से काम नहीं करती तो इट्टा या सिलबट्टे के लोढ़े से ही चिटपुटिया फोड़ने लगते. कुछ नहीं तो हाथ से दीवाल पर रगड़कर चिटपुटिया फोड़ने का कौशल तो जैसे जन्मजात ही सीखकर आते थे. कभी सांप की टिकिया लेकर बैठ जाते. दसों माचिस की काथियाँ बर्बाद करने के बाद वो जलता और काला-सा सांप उसमें से निकलता. उसे हाथ में लेकर घर में घुड़दौड़ करते. इस तरह करते-धरते दीवाली का दिन भी आ जाता. उस दिन तो खुली छूट होती. शाम होते ही  छत पर पहुंचकर धूम-धड़क्का मचाने लगते. मम्मी आँगन में लक्ष्मी-गणेश की पूजा करतीं तो बुलातीं रहतीं और हम पड़क्का में डूबे रहते. बीच-बीच में जाकर थोड़ा कुछ खा लेते और फिर पड़क्काबाजी शुरू हो जाती. आधी रात तक चलता ये सब.

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रात को देर से सोने के बाद भी सुबह जल्दी-ही उठ जाते. आंख मीसते हुए ही छत पर पहुँचते और जितने दिए हाथ में आ जाते लाकर नरम होने के लिए पानी में भिगो देते. दोपहर उन्हें निकालते. फिर उनमें छेद करते. इस दौरान कई दिये फूटते. मगर, आखिर कामयाबी मिल जाती. दो दीयों में तीन-तीन छेद करके, धाँगा डालके एक डंडे में बाँध देते. बस बन जाता हमारा तरजुई-किलो. फिर शुरू हो जाता घर में बनिया बनकर ये-वो  जोखने का खेल. इस तरह कुटाई पिसाई से शुरू हुई हमारी दीवाली हमें बनिया बनाकर ख़त्म हो जाती.

ये सब खेला अब शहर तो खैर छोड़िये, गाँव में भी नहीं दिखता. आज की नकली चकमक के बीच भारत की ये असली वाली दीवाली अब उसी तरह गायब हो गई है, जैसे चाइनीज झालरों के बीच से भारतीय दीये गुम हैं. आज के बच्चों को दीवाली की मस्ती के नाम पर जब बस पड़क्का फोड़ने जैसी चीजों में उलझे देखते हैं तो खुद ही मुंह से निकल जाता है कि हमने जो दीवाली जी है, वो दीवाली ये बच्चे क्या ख़ाक जी पाएंगे.

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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