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डॉक्टर कफील खान केस में भी योगी सरकार ने चंद्रशेखर जैसा ही यू-टर्न क्यों लिया ?

    • मृगांक शेखर
    • Updated: 09 अगस्त, 2021 04:44 PM
  • 09 अगस्त, 2021 04:44 PM
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यूपी की योगी आदित्यनाथ (Yogi Adityanath) सरकार ने डॉक्टर कफील खान के खिलाफ दोबारा दिये जांच का आदेश वापस ले लिया है. आम चुनाव से पहले चंद्रशेखर आजाद रावण (Bhim Army Chandra Shekhar) के साथ भी ऐसा ही हुआ था - क्या बीजेपी भी कोई दलित-मुस्लिम खिचड़ी पका रही है?

चुनावों से पहले सरकार के कामकाज काफी बढ़ जाते हैं और तेजी से भी करने पड़ते हैं. उत्तर प्रदेश सहित पांच राज्यों में अगले साल की शुरुआत में विधानसभा के चुनाव होने हैं - और ध्यान से देखें तो फटाफट खाली पड़े निगमों के पदों पर नियुक्तियां करनी पड़ी हैं. जगह जगह शिलान्यास और कई जगह उद्घाटन हो रहे हैं - और जब तक आचार संहिता लागू न हो जाये ये सिलसिला जारी रहने वाला है. जैसे इम्तिहान के वक्त घंटी बजने के बाद भी जब तक कॉपी छीन न ली जाये, लिखने की कोशिशें रुकती नहीं हैं.

योगी आदित्यनाथ (Yogi Adityanath) की ही तरह पंजाब के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह को भी चुनावों में चेहरा और तब तक कुर्सी पर बने रहने के लिए कितनी लड़ाई लड़नी पड़ी. कुछ ऐसे भी मामले रहे जिनकी वजह ने योगी और कैप्टन आपस में भी भिड़े - पहले माफिया डॉन मुख्तार अंसारी और फिर मुस्लिम बहुल मलेरकोटला को नया जिला बनाये जाने को लेकर.

मुख्तार अंसारी की कस्टडी हासिल करने के लिए योगी सरकार को सुप्रीम कोर्ट की मदद लेनी पड़ी. बीजेपी विधायक अलका राय ने कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी वाड्रा को चिट्ठियां भी लिखी थीं, लेकिन उनका कोई असर नहीं हुआ. बीजेपी का आरोप रहा है कि राजनीतिक वजहों से पंजाब की कांग्रेस सरकार ने मुख्तार अंसारी की कस्टडी देने में काफी अड़ंगे लगाये, लेकिन कैप्टन सरकार की तरफ से मुख्तार के स्वास्थ्य की दुहाई दी जाती रही - लेकिन कांग्रेस सरकार का दावा उस वक्त कमजोर नजर आया जब रोपड़ जेल से मोहाली कोर्ट तक व्हील चेयर पर बैठ कर जाने वाला मुख्तार अंसारी जैसे ही बांदा जेल पंहुचा बैरक के अंदर खुद पैरों पर चल कर गया.

मुख्तार अंसारी के मामले में कांग्रेस भले ही पल्ला झाड़ती रही हो, लेकिन डॉक्टर कफील खान के केस (Kafil Khan Case) में तो प्रियंका गांधी वाड्रा की टीम कुछ ज्यादा ही एक्टिव दिखी है. सितंबर, 2020 में मथुरा जेल से रिहाई के वक्त तो कांग्रेस की टीम पलक पांवड़े बिछाये ही रही, राजस्थान के रास्ते भर संभाले रखा जब तक वो वहां नहीं पहुंच गये जहां रहने का इंतजाम किया...

चुनावों से पहले सरकार के कामकाज काफी बढ़ जाते हैं और तेजी से भी करने पड़ते हैं. उत्तर प्रदेश सहित पांच राज्यों में अगले साल की शुरुआत में विधानसभा के चुनाव होने हैं - और ध्यान से देखें तो फटाफट खाली पड़े निगमों के पदों पर नियुक्तियां करनी पड़ी हैं. जगह जगह शिलान्यास और कई जगह उद्घाटन हो रहे हैं - और जब तक आचार संहिता लागू न हो जाये ये सिलसिला जारी रहने वाला है. जैसे इम्तिहान के वक्त घंटी बजने के बाद भी जब तक कॉपी छीन न ली जाये, लिखने की कोशिशें रुकती नहीं हैं.

