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'शारीरिक संबंधों' की बात से ज्‍यादा आपत्तिजनक है सेंसर बोर्ड का नजरिया

    • पारुल चंद्रा
    • Updated: 22 जून, 2017 05:36 PM
  • 22 जून, 2017 05:36 PM
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2017 में अगर दो वयस्क किसी फिल्म में 'शारीरिक संबंधों' पर बात भी करें तो सेंसर बोर्ड का पेट दुखने लगता है. कई फिल्‍मों को लेकर बोर्ड का दोहरा रवैया चौंकाता है.

चिकने घड़े के बारे में सुना है आपने. हमारा सेंसर बोर्ड ठीक वैसा ही है. इन्हें चाहे कोई कुछ भी कह ले, इनपर कोई फर्क नहीं पड़ता. अभी हाल ही में 'लिपस्टिक अंडर माय बुर्का' के पोस्टर ने सेंसर बोर्ड के मुंह पर जो तमाचा लगाया, उसके बाद तो शायद सेंसर बोर्ड को तारे दिख जाने चाहिए थे, लेकिन नहीं... 'हम नहीं सुधरेंगे' का नारा लगाते हुए एक बार फिर सेंसरबोर्ड नए विवाद के साथ हाजिर है.

हालिया मामला आया है शाहरुख खान और अनुष्का शर्मा की फिल्म 'जब हैरी मेट सेजल' से. ये इम्तियाज अली की एक रोमैंटिक कॉमेडी फिल्म है. लेकिन पहलाज निहलानी और उनकी टीम को आपत्ति है कि फिल्म के प्रोमो में शब्द 'इंटरकोर्स' का इस्तेमाल किया गया है. जिसे नहीं पता उन्हें बता दें कि इंटरकोर्स का मतलब शारीरिक संबंधों (संभोग) से है.

पहलाज निहलानी का कहना है कि 'फिल्म को /A सर्टिफिकेट इसी शर्त पर दिया गया है कि वो फिल्म से इस शब्द को हटा लेंगे. लेकिन इंटरनेट पर चल रहे प्रोमो (मिनी ट्रेलर) में से इसे नहीं हटाया गया और कई टीवी चैनल्स प्रोमो डाउनलोड कर टीवी पर चलाने लगे हैं. फिल्म निर्माताओं को ये प्रोमो टीवी पर चलाने के लिए CBFC से क्लीयरेंस लेने की जरूरत है.'

यानी 21वीं सदी के सन 2017 में अगर दो वयस्क किसी फिल्म में 'शारीरिक संबंधों' पर बात भी करें तो सेंसर बोर्ड का पेट दुखने लगता है.

कभी किसिंग सीन से, कभी महिलाओं की यौन इच्छा, कभी बिकनी तो कभी ब्रा, कभी गालियां...सेंसर बोर्ड को हर चीज से परेशानी है. लेकिन हम चाहते हैं कि वो मुग़ालते न पालें और वो करें जो उनका काम है.

CBFC का काम आखिर है क्या-

1952 में सिनेमेटोग्राफ एक्ट के तहत जन्म हुआ सेंट्रल बोर्ड ऑफ फिल्म सर्टिफिकेशन का. जो देश के हर क्षेत्रों में अलग अलग काम करता था. लेकिन बाद में इसे...

चिकने घड़े के बारे में सुना है आपने. हमारा सेंसर बोर्ड ठीक वैसा ही है. इन्हें चाहे कोई कुछ भी कह ले, इनपर कोई फर्क नहीं पड़ता. अभी हाल ही में 'लिपस्टिक अंडर माय बुर्का' के पोस्टर ने सेंसर बोर्ड के मुंह पर जो तमाचा लगाया, उसके बाद तो शायद सेंसर बोर्ड को तारे दिख जाने चाहिए थे, लेकिन नहीं... 'हम नहीं सुधरेंगे' का नारा लगाते हुए एक बार फिर सेंसरबोर्ड नए विवाद के साथ हाजिर है.

हालिया मामला आया है शाहरुख खान और अनुष्का शर्मा की फिल्म 'जब हैरी मेट सेजल' से. ये इम्तियाज अली की एक रोमैंटिक कॉमेडी फिल्म है. लेकिन पहलाज निहलानी और उनकी टीम को आपत्ति है कि फिल्म के प्रोमो में शब्द 'इंटरकोर्स' का इस्तेमाल किया गया है. जिसे नहीं पता उन्हें बता दें कि इंटरकोर्स का मतलब शारीरिक संबंधों (संभोग) से है.

पहलाज निहलानी का कहना है कि 'फिल्म को /A सर्टिफिकेट इसी शर्त पर दिया गया है कि वो फिल्म से इस शब्द को हटा लेंगे. लेकिन इंटरनेट पर चल रहे प्रोमो (मिनी ट्रेलर) में से इसे नहीं हटाया गया और कई टीवी चैनल्स प्रोमो डाउनलोड कर टीवी पर चलाने लगे हैं. फिल्म निर्माताओं को ये प्रोमो टीवी पर चलाने के लिए CBFC से क्लीयरेंस लेने की जरूरत है.'

यानी 21वीं सदी के सन 2017 में अगर दो वयस्क किसी फिल्म में 'शारीरिक संबंधों' पर बात भी करें तो सेंसर बोर्ड का पेट दुखने लगता है.

कभी किसिंग सीन से, कभी महिलाओं की यौन इच्छा, कभी बिकनी तो कभी ब्रा, कभी गालियां...सेंसर बोर्ड को हर चीज से परेशानी है. लेकिन हम चाहते हैं कि वो मुग़ालते न पालें और वो करें जो उनका काम है.

