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सोशल मीडिया पर गाली गलौज का नया वर्जन है 'भक्त' और 'बुद्धिजीवी'

    • अशोक प्रियदर्शी
    • Updated: 07 मार्च, 2016 03:04 PM
  • 07 मार्च, 2016 03:04 PM
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यहां समझना जरूरी है कि भक्त और बुद्धिजीवी शब्द इतना अपमानजनक क्यों बन गया है. दरअसल, इन शब्दों को सियासी जुकाम लग गया है. और इसका खामियाजा ऐसे लोगों को उठाना पड़ रहा है जो न किसी के प्रबल समर्थक हैं और न किसी के प्रबल विरोधी...

'भक्त' शब्द को अंग्रेजी में डिवोटी कहते हैं. उर्दू में मुरीद और संस्कृत में भक्त. इसी तरह 'बुद्धिजीवी' अंग्रेजी में इंटेलेक्च्यूल, उर्दू में अक्लमंद और संस्कृत में ज्ञानात्मन कहे जाते हैं. जाहिर तौर पर भक्त का मतलब भगवान के प्रति अटूट आस्था से है. इसमें तर्क की गुंजाइश नही होती. जबकि बुद्धिजीवी का मतलब विद्धान से है, जो बिना किसी भेदभाव का होता है. लेकिन सोशल मीडिया में भक्त और बुद्धिजीवी गाली गलौज के नए वर्जन के बतौर उभरकर सामने आया है.

ये दोनों शब्द अब एक दूसरे को ठेस पहुंचाने के लिए प्रयोग हो रहे हैं. जेएनयू में देशद्रोही नारे का ही मसला लें. देशद्रोह का आरोपी कन्हैया जेल से जमानत पर रिहा हुआ है. कोर्ट की प्रक्रिया अभी जारी है. लेकिन कन्हैया के पक्ष और विपक्ष में दो मजबूत धरा तैयार है. देखें तो, एक तबका है जो इस मुददे पर बहस के दौरान गाली गलौज के निचले स्तर की भाषा पर उतर जा रहे हैं. इससे अलग एक दूसरा वर्ग है, जो अपेक्षाकृत ज्यादा पढ़ा-लिखा वर्ग माना जाता है. वे लोग बहस के दौरान गली-गलौज की जगह भक्त और बुद्धिजीवी शब्दों का प्रयोग कर एक दूसरे को अपमानित करने की कोशिश करते दिखते हैं.

यहां समझना जरूरी है कि भक्त और बुद्धिजीवी शब्द इतना अपमानजनक क्यों बन गया है. दरअसल, इन शब्दों को सियासी जुकाम लग गया है. सियासत में हर कोई अपने पक्ष को ही सही ठहराने की कोशिश करता है. सियासत में भक्त का मतलब एनडीए सरकार या फिर पीएम नरेंद्र मोदी के समर्थकों के लिए उपयोग किए जाते हैं. जबकि बुद्धिजीवी का मतलब विपक्षी कांग्रेस और खासकर वामपंथी विचारकों के लिए उपयोग किए जाने लगे हैं. जाहिर तौर पर भक्त और बुद्धिजीवी की कोई सीमा नही है. लेकिन जब दोनों कुतर्क पर उतर जाते हैं तब ऐसे शब्दों का प्रयोग कर चुप करने की कोशिश करते दिखते हैं. ये दोनों शब्द इतना दुर्द पहुंचानेवाला हो गया है कि इन शब्दों के बिना बहस पूरी ही नही होती.

देखें तो, सोशल मीडिया में ऐसे शब्दों का प्रचलन लोकसभा चुनाव के पहले से शुरू हुआ था. तब ये देश के दो बड़े सियासी दल...

'भक्त' शब्द को अंग्रेजी में डिवोटी कहते हैं. उर्दू में मुरीद और संस्कृत में भक्त. इसी तरह 'बुद्धिजीवी' अंग्रेजी में इंटेलेक्च्यूल, उर्दू में अक्लमंद और संस्कृत में ज्ञानात्मन कहे जाते हैं. जाहिर तौर पर भक्त का मतलब भगवान के प्रति अटूट आस्था से है. इसमें तर्क की गुंजाइश नही होती. जबकि बुद्धिजीवी का मतलब विद्धान से है, जो बिना किसी भेदभाव का होता है. लेकिन सोशल मीडिया में भक्त और बुद्धिजीवी गाली गलौज के नए वर्जन के बतौर उभरकर सामने आया है.

