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आज के दौर में लेखक नहीं, बेहतर पाठक बनना बहुत ज़रूरी है!

    • स्वाति सिंह परिहार
    • Updated: 04 सितम्बर, 2022 03:50 PM
  • 04 सितम्बर, 2022 03:50 PM
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जो लिखा जा रहा है, उसे हमेशा पढ़ा जाएगा, हर लेखन का अपना पाठक बेस होता है, लेकिन लिखना कब है, कैसे है इसका शॉर्टकट क्या हो सकता है की जगह हमें अपने पढ़ने पर ध्यान केंद्रित करना होगा, बेहतर पाठक बनना हमारे लिए सबसे पहले और सबसे ज़्यादा ज़रूरी है.

आज के सोशल मीडिया युग में जबकि लिखना और अपनी बात ज़्यादा से ज़्यादा लोगों तक पहुंचा पाना बहुत आसान हो गया है, तब क्या ऐसा भी नहीं हो रहा कि बोल तो बहुत लोग रहे हैं, पर सुन कोई नहीं रहा? लिखने को लेकर लोगों में उत्सुकता बढ़ी है, लेकिन क्या लिखना है और क्या लिखा जाना चाहिए के प्रति उतनी ही उदासीनता भी बढ़ी है.ख़ैर, यहां विषय लेखन से ज़्यादा पठन है तो पढ़ने की बात को आगे बढ़ाते हैं और उस पर भी हमारे बीच कितने पाठक बचे हैं से पहले हमारे भीतर पाठक होना कितना बचा है, इस पर सोचना, बात करना बेहद ज़रूरी है, जो अमूमन नहीं होता है. लेखकों को कैसा लिखना चाहिए,अच्छा लेखक कैसे बनें पर बातचीत,बहस तो होती है, लेकिन बेहतर पाठक कैसे बनें इसपर कोई बातचीत नहीं हो पाती.

ये देखना अपने आप में अजीब है कि आज के दौर में हर आदमी लेखक है, जबकि उसे पहले पढ़ना चाहिए

जैसा अज्ञेय अपनी डायरी में लिखते हैं, हम ‘महान साहित्य’ और ‘महान लेखक’ की चर्चा तो बहुत करते हैं. पर क्या ‘महान पाठक’ भी होता है? या क्यों नहीं होता, या होना चाहिए? क्या जो समाज लेखक से ‘महान साहित्य’ की मांग करता है, उससे लेखक भी पलट कर यह नहीं पूछ सकता कि ‘क्या तुम महान समाज हो?’

पिछले दिनों दिल्ली में किताब साइन करवाने का एक इवेंट था, जहां लेखक-पाठक संवाद के दौरान जब लोग अपना परिचय दे रहे थे तो ज़्यादातर लोग लेखक से सवाल करते वक़्त यह बताना चूक नहीं रहे थे कि मैं भी लेखक हूं. क्या किसी संवाद में हम सिर्फ पाठक की पहचान के साथ नहीं जी सकते या थोड़ी देर ठहर नहीं सकते? किसी-किसी की बातों से तो ऐसा महसूस होने लगा कि वो बताना चाह रहे हों कि वो सामने बैठे लेखक से भी ज़्यादा लेखक हैं. (फिर भी वो वहां क्यों आए थे पता नहीं)

लेखक होने...

