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हमने 'सफेद' क्रिकेट देखी थी, अब इसकी हर बात 'रंगीन' है

    • खुशदीप सहगल
    • Updated: 14 जुलाई, 2019 02:57 PM
  • 14 जुलाई, 2019 02:57 PM
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आईपीएल, चीयरलीडर्स, नाइट पार्टीज़ ने आज क्रिकेट को तमाशा अधिक बना दिया है. अब इसकी हर बात कॉमर्शियल है. सत्तर के दशक के शुरू तक क्रिकेट खिलाड़ियों का मेहनताना प्रति दिन के हिसाब से कुछ सौ रुपये में ही होता था. आज क्रिकेटर की कमाई के स्रोत अनंत हैं.

पहले क्रिकेट को घरों में रेडियो-ट्रांजिस्टर पर सुना जाता था. आज टीवी पर क्रिकेट को देखा जाता है. टीवी पर आज क्रिकेट देखने के साथ सुना भी जाता है, ये जानकर नहीं लिख रहा. क्योंकि इसमें सुनने जैसी कोई बात नहीं है. ना भी सुना जाए तो देखने और स्क्रीन पर स्कोर बोर्ड पढ़ने से भी काम चल सकता है.

मैं विशेष तौर पर आजकल टीवी पर की जाने वाली उस कमेंट्री की बात कर रहा हूं, जो मैदान से नहीं होती. विश्व कप के मैच इंग्लैंड में हो रहे हैं. लेकिन ये कमेंट्री दिल्ली-मुंबई के स्टूडियोज़ से ही की जाती है. ये क्या बोलते हैं, कैसा बोलते हैं, जिन्होंने भी इन्हें सुना है, वो बेहतर बता सकते हैं. मैं इसपर कोई कमेंट नहीं करूंगा.

हां, उस दौर का ज़िक्र ज़रूर करना चाहूंगा जब जसदेव सिंह, सुशील दोषी, मुरली मनोहर मंजुल और रवि चतुर्वेदी हिंदी में रेडियो पर कमेंट्री करते थे. ये जब 'आंखों देखा हाल' सुनाते थे तो शब्दों और आवाज़ के उतार चढाव से ही सुनने वालों के ज़ेहन में क्रिकेट के मैदान की हर फील को उकेर देते थे. क्रिकेट का वो रोमांच अद्भुत था. इसे नोस्टेलजिया भी कह सकते हैं. इसे वही जान सकते हैं जिन्होंने उस कमेंट्री को पॉकेट ट्रांज़िस्टर स्कूल या दफ्तर छुपाकर ले जाकर सुना है.

तकनीक के मामले में आज का क्रिकेट काफी विकसित हो चुका है

तकनीक विकसित होने के साथ क्रिकेट मैचों का प्रसारण भी उन्नत हुआ है. टीवी पर ब्लैक एंड व्हाइट प्रसारण के दिनों से आज वो दौर भी आ गया है जब स्टम्प्स पर ही कैमरे लगे होते हैं. स्टम्प पर बॉल छूते ही लाइट जल जाती है. कई-कई कोणों से मैच दिखाया जाता है. ब्लैक एंड व्हाइट प्रसारण के दौर में विकेट के एक तरफ ही टीवी कैमरे लगे होते थे. उस वक्त एक ओवर बैट्समैन को सामने की तरफ से बैटिंग करते देखा जाता था, यानी उसका मुंह कैमरे की तरफ...

पहले क्रिकेट को घरों में रेडियो-ट्रांजिस्टर पर सुना जाता था. आज टीवी पर क्रिकेट को देखा जाता है. टीवी पर आज क्रिकेट देखने के साथ सुना भी जाता है, ये जानकर नहीं लिख रहा. क्योंकि इसमें सुनने जैसी कोई बात नहीं है. ना भी सुना जाए तो देखने और स्क्रीन पर स्कोर बोर्ड पढ़ने से भी काम चल सकता है.

मैं विशेष तौर पर आजकल टीवी पर की जाने वाली उस कमेंट्री की बात कर रहा हूं, जो मैदान से नहीं होती. विश्व कप के मैच इंग्लैंड में हो रहे हैं. लेकिन ये कमेंट्री दिल्ली-मुंबई के स्टूडियोज़ से ही की जाती है. ये क्या बोलते हैं, कैसा बोलते हैं, जिन्होंने भी इन्हें सुना है, वो बेहतर बता सकते हैं. मैं इसपर कोई कमेंट नहीं करूंगा.

हां, उस दौर का ज़िक्र ज़रूर करना चाहूंगा जब जसदेव सिंह, सुशील दोषी, मुरली मनोहर मंजुल और रवि चतुर्वेदी हिंदी में रेडियो पर कमेंट्री करते थे. ये जब 'आंखों देखा हाल' सुनाते थे तो शब्दों और आवाज़ के उतार चढाव से ही सुनने वालों के ज़ेहन में क्रिकेट के मैदान की हर फील को उकेर देते थे. क्रिकेट का वो रोमांच अद्भुत था. इसे नोस्टेलजिया भी कह सकते हैं. इसे वही जान सकते हैं जिन्होंने उस कमेंट्री को पॉकेट ट्रांज़िस्टर स्कूल या दफ्तर छुपाकर ले जाकर सुना है.