CBFC का काम आखिर है क्या-

1952 में सिनेमेटोग्राफ एक्ट के तहत जन्म हुआ सेंट्रल बोर्ड ऑफ फिल्म सर्टिफिकेशन का. जो देश के हर क्षेत्रों में अलग अलग काम करता था. लेकिन बाद में इसे बॉम्बे फिल्म सेंसर के अंतर्गत मिला दिया गया और बन गया ये सेंसर बोर्ड. 1983 में ये सेंसर बोर्ड ऑफ फिल्म सर्टिफिकेशन से बदलकर सेंट्रल बोर्ड ऑफ फिल्म सर्टिफिकेशन हो गया. यानी कि 1983 से CBFC का काम फिल्मों को सिर्फ सर्टिफिकेट देना है, न कि उन्हें सेंसर करना. मगर फिल्मों पर कैंची चलाना मानो CBFC की हॉबी हो.

सिर्फ मजाक का पात्र बन गया है CBFC, जिसे कुछ उदाहरणों से समझा जा सकता है-

'लिपस्टिक अंडर माय बुर्का' से इन्हें परेशानी थी कि फिल्म महिला ओरिएंटेड है, उसमें महिलाओं की यौन इच्छाओं को दिखाया गया है, उसमें ऑडियो पोर्नोग्राफी है वगैरह वगैरह और फिल्म को सर्टिफाई करने से ही मना कर दिया. पर जनाब जब इन्हीं महिलाओं पर अश्लील गाने लिखे और फिल्माए जाते हैं तो सेंसर बोर्ड को आपत्ति क्यों नहीं होती. जबकि CBFC के लिए निर्धारित नियमों में एक बात साफ-साफ बताई गई है कि फिल्मों में किसी भी सीन में महिलाओं की अस्मिता और उन्हें नीचा नहीं दिखाया जा सकता. 'अच्छी बातें कर ली बहुत, अब करुंगा तेरे साथ गंदी बात- गंदी बात' ऐसे गाने स्वीकार्य हैं लेकिन 4 महिलाएं जब अपनी सेक्सुअलिटी के बारे में बात करती हैं वो बर्दाश्त नहीं. यानी आपको पता ही नहीं कि आप चाहते क्या हैं.

महिलाओं के बारे मेें सेंसर बोर्ड कभी तो कुछ नहीं सोचता और कभी ज्यादा ही सोच लेता है

- 'उड़ता पंजाब' में भी हद की गई, 89 कट लगाए गए. और कहा कि फिल्म के टाइटल से पंजाब नाम ही हटा दिया जाए, अब जो फिल्म पंजाब में फैले नशे पर बनी है उसे पंजाब में ही दिखाया जाएगा न, उसे दिल्ली या फिर कानपुर तो नहीं किया जा सकता...

फिल्म फिल्लोरी में हीरो भूत के डर से जोर-जोर से हनुमान चालीसा का पाठ करता है लेकिन फिर भी फिल्म में भूत बनी अनुष्का शर्मा नहीं भागतीं. बस सेंसर बोर्ड को इससे भी परेशानी हो गई, कहते हैं इससे धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचेगी. क्योंकि लोगों का मानने है कि हनुमान चालिसा का पाठ करने से भूत-पिशाच सब दूर भाग जाते हैं. मतलब कल को अगर किसी सीन में बिल्ली के रास्ता काटने पर कुछ बुरा न दिखाया गया तो फिर से इन्हें ऐतराज होगा कि लोगों की भावनाएं आहत हो जाएंगी क्योंकि बिल्ली रास्ता काटती है तो कुछ न कुछ बुरा तो होता ही है.

फिल्म फिल्लौरी का वही दृश्य

- हाल ही में आई फिल्म 'फुल्लू' को CBFC ने A सर्टिफिकेट दिया. वो इसलिए कि इस फिल्म में मासिक धर्म के बारे में बात की गई है. यानी पर्सनल हाइजीन की वो समस्या जिससे भारत की 80% महिलाएं जूझ रही हैं, उसपर अगर किसी फिल्म पर बात की जा रही है तो वो अडल्ट कंटेंट है. शायद उन्हें नहीं पता कि 10, 11 साल की बच्चियां जिन्हें मासिक धर्म होता है वो वयस्क नहीं बच्चियां ही होती हैं. इस बात से आप इनकी मानसिकता का अंदाजा भी लगा सकते हैं.

- अब बात करते हैं फिल्म 'The Accidental Prime Minister' की. फिल्म में मनमोहन सिंह की भूमिका अनुपम खेर निभा रहे हैं, इसमें CBFC  का कहना है कि पहले संबंधित व्यक्तियों से एनओसी लाएं तभी फिल्म पास की जाएगी, पर फिल्म 'इंदु सरकार' के बारे में तो उन्होंने किसी भी एनओसी की बात नहीं की, क्यों?

- ये वो सेंसर बोर्ड है जिसे फिल्मों में बिकनी से कोई परहेज नहीं है, लेकिन ब्रा से है.

- इतना ही नहीं बच्चों तक से मजाक कर रहा है CBFC, फिल्म 'जंगल बुक' को /A सर्टिफिकेट दिया, क्योंकि इनके हिसाब से फिल्म बहुत डरावनी है.

तो निहलानी साहब अगर कांट-छांट करने का इतना शौक है, तो पेशा बदल लीजिए. और अगर फिर भी यहीं रहना चाहते हैं तो फिल्मों को उनके कंटेंट के हिसाब से सर्टिफिकेट दें. नहीं तो वो दिन दूर नहीं जब आप सिर्फ मजाक के पात्र बनकर रह जाएंगे, और आपकी वजह से ये बोर्ड अपनी प्रमाणिकता खो देगा.

ये भी पढ़ें- 

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सेंसरबोर्ड और फिल्म के पंगे की कहानी पोस्टर ने ही बता दी..



इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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