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BJP ज्वाइन करने वाले मिथुन चक्रवर्ती ने कच्ची गोलियां नहीं खेली हैं!

    • नवीन चौधरी
    • Updated: 10 मार्च, 2021 06:14 PM
  • 10 मार्च, 2021 06:14 PM
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एक्टर मिथुन चक्रवर्ती (Mithun Chakraborty) द्वारा भाजपा ज्वाइन करने के फ़ौरन बाद से ही सोशल मीडिया पर एक वर्ग खुलकर मिथुन के विरोध में आ गया है और उन्हें लेकर तरह तरह की बातें कर रहा है. मिथुन के आलोचकों को समझना चाहिए कि उन्होंने ये फैसला पूरी तरह से सोच समझकर किया है.

मिथुन चक्रवर्ती (Mithun Chakraborty) ने अब जब भाजपा जॉइन कर ली तो उन्हें नाकारा साबित करने में एक पक्ष को लगना ही है और वह लगा हुआ है. इसी सीरीज में एक युवा मित्र का पोस्ट देखा जिसमें लिखा था कि जिसकी फिल्में नहीं चली उसके सहारे जीतने चले हैं. प्रथम दृष्टया सुनने में यह सही लगता है क्योंकि मिथुन ने तकरीबन 200 फ्लॉप फिल्में दी हैं लेकिन हकीकत के कई रूप होते हैं. यह सब फिल्में फ्लॉप मुम्बई में बैठे बड़े फ़िल्म क्रिटिक्स या इन्हीं शहरों में बैठे बड़े पत्रकारों की नजर में थी. असल में इन सब फिल्मों ने मुनाफा कमाया और प्रोड्यूसर को भी अच्छा खासा पैसा मिला. मिथुन ने ऊटी में होटल व्यवसाय शुरू किया और उन्होंने उन फिल्मों को साइन करना शुरू किया जो ऊटी और आसपास में ही शूटिंग कर सकें. मिथुन उन्हें एकमुश्त डेट देते, होटल में ही क्रू के रहने का इंतजाम होता, स्थानीय कलाकारों को एक्स्ट्रा के रोल मिल जाते. फ़िल्म कुछ ही महीनों में कम बजट में तैयार. 2005 से 2010 के बीच मिथुन के इस बिजनेस मॉडल पर बहुत सी स्टोरीज हुई और इन्हीं लोगों की नजर में मिथुन दुबारा दूसरे रूप में आये.

भाजपा ज्वाइन करने के बाद मिथुन को लेकर सोशल मीडिया पर तरह तरह की बातें हो रही हैं

अब सवाल उठता है कि ऐसे बनने वाली फिल्मों को लाभ कहां से होता था. मिथुन और प्रोड्यूसर कभी भी इन फिल्मों को समाज के एलीट तबके या मध्यम वर्ग के लिये नहीं बनाते थे. यह फिल्में छोटे शहरों के निम्न आय वर्ग को ध्यान में रख कर बनाई जाती थी. दर्शक नई फ़िल्म और मिथुन को देखने टूट पड़ते. टिकट के दाम कम होते थे तो क्या, प्रोडक्शन की लागत भी तो कम थी.

मिथुन ने इन फ्लॉप फिल्मों के जरिये कई छोटे प्रोड्यूसर और कलाकारों को लंबे समय तक रोजगार चलाने में मदद की है. अंततः फ़िल्म एक बड़ी जनसंख्या द्वारा...

मिथुन चक्रवर्ती (Mithun Chakraborty) ने अब जब भाजपा जॉइन कर ली तो उन्हें नाकारा साबित करने में एक पक्ष को लगना ही है और वह लगा हुआ है. इसी सीरीज में एक युवा मित्र का पोस्ट देखा जिसमें लिखा था कि जिसकी फिल्में नहीं चली उसके सहारे जीतने चले हैं. प्रथम दृष्टया सुनने में यह सही लगता है क्योंकि मिथुन ने तकरीबन 200 फ्लॉप फिल्में दी हैं लेकिन हकीकत के कई रूप होते हैं. यह सब फिल्में फ्लॉप मुम्बई में बैठे बड़े फ़िल्म क्रिटिक्स या इन्हीं शहरों में बैठे बड़े पत्रकारों की नजर में थी. असल में इन सब फिल्मों ने मुनाफा कमाया और प्रोड्यूसर को भी अच्छा खासा पैसा मिला. मिथुन ने ऊटी में होटल व्यवसाय शुरू किया और उन्होंने उन फिल्मों को साइन करना शुरू किया जो ऊटी और आसपास में ही शूटिंग कर सकें. मिथुन उन्हें एकमुश्त डेट देते, होटल में ही क्रू के रहने का इंतजाम होता, स्थानीय कलाकारों को एक्स्ट्रा के रोल मिल जाते. फ़िल्म कुछ ही महीनों में कम बजट में तैयार. 2005 से 2010 के बीच मिथुन के इस बिजनेस मॉडल पर बहुत सी स्टोरीज हुई और इन्हीं लोगों की नजर में मिथुन दुबारा दूसरे रूप में आये.

