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फिल्म काटी तो कुएं में, नहीं काटी तो भईया खाई में गिरेगा सेंसर बोर्ड

    • रिम्मी कुमारी
    • Updated: 31 मार्च, 2017 12:26 PM
  • 31 मार्च, 2017 12:26 PM
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सेंसर बोर्ड के लिए फिल्म का सीन काटना सांप- नेवले की लड़ाई सरीखा हो गया है. अगर फिल्म से सीन काटा तो लोग गालियां देते हैं, अगर नहीं काटा तो कोर्ट बुलाकर सवाल करती है!

भारत में लोगों के जीवन पर फिल्मों का बहुत प्रभाव होता है. खासकर युवाओं पर तो फिल्मों का सुरूर पागलपन की हद तक चढ़ा होता है. फिल्मों को कॉपी करना या फिल्मी कलाकरों की तरह व्यवहार करना कोई नई बात नहीं है. दशकों पहले से भी लोग फिल्मों को सिर्फ मनोरंजन का माध्यम नहीं बल्कि खुद के बदलने या व्यवहार करने का माध्यम मानते आए हैं. इस वजह से राष्ट्रव्यापी बहस भी होती रहती है.

अब दो किस्से सुनिए और खुद तय कीजिए की क्या सही है क्या गलत.

पहला मामला- 27 मार्च को चेन्नई कोर्ट ने सेंसर बोर्ड के एक मेंबर को कोर्ट में पेश होने का आदेश दिया है. कारण? 13 साल की एक लड़की 10 महीने पहले अपने प्रेमी के साथ घर से भाग जाती है और प्रेग्नेंट हो जाती है. पुलिस ने उसको खोज निकाला. अब लड़की ने अपने भागने के पीछे की जो कहानी बताई वो हैरान करने वाली है. बच्ची का दावा है कि वो तमिल फिल्म 'कलावानी' से प्रभावित थीं. इस फिल्म में गुंडा अरीकी (विमल) नायिका माहेश्वरी (ओविया) का अपहरण कर लेता है बाद में उसी से शादी भी कर लेता है.

फिल्म से प्रेरित हो घर से भागी

लड़की के माता-पिता ने कोर्ट में केस दाखिल कर रखा है. कोर्ट ने सेंसर बोर्ड के एक अधिकारी को सम्मन किया है और उनसे बहुत से सवाल भी किए हैं. जिसमें से एक था- इस तरह की कहानियों वाली फिल्मों को आखिर क्यों मंजूरी मिलती है? 'कलवानी' को 2010 में 'यू' प्रमाण पत्र दिया गया था और इसी पर अदालत को एतराज है. किसी फिल्म के 'यू' प्रमाण पत्र का मतलब है कि बिना किसी पाबंदी के ये बच्चों और बड़ों हर किसी के देखने के लिए उपयुक्त है.

कोर्ट ने सीबीएफसी को अगले सोमवार तक एक हलफनामा दायर करने का आदेश दिया है, जिसमें मामले से संबंधित सभी पहलुओं को बताया गया हो. इसमें बोर्ड के ग्रेडिंग...

भारत में लोगों के जीवन पर फिल्मों का बहुत प्रभाव होता है. खासकर युवाओं पर तो फिल्मों का सुरूर पागलपन की हद तक चढ़ा होता है. फिल्मों को कॉपी करना या फिल्मी कलाकरों की तरह व्यवहार करना कोई नई बात नहीं है. दशकों पहले से भी लोग फिल्मों को सिर्फ मनोरंजन का माध्यम नहीं बल्कि खुद के बदलने या व्यवहार करने का माध्यम मानते आए हैं. इस वजह से राष्ट्रव्यापी बहस भी होती रहती है.

अब दो किस्से सुनिए और खुद तय कीजिए की क्या सही है क्या गलत.