योगी आदित्यनाथ (Yogi Adityanath) की ही तरह पंजाब के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह को भी चुनावों में चेहरा और तब तक कुर्सी पर बने रहने के लिए कितनी लड़ाई लड़नी पड़ी. कुछ ऐसे भी मामले रहे जिनकी वजह ने योगी और कैप्टन आपस में भी भिड़े - पहले माफिया डॉन मुख्तार अंसारी और फिर मुस्लिम बहुल मलेरकोटला को नया जिला बनाये जाने को लेकर.

मुख्तार अंसारी की कस्टडी हासिल करने के लिए योगी सरकार को सुप्रीम कोर्ट की मदद लेनी पड़ी. बीजेपी विधायक अलका राय ने कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी वाड्रा को चिट्ठियां भी लिखी थीं, लेकिन उनका कोई असर नहीं हुआ. बीजेपी का आरोप रहा है कि राजनीतिक वजहों से पंजाब की कांग्रेस सरकार ने मुख्तार अंसारी की कस्टडी देने में काफी अड़ंगे लगाये, लेकिन कैप्टन सरकार की तरफ से मुख्तार के स्वास्थ्य की दुहाई दी जाती रही - लेकिन कांग्रेस सरकार का दावा उस वक्त कमजोर नजर आया जब रोपड़ जेल से मोहाली कोर्ट तक व्हील चेयर पर बैठ कर जाने वाला मुख्तार अंसारी जैसे ही बांदा जेल पंहुचा बैरक के अंदर खुद पैरों पर चल कर गया.

मुख्तार अंसारी के मामले में कांग्रेस भले ही पल्ला झाड़ती रही हो, लेकिन डॉक्टर कफील खान के केस (Kafil Khan Case) में तो प्रियंका गांधी वाड्रा की टीम कुछ ज्यादा ही एक्टिव दिखी है. सितंबर, 2020 में मथुरा जेल से रिहाई के वक्त तो कांग्रेस की टीम पलक पांवड़े बिछाये ही रही, राजस्थान के रास्ते भर संभाले रखा जब तक वो वहां नहीं पहुंच गये जहां रहने का इंतजाम किया गया था.

डॉक्टर कफील के मामले में कांग्रेस का स्टैंड तो समझ में भी आता है, लेकिन उत्तर प्रदेश की योगी सरकार का कदम आश्चर्य भरा लगता है. यूपी सरकार ने तो जैसे डॉक्टर कफी खान के मामले में यू-टर्न ही ले लिया है - करीब करीब वैसे ही जैसे आम चुनाव से 2018 के आखिर में पहले भीम आर्मी नेता चंद्रशेखर आजाद रावण (Bhim Army Chandra Shekhar) के मामले में लिया था.

कफील खान कैसे बच निकले

योगी आदित्यनाथ के यूपी के सीएम की कुर्सी पर बैठते ही एंटी रोमियो स्क्वॉड के कहर मचाने के बाद जो कोहराम मचा था, वो गोरखपुर के अस्पताल में बच्चों की मौत की घटना थी. अस्पताल में बच्चो की मौत की खबर तो ऑक्सीजन की कमी के चलते होने की आयी थी, लेकिन योगी आदित्यनाथ और पूरा सरकारी अमला खबर को झुठलाने में ही जुट गया.

ऑक्सीजन की कमी के दौरान ही स्थानीय अखबारों में डॉक्टर कफील खान के दोस्तों से सिलेंडर मांग कर बच्चों की जान बचाने की कोशिशों की भी खबरें प्रकाशित हुईं - और लोग उनमें हीरो और मसीहा की छवि देखने लगे.

हिंदुत्व और राष्ट्रवाद के अलावा बीजेपी का कोई दलित-मुस्लिम एजेंडा भी तैयार हो रहा है क्या?

ऑक्सीजन की कमी पर योगी सरकार का रवैया संदेहास्पद तो तभी लगने लगा जब सरकारी अफसर ऑक्सीजन सप्लायर के पीछे लग गये - और फिर 22 अगस्त, 2017 को डॉक्टर कफील खान को भी सस्पेंड कर दिया गया.