आज के सोशल मीडिया युग में जबकि लिखना और अपनी बात ज़्यादा से ज़्यादा लोगों तक पहुंचा पाना बहुत आसान हो गया है, तब क्या ऐसा भी नहीं हो रहा कि बोल तो बहुत लोग रहे हैं, पर सुन कोई नहीं रहा? लिखने को लेकर लोगों में उत्सुकता बढ़ी है, लेकिन क्या लिखना है और क्या लिखा जाना चाहिए के प्रति उतनी ही उदासीनता भी बढ़ी है.ख़ैर, यहां विषय लेखन से ज़्यादा पठन है तो पढ़ने की बात को आगे बढ़ाते हैं और उस पर भी हमारे बीच कितने पाठक बचे हैं से पहले हमारे भीतर पाठक होना कितना बचा है, इस पर सोचना, बात करना बेहद ज़रूरी है, जो अमूमन नहीं होता है. लेखकों को कैसा लिखना चाहिए,अच्छा लेखक कैसे बनें पर बातचीत,बहस तो होती है, लेकिन बेहतर पाठक कैसे बनें इसपर कोई बातचीत नहीं हो पाती.

ये देखना अपने आप में अजीब है कि आज के दौर में हर आदमी लेखक है, जबकि उसे पहले पढ़ना चाहिए

जैसा अज्ञेय अपनी डायरी में लिखते हैं, हम ‘महान साहित्य’ और ‘महान लेखक’ की चर्चा तो बहुत करते हैं. पर क्या ‘महान पाठक’ भी होता है? या क्यों नहीं होता, या होना चाहिए? क्या जो समाज लेखक से ‘महान साहित्य’ की मांग करता है, उससे लेखक भी पलट कर यह नहीं पूछ सकता कि ‘क्या तुम महान समाज हो?’

पिछले दिनों दिल्ली में किताब साइन करवाने का एक इवेंट था, जहां लेखक-पाठक संवाद के दौरान जब लोग अपना परिचय दे रहे थे तो ज़्यादातर लोग लेखक से सवाल करते वक़्त यह बताना चूक नहीं रहे थे कि मैं भी लेखक हूं. क्या किसी संवाद में हम सिर्फ पाठक की पहचान के साथ नहीं जी सकते या थोड़ी देर ठहर नहीं सकते? किसी-किसी की बातों से तो ऐसा महसूस होने लगा कि वो बताना चाह रहे हों कि वो सामने बैठे लेखक से भी ज़्यादा लेखक हैं. (फिर भी वो वहां क्यों आए थे पता नहीं)

लेखक होने की इतनी होड़ क्यों है कि आप पाठक नहीं हो पा रहे या पाठक होने को पीछे छोड़े दे रहे हैं? आप किताबें पढ़ भी रहें हैं तो इसलिए कि लेखकों का कहना है कि अच्छा लिखने के लिए अच्छा पढ़ना ज़रूरी है. अंततः सबकुछ आप लिखने के लिए ही कर रहे हैं, लेकिन इस सब में आपसे जो सबसे ज़रूरी चीज़ छूट रही है, वो है एक पाठक की यात्रा, लिखे को जीना, किताब का हो जाना, किताब में लिखे हर शब्द को महसूसना, अपनी कल्पनाओं को उड़ान देना, लेखक के नक्शे में अपना संसार रचना और उसमें खो जाना.

पाठक के संसार की थाह नहीं है, उसकी एक दुनिया में कई दुनिया हैं और वो कभी इस दुनिया कभी उस दुनिया में रह सकता है. किसी एक बात को लेखक द्वारा सिर्फ एक बार लिखा जाता है, लेकिन वो बात जितने पाठकों से होकर गुज़रती है, उतनी कल्पनाएं, उतने दृष्टिकोण उसमें जुड़ते जाते हैं. वर्तमान परिदृश्य में युवा जो किताबों की ओर रुख कर रहे हैं, उनमें एक बात सामान्यतः देखी जा सकती है कि, भले ही उन्होनें पढ़ना अभी-अभी शुरू किया हो, लेकिन पढ़ने की होड़ में, मेरी समझ सबसे बेहतर की होड़ में वे केवल दिखावे के लिए पढ़ रहे हैं.