ये दोनों शब्द अब एक दूसरे को ठेस पहुंचाने के लिए प्रयोग हो रहे हैं. जेएनयू में देशद्रोही नारे का ही मसला लें. देशद्रोह का आरोपी कन्हैया जेल से जमानत पर रिहा हुआ है. कोर्ट की प्रक्रिया अभी जारी है. लेकिन कन्हैया के पक्ष और विपक्ष में दो मजबूत धरा तैयार है. देखें तो, एक तबका है जो इस मुददे पर बहस के दौरान गाली गलौज के निचले स्तर की भाषा पर उतर जा रहे हैं. इससे अलग एक दूसरा वर्ग है, जो अपेक्षाकृत ज्यादा पढ़ा-लिखा वर्ग माना जाता है. वे लोग बहस के दौरान गली-गलौज की जगह भक्त और बुद्धिजीवी शब्दों का प्रयोग कर एक दूसरे को अपमानित करने की कोशिश करते दिखते हैं.

यहां समझना जरूरी है कि भक्त और बुद्धिजीवी शब्द इतना अपमानजनक क्यों बन गया है. दरअसल, इन शब्दों को सियासी जुकाम लग गया है. सियासत में हर कोई अपने पक्ष को ही सही ठहराने की कोशिश करता है. सियासत में भक्त का मतलब एनडीए सरकार या फिर पीएम नरेंद्र मोदी के समर्थकों के लिए उपयोग किए जाते हैं. जबकि बुद्धिजीवी का मतलब विपक्षी कांग्रेस और खासकर वामपंथी विचारकों के लिए उपयोग किए जाने लगे हैं. जाहिर तौर पर भक्त और बुद्धिजीवी की कोई सीमा नही है. लेकिन जब दोनों कुतर्क पर उतर जाते हैं तब ऐसे शब्दों का प्रयोग कर चुप करने की कोशिश करते दिखते हैं. ये दोनों शब्द इतना दुर्द पहुंचानेवाला हो गया है कि इन शब्दों के बिना बहस पूरी ही नही होती.

देखें तो, सोशल मीडिया में ऐसे शब्दों का प्रचलन लोकसभा चुनाव के पहले से शुरू हुआ था. तब ये देश के दो बड़े सियासी दल कांग्रेस और भाजपा के नेताओं के लिए प्रयोग किए जाते थे. तब राहुल गांधी के लिए 'पप्पू' और नरेंद्र मोदी के लिए 'फेंकू' शब्द भी सोशल मीडिया पर काफी ट्रेंड हुआ था. तब दोनों ओर के समर्थक फेंकू और पप्पू नाम से एक दूसरे पर प्रहार किया करते थे. लेकिन चुनाव के बाद सियासी बहस में भक्त और बुद्धिजीवि का प्रचलन बढ़ा है.

मुश्किल यह है कि इन दो धरों के अलावा भी एक बड़ा वर्ग है जिसे मध्यमार्गी कह सकते हैं. जो नही किसी का प्रबल समर्थक और नही किसी का प्रबल विरोधी. लेकिन ऐसे शब्दों के कारण उनकी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता खतरे में पहुंच गई है. वैसे लोग जो इस कट्टरता से अलग विचार रखते हैं. वे अपनी बात को रखने से परहेज करने लगे हैं. क्योंकि इस बहस के बीच आने पर उन्हें भी इन शब्दों के बीच से गुजरना पड़ता है. इसकी पीड़ा अक्सर सोशल मीडिया में ट्रेंड करती दिखती है कि ना ही मैं संघी हूं और ना ही वामपंथी. उनके लिए देश पहले है, पार्टियां बाद में. लेकिन भक्त और बुद्धिजीवी जैसे शब्दों के कारण मध्यमार्गी के जुबान पर ताला लग गया है.

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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