तकनीक के मामले में आज का क्रिकेट काफी विकसित हो चुका है

तकनीक विकसित होने के साथ क्रिकेट मैचों का प्रसारण भी उन्नत हुआ है. टीवी पर ब्लैक एंड व्हाइट प्रसारण के दिनों से आज वो दौर भी आ गया है जब स्टम्प्स पर ही कैमरे लगे होते हैं. स्टम्प पर बॉल छूते ही लाइट जल जाती है. कई-कई कोणों से मैच दिखाया जाता है. ब्लैक एंड व्हाइट प्रसारण के दौर में विकेट के एक तरफ ही टीवी कैमरे लगे होते थे. उस वक्त एक ओवर बैट्समैन को सामने की तरफ से बैटिंग करते देखा जाता था, यानी उसका मुंह कैमरे की तरफ रहता था. फिर अगले ओवर में बैट्समैन के बैटिंग करते वक्त उसकी पीठ दिखाई देती थी.

क्रिकेट के लिए जो क्रेज़ पहले जिस तरह था वैसा आज नहीं दिखता. विश्व कप जैसे बहुराष्ट्रीय टूर्नामेंट जरूर अपवाद हैं. इसका एक कारण ये भी हो सकता है कि उस वक्त आज की तरह पूरा साल क्रिकेट नहीं होता था.

ब्लैक एंड व्हाइट प्रसारण के दौर में विकेट के एक तरफ ही टीवी कैमरे लगे होते थे

आईपीएल, चीयरलीडर्स, नाइट पार्टीज़ ने आज क्रिकेट को तमाशा अधिक बना दिया है. अब इसकी हर बात कॉमर्शियल है. सत्तर के दशक के शुरू तक क्रिकेट खिलाड़ियों का मेहनताना प्रति दिन के हिसाब से कुछ सौ रुपये में ही होता था. आज क्रिकेटर की कमाई के स्रोत अनंत हैं. मैं किसी स्याह स्रोत की नहीं, सफेद स्रोतों की ही बात कर रहा हूं.

देश में सत्तर के दशक तक क्रिकेट और हॉकी समान तौर पर लोकप्रिय थे. 1975 में कुआलालंपुर में भारत ने हॉकी का विश्व कप जीता था तो हॉकी खिलाड़ियों को देश ने वैसे ही हाथों हाथ लिया था जैसे कि क्रिकेट का वर्ल्ड कप जीतने पर क्रिकेटर्स को 1983 और 2011 में लिया था. उस वक्त अजीत पाल सिंह, सुरजीत सिंह, गोविंदा, असलम शेर खान और अशोक कुमार (मेजर ध्यानचंद के सुपुत्र) समेत हॉकी टीम के सभी सदस्यों का सम्मान नायकों की तरह किया गया था. लेकिन 1983 में इंग्लैंड में कपिल देव के डेविल्स ने वर्ल्ड कप जीता तो उसी के साथ क्रिकेट का कॉमर्शियलाइज़ेशन शुरू हुआ. ये वही दौर था जब देश में कलर टेलीविज़न नया नया आया था.

क्रिकेट से जैसे-जैसे पैसा जुड़ता गया वैसे-वैसे इसके उत्थान के साथ भारत में हॉकी का पतन भी होता गया. अस्सी के दशक के मध्य में ही शारजाह में अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट मैचों का आयोजन शुरू हुआ. क्रिकेट पर सट्टेबाज़ी बड़े पैमाने पर की जाने लगी. उन्हीं दिनों में ऐसी तस्वीरें भी सामने आईं जिसमें शारजाह में अंडरवर्ल्ड डॉन दाऊद इब्राहिम को मैच देखते हुए ही फोन पर बातें करते देखा जा सकता था. आगे चलकर क्रिकेट के सफेद दामन पर फिक्सिंग के दाग़ भी लगे.

क्रिकेट को दुनिया भर में गवर्न करने वाली संस्था आईसीसी की कमान जहां पहले इंग्लैंड जैसे देश के क्रिकेट बोर्डों के हाथ में रहती थी वो भी भारत जैसे उपमहाद्वीप के देशों के हाथ में आ गई. आईसीसी का हेडक्वार्टर भी लंदन की जगह दुबई हो गया. भारत का क्रिकेट बोर्ड (BCCI) आज दुनिया के सभी क्रिकेट बोर्डों में सबसे अमीर और सबसे शक्तिशाली माना जाता है. क्रिकेट मैचों के टीवी प्रसारण अधिकार बेचने से ही बोर्ड को अरबों की कमाई होती है. लेकिन इतना सब होने के बाद भी क्रिकेट से आज उसकी आत्मा गायब नज़र आती है. शायद मेरे ये विचार जेनेरेशन गैप भी हो सकते हैं.

हमने बचपन में सफ़ेद क्रिकेट देखी है, खेली है. अब क्रिकेट रंगीन है. इसलिए इसकी हर बात रंगीन है.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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