भाजपा ज्वाइन करने के बाद मिथुन को लेकर सोशल मीडिया पर तरह तरह की बातें हो रही हैं

अब सवाल उठता है कि ऐसे बनने वाली फिल्मों को लाभ कहां से होता था. मिथुन और प्रोड्यूसर कभी भी इन फिल्मों को समाज के एलीट तबके या मध्यम वर्ग के लिये नहीं बनाते थे. यह फिल्में छोटे शहरों के निम्न आय वर्ग को ध्यान में रख कर बनाई जाती थी. दर्शक नई फ़िल्म और मिथुन को देखने टूट पड़ते. टिकट के दाम कम होते थे तो क्या, प्रोडक्शन की लागत भी तो कम थी.

मिथुन ने इन फ्लॉप फिल्मों के जरिये कई छोटे प्रोड्यूसर और कलाकारों को लंबे समय तक रोजगार चलाने में मदद की है. अंततः फ़िल्म एक बड़ी जनसंख्या द्वारा देखी जाती और पैसे कमाती है. 'मैं गरीबों के लिए हीरो हूं और तुम जैसे लोगों के लिए विलेन, नाम है मेरा शंकर, हूं मैं गुंडा नंबर वन' जैसे डायलॉग उस वर्ग को आकर्षित करते हैं जहां उन्हें न्याय फिल्मों में ही मिलता दिखता है. यह जनसंख्या वही है जिसे बुर्जुआ से बचाने को कॉमरेड कमर कसे खड़े रहते हैं.

इस देश की बड़ी जनसंख्या अब भी निम्न आय वर्ग की है. उनकी पसंद, जीवनशैली, सोच-विचार को आप तब तक नहीं समझ सकते जब तक कि आप जमीन पर उनके बीच में जाकर काम न करें. यह वर्ग इतना भी गरीब नहीं कि उसके भूख से मरने पर कविताएं लिखी जा सकें, लेकिन इतना भी नहीं कमाता कि वह किसी की नजर में आये. यह वर्ग देश का बहुत बड़ा अनदेखा वर्ग है, मार्केट के तौर पर. जिन कंपनियों को एक 'क्लास' वाली ब्रांड इमेज का मोह नहीं वो कंपनियां इस मार्केट से भी खूब कमा रही है.

साल 2015-16 के दौर में देश का सबसे ज्यादा बिकने वाला मोबाइल फ़ोन 'इंटेक्स' का था. यह माइक्रोमैक्स और सैमसंग को पछाड़ कर वहां पहुंचा था क्योंकि इसने सिर्फ टियर 2- 3 शहरों और गांवों में रहने वाले इस आय वर्ग को टारगेट किया. हॉटस्टार में काम करने वाले एक मित्र ने बताया की एमएक्स प्लेयर की व्यूअरशिप देश में प्राइम और नेटफ्लिक्स की कंबाइंड के बराबर है. कारण कि उन्होंने टियर 2-3 शहरों को टारगेट करते हुए कम बजट में छोटे स्टार्स के साथ वेबसीरीज बनाई, फिल्में दी और यह सब मुफ्त.

जिस सेगमेंट की इतनी संख्या हो उसकी महत्ता को मार्केट के अलावा राजनीति में समझा जा सकता है क्योंकि हर व्यक्ति एक वोट है. यह वोटर बाहर भी निकलता है और जम कर वोट करता है निर्णायक स्थिति उत्पन्न करने में एक कारक होता है.

'देखने में बेवड़ा, भागने में घोड़ा और मारने में हथौड़ा'' डॉयलोग मारने वाले मिथुन कितना दौड़ेंगे, क्या वाकई TMC के वोट बैंक को हथौड़े से तोड़ देंगे यह तो भविष्य के गर्भ में छुपा है लेकिन नेशनल अवार्ड विनर, कई लोकप्रिय फिल्मों के अभिनेता, लोकप्रिय शो के जज रहे मिथुन को सिर्फ इस आधार पर खारिज करना नामुमकिन है कि उन्होंने सैंकड़ो फ्लॉप फिल्में दी. गुंडा नंबर वन शंकर इस वक्त भाजपा विरोधियों के लिए विलेन हो सकता है, लेकिन जनता के बड़े वर्ग के लिए तो हीरो ही है.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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