कफील खान केस में योगी सरकार की फजीहत तब भी नजर आयी जब इलाहाबाद हाई कोर्ट ने प्रशासन के NSA में बुक करने का फैसला ही अदालत को कानूनन सही नहीं लगा. हैरानी की बात तो ये रही कि डॉक्टर कफील खान के जिस भाषण को प्रशासन ने सांप्रदायिक सद्भाव खराब करने वाला बताया था, वो असल में, सांप्रदायिक सद्भाव बढ़ाने वाला पाया गया.

अलीगढ़ जिला प्रशासन ने CAA के खिलाफ चल रहे विरोध प्रदर्शनों के बीच यूनिवर्सिटी में छात्रों की सभा में भड़काऊ भाषण देने के आरोप में 29 जनवरी 2020 को कफील खान को मुंबई एयरपोर्ट से गिरफ्तार कर लिया था. बाद में अलीगढ़ प्रशासन ने 13 फरवरी को कफील खान के खिलाफ NSA) लगा दिया - और चैलेंज किये जाने पर इलाहाबाद हाई कोर्ट ने 1 सितंबर के अपने फैसले में रिहा करने का आदेश दे दिया था.

मथुरा जेल से छूटने के बाद कफील खान ने यूपी से दूर रहने का फैसला किया. कफील खान को शक था कि यूपी पुलिस नये सिरे से किसी न किसी केस में फंसा कर उनको जेल भेज देगी. कफील खान को कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी वाड्रा की पहल पर राजस्थान रहने के लिए ज्यादा सुरक्षित लगा क्योंकि वहां कांग्रेस की सरकार है और अशोक गहलोत मुख्यमंत्री हैं.

डॉक्टर कफील खान ने राज्य सरकार से कोरोना संकट के दौरान अपनी पेशेवर सेवाएं देने के लिए अनुमति मांगी थी - और अपने निलंबन को भी हाई कोर्ट में चैलेंज भी किया था. फिर 24 फरवरी 2020 को कफील खान के खिलाफ एक और जांच का आदेश हुआ था. कफील खान ने उसे भी हाई कोर्ट में चुनौती दे दी थी.

हाई कोर्ट ने राज्य सरकार को नोटिस देकर पूछा था कि डॉक्टर कफील खान को चार साल से सस्पेंड क्यों रखा गया है - और एक बार जांच रिपोर्ट दाखिल होने के बाद दोबारा जांच के आदेश देने में 11 महीने का समय क्यों लगाया गया?

सरकार की तरफ से जवाब में यूपी के एडिशनल एडवोकेट जनरल मनीष गोयल ने कहा हाई कोर्ट को बताया कि डॉक्टर कफील खान के खिलाफ 24 फरवरी 2020 को दिया गया दोबारा जांच का आदेश वापस ले लिया गया है.

इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के मुताबिक, हाई कोर्ट में दाखिल अपने जवाब में यूपी के एडिशनल एडवोकेट जनरल मनीष गोयल ने कहा, 'तीन महीने की अवधि के अंदर अनुशासनात्मक कार्यवाही को खत्म करने के लिए सभी प्रयास किये जाएंगे.'

खास बात ये रही, रिपोर्ट के अनुसार, कि सस्पेंड किये जाने के बाद डॉक्टर कफील खान को सभी आपराधिक चार्ज से मुक्त कर दिया गया था - और कफील खान के साथ सस्पेंड किये गये नौ में से सात लोगों को अनुशासनात्मक कार्यवाही खत्म होने तक बहाल भी कर दिया गया है - ये मुद्दा अदालत में भी उठा था. केस की अगली सुनवाई 10 अगस्त को होनी है.

चुनाव का चक्कर क्यों लगता है

मथुरा जेल से रिहा होने पर डॉक्टर कफील खान ने एक बड़ा सा बयान दिया था और इस बात पर खुशी जतायी थी कि रास्ते में उनका एनकाउंटर नहीं किया गया. कफील खान का कहना था, 'मैं जुडिशरी का बहुत शुक्रगुजार हूं... इतना अच्छा ऑर्डर दिया है... उत्तर प्रदेश सरकार ने एक झूठा... बेसलेस केस मेरे ऊपर थोपा... बिना बात के ड्रामा करके केस बनाये गये... आठ महीने तक जेल में रखा... जेल में पांच दिन तक बिना खाना, बिना पानी दिये मुझे प्रताड़ित किया गया - मैं उत्तर प्रदेश के STF को भी शुक्रिया कहूंगा कि मुंबई से मथुरा लाते समय मुझे एनकाउंटर में मारा नहीं.'