उनकी भाषा में एक अहं इस बात का होता है कि मैंने इस किताब या लेखक को इसलिए ही पढ़ा है ताकि मैं उसे कमत्तर साबित कर सकूं. एक प्रवृति इन दिनों यह भी देखने को मिलती है, कि युवाओं की एक भीड़ सोशल मीडिया पर खुद को वजनदार दिखाने के लिए बड़े-बड़े लेखकों के लिखे का मज़ाक बनाने से भी नहीं चूकती. ये आलोचना और भद्दी आलोचना, गाली-गलौज तक से गुरेज नहीं करते, उनके विचार देखकर लगता है कि वे पढ़ने के लिए नहीं, लड़ने के लिए पढ़ रहे हैं.

लेखकों को लेकर अपने-अपने गुट बनाकर, एक-दूसरे के प्रिय लेखकों पर छींटाकशी और मीम्स इनका शगल बन गया है. लेखक का लिखा यदि आप नहीं समझ पा रहे तो ऐसा भी तो हो सकता है कि हम वहाँ तक नहीं पहुँच पा रहे हों, कुछ देर रुककर पढ़ें तो शायद कुछ पकड़ में आ जाये, लेकिन इतना धैर्य हममें है ही नहीं, हम तो पढ़कर तुरंत ही लेखक के लिए जजमेंट बनाकर सोशल मीडिया पर पोस्ट कर देते हैं.

और ऐसा हम सिर्फ आज के लेखकों के लिए ही नहीं, बड़े-पुराने लेखकों के लिए भी कर रहे हैं, मतलब हममें कोई कमी है ही नहीं, हम सर्वज्ञानी हैं और लिखने वाले को कुछ आता ही नहीं, कम से कम एक थोड़े बेहतर पाठक से भी ऐसी उम्मीद तो नहीं ही की जा सकती कि वह क्रूर होता चला जाए. इतिहास को लेकर भी जिस व्हाट्सएप्प ज्ञान पर बवाल मचा रहता है, उसका कारण भी केवल इतना ही है कि हम किसी एक सोर्स से एक जानकारी, एक लाइन पकड़कर पूरे घटनाक्रम का अनुमान लगा लेते हैं.

कभी ये कोशिश नहीं करते कि उसके बारे में और जानें, जो लाइन लिखी है वह किस परिप्रेक्ष्य में लिखी गई है, उसके और कितने दृष्टिकोण हो सकते हैं, उसमें क्या कुछ जोड़ा-घटाया गया है, यदि धैर्य के साथ इतना पढ़ लेंगे तब लड़ने की ज़रूरत ही न पड़ेगी, हम या तो किसी एक दृष्टिकोण से सहमत हो जाएंगे या ज़्यादा से ज़्यादा अपना एक दृष्टिकोण उसमें शामिल कर लेंगे.

ऐसे ही यदि किसी रचना की कोई एक लाइन सोशल मीडिया पर शेयर की गई है और हम उसे नहीं समझ पा रहे, तो हमें पहले उस रचना को पूरा पढ़ना चाहिए, बार-बार पढ़ना चाहिए और तब अपनी राय केवल लिखे पर बनानी चाहिए न कि व्यक्तिगत होकर लेखक के लेखन पर ही सवाल खड़ा कर देना चाहिए.

जो लिखा जा रहा है, उसे हमेशा पढ़ा जाएगा, हर लेखन का अपना पाठक बेस होता है, लेकिन लिखना कब है, कैसे है इसका शॉर्टकट क्या हो सकता है की जगह हमें अपने पढ़ने पर ध्यान केंद्रित करना होगा, बेहतर पाठक बनना हमारे लिए सबसे पहले और सबसे ज़्यादा ज़रूरी है. हड़बड़ाहट में, सोशल मीडिया पर चमकने के लिए या किसी भी और उद्देश्य से नहीं सिर्फ और सिर्फ अपने लिए पढ़ने की रुचि को और पढ़ने के दायरे को बढ़ाने के लिए और अपनी कल्पनाओं को उड़ान देने के लिए पढ़ना बेहद ज़रूरी है.

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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