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ओलंपिक खिलाड़ियों को क्रिकेटर्स जैसी इज्जत क्यों नहीं ?

    • मोहित चतुर्वेदी
    • Updated: 13 जुलाई, 2017 04:10 PM
  • 13 जुलाई, 2017 04:10 PM
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एक तरफ जहां क्रिकेट खिलाड़ियों पर करोड़ों की बरसात हो रही है. वहीं ओलंपिक में खिलाड़ियों को भीख मांगनी पड़ रही है. आखिर कब तक ये भेदभाव चलेगा.

ओलंपिक से एक भी पदक न जीतने का मलाल अपनी जगह है, लेकिन गिरेबां में झांककर कभी देखा है कि इन खिलाड़ियों को हमने दिया क्या है? सिर्फ थोड़ा सा नाम और परिवार  का पेट भरने के लिए नौकरी... जिस देश में सालभर तक क्रिकेटर भगवान की तरह पूजे जाते हों, उस देश में साइना नेहवाल और सानिया मिर्जा को छोड़कर अन्य खेलों के खिलाड़ी पेट पालने की चिंता में ही अपना दिमाग खपाए रहते हैं.

अभी का ही मामला ले लीजिए. इससे आप सभी को समझ आ जाएगा कि ओलंपिक में खिलाड़ियों की स्थिति कैसी है. पैरा तैराक कंचनमाला पांडे को बर्लिन में लोगों से आर्थिक मदद मांगने के लिए मजबूर होना पड़ा. पूरी तरह से दृष्टिहीन कंचनमाला सहित छह खिलाड़ियों को भारत की ओर से तीन से 9 जुलाई तक हुई बर्लिन पैरा स्विमिंग चैंपियनशिप में भाग लेने के लिए भेजा गया था, लेकिन उन्हें इस यात्रा पर सरकार और भारतीय पैरालंपिक समिति की गलतियों का खामियाजा भुगतना पड़ा.

पेरालंपिक की खिलाड़ी कंचनलता जिसे बिना पैसे भेजा गया बर्लिन में.

सरकार द्वारा दी गई सहायता राशि उन तक नहीं पहुंची. पैसा न होने के कारण उन्हें काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ा. एक वक्त तो ऐसा आ गया कि कंचनमाला के पास खाने तक के पैसे नहीं बचे और उन्हें इसके लिए लोगों से उधार तक लेना पड़ा. इसके बावजूद कंचनमाला और सुयश जाधव ने रजत पदक जीता और वर्ल्ड चैंपियनशिप के लिए क्वालीफाई किया.

भारत में ले-देकर एक ही खेल धनवान है और वह है क्रिकेट... ओलंपिक का क्या जिसमें बाकी देश खिलाड़ियों पर धन बरसा रहे हैं और खिलाड़ी इसका फल भी दे रहे हैं. वहीं भारत में खिलाड़ियों से पदक की उम्मीद तो रखी जा रही है लेकिन सहूलियत के नाम पर ठेंगा दिखा दिया जा रहा है. यानी खिलाड़ियों को पैसा और सहूलियत न मिले और हम पदक की उम्मीद रखें ये तो सरासर गलत है. यही नहीं...

ओलंपिक से एक भी पदक न जीतने का मलाल अपनी जगह है, लेकिन गिरेबां में झांककर कभी देखा है कि इन खिलाड़ियों को हमने दिया क्या है? सिर्फ थोड़ा सा नाम और परिवार  का पेट भरने के लिए नौकरी... जिस देश में सालभर तक क्रिकेटर भगवान की तरह पूजे जाते हों, उस देश में साइना नेहवाल और सानिया मिर्जा को छोड़कर अन्य खेलों के खिलाड़ी पेट पालने की चिंता में ही अपना दिमाग खपाए रहते हैं.

अभी का ही मामला ले लीजिए. इससे आप सभी को समझ आ जाएगा कि ओलंपिक में खिलाड़ियों की स्थिति कैसी है. पैरा तैराक कंचनमाला पांडे को बर्लिन में लोगों से आर्थिक मदद मांगने के लिए मजबूर होना पड़ा. पूरी तरह से दृष्टिहीन कंचनमाला सहित छह खिलाड़ियों को भारत की ओर से तीन से 9 जुलाई तक हुई बर्लिन पैरा स्विमिंग चैंपियनशिप में भाग लेने के लिए भेजा गया था, लेकिन उन्हें इस यात्रा पर सरकार और भारतीय पैरालंपिक समिति की गलतियों का खामियाजा भुगतना पड़ा.

पेरालंपिक की खिलाड़ी कंचनलता जिसे बिना पैसे भेजा गया बर्लिन में.

सरकार द्वारा दी गई सहायता राशि उन तक नहीं पहुंची. पैसा न होने के कारण उन्हें काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ा. एक वक्त तो ऐसा आ गया कि कंचनमाला के पास खाने तक के पैसे नहीं बचे और उन्हें इसके लिए लोगों से उधार तक लेना पड़ा. इसके बावजूद कंचनमाला और सुयश जाधव ने रजत पदक जीता और वर्ल्ड चैंपियनशिप के लिए क्वालीफाई किया.