पहला मामला- 27 मार्च को चेन्नई कोर्ट ने सेंसर बोर्ड के एक मेंबर को कोर्ट में पेश होने का आदेश दिया है. कारण? 13 साल की एक लड़की 10 महीने पहले अपने प्रेमी के साथ घर से भाग जाती है और प्रेग्नेंट हो जाती है. पुलिस ने उसको खोज निकाला. अब लड़की ने अपने भागने के पीछे की जो कहानी बताई वो हैरान करने वाली है. बच्ची का दावा है कि वो तमिल फिल्म 'कलावानी' से प्रभावित थीं. इस फिल्म में गुंडा अरीकी (विमल) नायिका माहेश्वरी (ओविया) का अपहरण कर लेता है बाद में उसी से शादी भी कर लेता है.

फिल्म से प्रेरित हो घर से भागी

लड़की के माता-पिता ने कोर्ट में केस दाखिल कर रखा है. कोर्ट ने सेंसर बोर्ड के एक अधिकारी को सम्मन किया है और उनसे बहुत से सवाल भी किए हैं. जिसमें से एक था- इस तरह की कहानियों वाली फिल्मों को आखिर क्यों मंजूरी मिलती है? 'कलवानी' को 2010 में 'यू' प्रमाण पत्र दिया गया था और इसी पर अदालत को एतराज है. किसी फिल्म के 'यू' प्रमाण पत्र का मतलब है कि बिना किसी पाबंदी के ये बच्चों और बड़ों हर किसी के देखने के लिए उपयुक्त है.

कोर्ट ने सीबीएफसी को अगले सोमवार तक एक हलफनामा दायर करने का आदेश दिया है, जिसमें मामले से संबंधित सभी पहलुओं को बताया गया हो. इसमें बोर्ड के ग्रेडिंग सिस्टम, किसी सीन को हटाने की प्रक्रिया और निर्माता की प्रतिक्रिया जैसी कई चीजों की डिटेल मांगी है.

दूसरा मामला- हमारी फिल्मों में क्या दिखाया जाए क्या नहीं और किस हद तक, इसका फैसला सीबीएफसी यानि कि सेंसर बोर्ड ऑफ फिल्म सर्टिफिकेशन करती है. हाल ही में सेंसर बोर्ड ने उड़ता पंजाब, लिपस्टिक अंडर माय बुर्का और ऐसे ही कई फिल्मों पर सख्ती से कैंची चलाई है. सेंसर बोर्ड की आपत्ति को लेकर विवादों में घिरी अनुराग कश्यप की फिल्म 'उड़ता पंजाब' को सेंसर बोर्ड ने 13 कट के साथ 'ए' सर्टिफिकेट दिया था जिसके बाद लोगों ने खुब तीखी प्रतिक्रिया दी.

सांप और नेवला वाली स्थिति

इसी तरह सेंसर बोर्ड ने प्रकाश झा की लिपस्टिक अंडर माय बुर्का फिल्म को सर्टिफिकेट देने से मना कर दिया था. इसके पीछे कारण दिया कि ये फिल्म बहुत ही ज्यादा महिलाओं पर केंद्रित है. सेंसर बोर्ड के रवैये से परेशान निर्देशक और निर्माताओं ने फिल्म सर्टिफिकेशन अपीलेट ट्रिब्यूनल का दरवाजा खटखटाया है.

अब दिक्कत ये है कि सीबीएफसी इस समय एक अजीब सी स्थिति में फंस गया है. अदालत को जवाब देना तो टेढ़ी खीर होगा ही होगा, अपने फैसलों के लिए वो बार-बार विवादों के बीच घिर जाते हैं सो अलग. सेंसर बोर्ड के लिए ये कैच-22 जैसी स्थिति है. अगर वो किसी सीन पर सेंसर की कैंची चलाते हैं तो लोग हाय-तौबा मचाने लगते हैं और अगर नहीं चलाते तो कोर्ट में घसीटे जाते हैं.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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