कफील खान के केस में आगे जो भी हो, अब तक कई बातें साफ हो चुकी हैं. अलीगढ़ जिला प्रशासन ने जो NSA लगाया था वो कानूनी तौर पर सही नहीं था. कफील खान के खिलाफ कोई आपराधिक आरोप साबित नहीं हुआ, इसलिए सारे चार्ज वापस ले लिये गये. दोबारा जांच के आदेश दिये गये वे भी वापस ले लिये गये - और अब उनके खिलाफ अनुशासनात्मक कार्यवाही भी तीन महीने के भीतर पूरी की जाने की कोशिश है.

कांग्रेस पर बीजेपी के आरोप अपनी जगह हैं. मुख्तार अंसारी के मामले में भी और डॉक्टर कफील खान केस में भी, लेकिन कफील खान के केस में योगी आदित्यनाथ सरकार का रवैया ज्यादा राजनीतिक ही लगता है. बिलकुल वैसे ही जैसे सरकार की तरफ से ऑक्सीजन से बच्चों की मौत - और 'अगस्त में तो बच्चे मरते ही हैं' जैसे राजनीतिक बयान सुनने को मिले थे.

कफील खान की ही तरह, यूपी सरकार की तरफ से भीम आर्मी के प्रमुख चंद्रशेखर आजाद रावण के मामले में भी एनएसए लागू करने और कई बार मियाद बढ़ाने के बाद अचानक ही वक्त से पहले रिहाई का फैसला किया गया.

जैसे चंद्रशेखर आजाद 2019 के आम चुनाव से कुछ महीने पहले रिहा कर दिये गये थे, योगी सरकार का ठीक वैसा ही स्टैंड 2022 के विधानसभा चुनावों से पहले डॉक्टर कफील खान के मामले में नजर आ रहा है.

पिछले यूपी विधानसभा चुनाव से पहले संघ प्रमुख मोहन भागवत पांच दिन तक आगरा में डेरा डाले रहे. असल में जुलाई, 2016 में धम्म चेतना यात्रा निकाली जा रही थी. उसी के तहत एक रैली में बीजेपी नेता अमित शाह का कार्यक्रम तय हुआ, लेकिन दलितों के विरोध के चलते वो दौरा रद्द करना पड़ा. फिर संघ प्रमुख ने मोर्चा संभाला और संघ के एक दलित कार्यकर्ता के घर भोजन भी किये.

तब दलितों की तरह और अब मुस्लिमों की तरफ भी संघ का झुकाव दिखाने की कोशिश देखी गयी है. मोहन भागवत अब सभी भारतीयों का डीएनए एक ही बता रहे हैं. पिछले महीने एक कार्यक्रम में मोहन भागवत ने कहा था, 'सभी भारतीयों का डीएनए एक है... चाहे वे किसी भी धर्म के क्यों न हों... लोगों के बीच पूजा पद्धति के आधार पर अंतर नहीं किया जा सकता...'

ये क्या चक्कर है? चुनावों से पहले बीजेपी का स्टैंड क्यों बदल रहा है? क्या कोई मजबूरी है? विरोध प्रदर्शनों के चलते चंद्रशेखर आजाद रावण बाद में भी जेल जाते और जमानत पर छूटते रहे हैं, लेकिन एक बार वक्त से पहले जेल से रिहा करने के बाद कभी वैसी कार्रवाई तो नहीं ही हुई. कफील खान के मामले में भी करीब करीब वही रवैया देखने को मिल रहा है - बीजेपी को दलित-मुस्लिम वोट बैंक से कोई अलग अपेक्षा हो रही है क्या?

लेकिन एक कार्यक्रम में योगी आदित्यनाथ ने मुलायम सिंह यादव को अखिलेश यादव के 'अब्बाजान' बोल कर तो कोई और ही मैसेज देने की कोशिश की थी - हो सकता है मुख्यमंत्री समाजवादी नेता के बयान आने से पहले ही अयोध्या में कारसेवकों पर गोली चलवाने की घटना याद दिलाने की कोशिश कर रहे हों!

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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