भारत में ले-देकर एक ही खेल धनवान है और वह है क्रिकेट... ओलंपिक का क्या जिसमें बाकी देश खिलाड़ियों पर धन बरसा रहे हैं और खिलाड़ी इसका फल भी दे रहे हैं. वहीं भारत में खिलाड़ियों से पदक की उम्मीद तो रखी जा रही है लेकिन सहूलियत के नाम पर ठेंगा दिखा दिया जा रहा है. यानी खिलाड़ियों को पैसा और सहूलियत न मिले और हम पदक की उम्मीद रखें ये तो सरासर गलत है. यही नहीं ऐसे मामलों की लंबी फहरिस्त है जहां देश को पदक दिलाने वाले खिलाड़ियों को गरीबी देखनी पड़ी. कोई गोल गप्पे बेचने को मजबूर हुआ तो कोई डाकू ही बन गया.

ओलंपिक एथलीट केडी जाधव जिन्होंने तंगहाली और मुश्किलों से काटी जिंदगी

के. डी जाधव

सरकारी रवैये की हद यहां तक थी कि जब जाधव 1952 के हेलसिंकी ओलिंपिक में जा रहे थे तो सरकार ने उन्हें पैसे देने से मना कर दिया था. उस मुश्किल समय में उनकी सहायता राजा राम कॉलेज के प्रिसिंपल खाडेकर ने की. खाडेकर ने उनकी मदद करने के लिए अपना घर गिरवी रखा था. जाधव ने वहां पहुंच कर देश को ओलंपिक में पहला पदक ब्रॉन्ज मेडल दिलाया. इसके बाद भी उनके जीवन में कोई सुधार नहीं आया और वे अपना पूरा जीवन तंगहाली और मुश्किलों में ही गुजारी. 1984 में एक रोड ऐक्सिडेंट में उनका देहांत हो गया.

एथलीट पान सिंह तोमर जो बाद में डकैत बना.

पान सिंह तोमर (एथलीट)

पान सिंह तोमर का नाम सामने आते ही लोग इसे खिलाड़ी से ज्यादा डाकू मानते थे पर तिंग्माशु धूलिया ने उन पर फिल्म बना कर लोगों को दिखाया कि वह डाकू से पहले एक शानदार खिलाड़ी थे. डाकू बनने से पहले पान सिंह ने रेस में 7 बार का नैशनल चैंपियन का खिताब जीता और साथ ही विश्व पटल पर भी भारत का नाम रोशन किया. कहा जाता है कि पुलिस और प्रशासन के रवैये से परेशान होकर पान सिंह डकैत बन गया था. 1 अक्टूबर 1981 को पुलिस एनकाउंटर में उसकी मौत हो गई.

देश का नाम रोशन करने वाली सीता आज सड़कों पर गोल गप्पे बेच रही है.

सीता साहू: बेच रही हैं गोल गप्पे

एथेंस मे हुए एक विशेष ओलंपिक में 200 मीटर और 1600 मीटर की दौड़ में कांस्य पदक जीतने वाली सीता गरीबी का जीवन जी रही हैं. उन्होंने यह दौड़ 15 वर्ष की अल्पायु में जीती थी. लेकिन देश का नाम रौशन करने के बावज़ूद भी वे आज सड़कों पर गोल गप्पे बेच रही हैं.

हॉकी प्लेयर राजविंदर जिसने सरकार से लापरवाही से परेशान होकर सुसाइड किया.

राजविंदर कौर: सरकार की लापरवाही से परेशान होकर आत्महत्या की

20 वर्षीय राजविंदर कौर ने जूनियर राष्ट्रीय हॉकी चैम्पियनशिप में पंजाब का प्रतिनिधित्व किया था. वे पुलिस सेवा में शामिल होना चाहते थे, लेकिन गरीबी के कारण कौर बीए सेकेंड इयर की फीस देने में असमर्थ थे. अपनी गरीबी और सरकार की लापरवाही के चलते उन्होंने पिछले साल एक चलती ट्रेन के सामने आकर खुद को मार डाला.

ये तो महज चंद खिलाड़ी हैं... ऐसे कई खिलाड़ी हैं जिन्होंने देश को विदेश में मान तो दिलाया. लेकिन मिला कुछ नहीं. सवाल है कि, आखिर कब इन खिलाड़ियों पर खर्चा होगा ? कब तक खेल के मैदान के सुपरस्टार्स को गोल गप्पे और झाड़ू पोछा करना होगा ? इस सवालों का जवाब सरकार और एसोसिएशन को काम करके ही देना होगा. जब तक हमारे देश में अन्य खेलों के लिए क्रांतिकारी बदलाव नहीं आएंगे, जब तक देश की सरकार खिलाड़ियों को राष्ट्रीय संपत्ति नहीं मानेगी, हमें खिलाड़ियों से झोलीभर पदक जीतने की उम्मीद रखना बेमानी ही होगी.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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