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संस्कृति

संन्यास के साथ सब खत्म, न कोई ब्राह्मण न कोई दलित

    • डॉ कृष्ण गोपाल मिश्र
    • Updated: 11 मई, 2016 04:31 PM
  • 11 मई, 2016 04:31 PM
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समाज को सवर्ण-असवर्ण, आरक्षित-अनारक्षित, दलित आदि खेमों में बाँटकर वोट की राजनीति करने वाले अब संतों को भी दलितों और सवर्णों में बाँट रहे हैं.

भारतीय परम्परा में संत समान रूप से आदरणीय हैं. आध्यात्मिक-ज्ञान, उदारता और शुचिता उनकी स्वीकृति के आधार हैं. संत का जीवन सर्वजन-हिताय, सर्वजन-सुखाय होता है. संत जाति, धर्म, देश आदि की समस्त संकीर्णताओं से मुक्त होकर जीवमात्र के कल्याण के लिए समर्पित रहते हैं. इसीलिए साधु-संतों से उनकी जाति नहीं पूछी जाती-

जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिए ज्ञान।

मोल करो तलवार का, पड़ी रहन दो म्यान।।

जिस दिन व्यक्ति गृहस्थ-पारिवारिक जीवन का त्याग करके संत का बाना धारण करता है उसी दिन वह अपने और पराये के भेद से, मोह-ममता से मुक्त हो जाता है. सारा संसार उसका अपना होता है और वह सारे संसार का. यदि संत-वेष, संन्यासी रूप धारण करके भी कोई जाति, व्यवसाय, स्थान आदि की; निज और पर की सीमाओं से, राग-द्वेष से बंधा है; सांसारिक सुख-सुविधाओं का अभिलाषी है, माया-मोह से मुक्त नहीं है तो वह संत नहीं संतत्व का पाखण्ड है और यह पाखण्ड समाज के लिए, सार्वजनिक जीवन के लिए घातक है.

परम्परा है कि गृहस्थ से संन्यास में प्रस्थित होते हुए संत वर्ण-बंधन से मुक्त हो जाता है. गेरूआ वस्त्र धारण करने से पूर्व वह शिखा-सूत्र (चोटी और जनेऊ) का त्याग करता है और सबके यहाँ भिक्षा ग्रहण करने का अधिकारी बन जाता है. वह न ब्राह्मण रहता है और न शूद्र या दलित. फिर इस स्तर पर प्रतिष्ठित किसी संत को दलित संत कहना संतत्व का अपमान करना है. साहित्य में कबीर, दादू, सूर, नानक, रैदास, तुलसीदास आदि समस्त भक्त कवियों को संत कवि कहा गया है. ये सभी संन्यासी नहीं थे. इनमें से अधिकांश ने गृहस्थ जीवन जीते हुए आध्यात्मिक उन्नति की और समाज का हित-चिन्तन किया. भक्तिकाल में इनकी जाति को लेकर स्वीकृति-अस्वीकृति का कोई प्रश्न उत्पन्न नहीं हुआ. ‘भक्तमाल’ आदि ग्रंथों में संतों के लिए कहीं भी दलित शब्द नहीं मिलता. क्योंकि संत संत होता है दलित या सवर्ण, बहुसंख्यक या अल्पसंख्यक नहीं.

भारतीय परम्परा में संत समान रूप से आदरणीय हैं. आध्यात्मिक-ज्ञान, उदारता और शुचिता उनकी स्वीकृति के आधार हैं. संत का जीवन सर्वजन-हिताय, सर्वजन-सुखाय होता है. संत जाति, धर्म, देश आदि की समस्त संकीर्णताओं से मुक्त होकर जीवमात्र के कल्याण के लिए समर्पित रहते हैं. इसीलिए साधु-संतों से उनकी जाति नहीं पूछी जाती-

जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिए ज्ञान।

मोल करो तलवार का, पड़ी रहन दो म्यान।।

जिस दिन व्यक्ति गृहस्थ-पारिवारिक जीवन का त्याग करके संत का बाना धारण करता है उसी दिन वह अपने और पराये के भेद से, मोह-ममता से मुक्त हो जाता है. सारा संसार उसका अपना होता है और वह सारे संसार का. यदि संत-वेष, संन्यासी रूप धारण करके भी कोई जाति, व्यवसाय, स्थान आदि की; निज और पर की सीमाओं से, राग-द्वेष से बंधा है; सांसारिक सुख-सुविधाओं का अभिलाषी है, माया-मोह से मुक्त नहीं है तो वह संत नहीं संतत्व का पाखण्ड है और यह पाखण्ड समाज के लिए, सार्वजनिक जीवन के लिए घातक है.

परम्परा है कि गृहस्थ से संन्यास में प्रस्थित होते हुए संत वर्ण-बंधन से मुक्त हो जाता है. गेरूआ वस्त्र धारण करने से पूर्व वह शिखा-सूत्र (चोटी और जनेऊ) का त्याग करता है और सबके यहाँ भिक्षा ग्रहण करने का अधिकारी बन जाता है. वह न ब्राह्मण रहता है और न शूद्र या दलित. फिर इस स्तर पर प्रतिष्ठित किसी संत को दलित संत कहना संतत्व का अपमान करना है. साहित्य में कबीर, दादू, सूर, नानक, रैदास, तुलसीदास आदि समस्त भक्त कवियों को संत कवि कहा गया है. ये सभी संन्यासी नहीं थे. इनमें से अधिकांश ने गृहस्थ जीवन जीते हुए आध्यात्मिक उन्नति की और समाज का हित-चिन्तन किया. भक्तिकाल में इनकी जाति को लेकर स्वीकृति-अस्वीकृति का कोई प्रश्न उत्पन्न नहीं हुआ. ‘भक्तमाल’ आदि ग्रंथों में संतों के लिए कहीं भी दलित शब्द नहीं मिलता. क्योंकि संत संत होता है दलित या सवर्ण, बहुसंख्यक या अल्पसंख्यक नहीं.

सिंहस्थ कुंभ महापर्व पर साधुओं का जमावड़ा

यह विडम्बना ही है कि समाज को सवर्ण-असवर्ण, आरक्षित-अनारक्षित, दलित आदि खेमों में बाँटकर वोट की राजनीति करने वाले अब संतों को भी दलितों और सवर्णों में बाँट रहे हैं. रोचक यह है कि संतत्व का दंभ भरने वाले तथा-कथित सन्यासी भी स्वार्थी राजनेताओं के संकेतों पर उनकी इच्छानुसार आयोजित कार्यक्रमों में भाग लेने को प्रस्तुत हैं.

हमारे समाज में संत का स्थान नेता से ऊपर है. इसीलिए नेता संत का आशीर्वाद लेते हैं किन्तु उज्जैन के कुम्भ मेले में कुछ संत भाजपा नेताओं की कृपा पाने को आतुर हैं. वे स्वयं को दलित संत कहलाने को प्रस्तुत हैं. यदि वे संत होकर भी स्वयं को दलित ही समझते हैं तो उनके संत होने का अर्थ ही क्या है? व्यक्ति जाति-वर्ण बंधन से ऊपर उठकर संत बनता है. उसका पुनः अपनी जाति में लौटना संत पद से गृहस्थ-सामाजिक रूप में वापस आना है. इस प्रकार का अवमूल्यन संत समाज का निरादर है. यह न शास्त्र सम्मत है और न ही लोक-सम्मत. राजनेताओं को भी निजी स्वार्थों के लिए संतों में दलित-सवर्ण जैसा भेद करने का कोई अधिकार नहीं है. सामाजिक समरसता की आवश्यकता सामाजिक जीवन में है. संत-समाज तो स्वतः समरस है. उसे नेता क्या समरस करेंगे? कुम्भ के विशुद्ध धार्मिक आयोजन को लाभ-लोभ का यह राजनीतिक रंग बदरंग कर रहा है. संत समाज और जनता को एक स्वर से इसका विरोध करना चाहिए.

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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