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योगी आदित्यनाथ ने तो अपराधियों की ही तरह विरोधियों को भी ठोक दिया

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    • Updated: 19 मार्च, 2021 11:10 PM
  • 19 मार्च, 2021 11:10 PM
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योगी आदित्यनाथ (Yogi Adityanath) के मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठने के चार साल (4 Years of Yogi Sarkar) बाद उत्तर प्रदेश में विपक्षी राजनीति (Uttar Pradesh Politics) का तकरीबन सफाया हो गया लगता है - ऐसा लगता है जैसे योगी ने अपराधियों जैसे ही विरोधियों का भी एनकाउंटर कर डाला हो!

17 मार्च, 2017 को योगी आदित्यनाथ (Yogi Adityanath) का नाम भी सरप्राइज के तौर पर ही सामने आया था. उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री बनने में राजनाथ सिंह की दिलचस्पी नहीं दिखाने के बाद तब लग रहा था कि बाजी बीजेपी नेता मनोज सिन्हा के हाथ लगी है, दरअसल, मनोज सिन्हा समर्थकों से घिरे और बनारस में उसी अंदाज में पूजा-पाठ करते दिखे थे. लंबे इंतजार के बाद मनोज सिन्हा को जम्मू-कश्मीर में एडजस्ट किया गया. फिलहाव वो सूबे के उप राज्यपाल हैं.

योगी आदित्यनाथ को दो-दो डिप्टी सीएम के साथ ही शपथ दिलायी गयी थी - केशव मौर्य और दिनेश शर्मा. समझा गया कि योगी आदित्यनाथ की प्रशासनिक अनुभवहीनता के चलते ऐसा किया गया - क्योंकि तब योगी आदित्यनाथ को भरी संसद में उनके बिलखते और आंसू पोंछते देखी गयी छवि ही सबके मन में बसी हुई थी. पांच बार लोक सभा का सांसद बनने के बाद भी बीजेपी नेतृत्व ने योगी आदित्यनाथ को मोदी कैबिनेट में जूनियर मंत्री के लायक भी नहीं समझा था. योगी आदित्यनाथ को मुख्यमंत्री बनाये जाने के साथ ही कैबिनेट के फैसलों और सरकार से जुड़ी जानकारी देने को लेकर भी प्रवक्ता बनाये गये. तब शायद ये डर भी रहा हो कि योगी आदित्यनाथ अपने अंदाज ऐसा कुछ न बोल दें जिससे सरकार की फजीहत होने लगे. एहतियाती उपाय किये जरूर जाते हैं लेकिन वे कभी फजीहत से बचाने में वैक्सीन का रोल नहीं निभा पाते - गोरखपुर अस्पताल में बच्चों की मौत के मामले में सरकार की तरफ से ही बयान आया था - अगस्त में तो बच्चे मरते ही हैं.

कुर्सी संभालने के कुछ ही दिन बाद योगी आदित्यनाथ की ही गोरखपुर संसदीय सीट पर उपचुनाव हुए तो बीजेपी वो सीट सपा-बसपा गठबंधन के हाथों गवां बैठी. हालांकि, तब तक वो अघोषित गठबंधन के रूप में ही रहा. बाद में आम चुनाव हुए तो योगी आदित्यनाथ गोरखपुर के साथ साथ फूलपुर और कैराना की लोक सभा सीटें जीतने में भी कामयाब रहे.

बहराहल, मुख्यमंत्री बनने के चार साल (4 Years of Yogi Sarkar) बाद योगी आदित्यनाथ काफी बदले बदले लगते हैं. सरकार के सालाना जलसे के मौके पर योगी आदित्यनाथ ने...

17 मार्च, 2017 को योगी आदित्यनाथ (Yogi Adityanath) का नाम भी सरप्राइज के तौर पर ही सामने आया था. उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री बनने में राजनाथ सिंह की दिलचस्पी नहीं दिखाने के बाद तब लग रहा था कि बाजी बीजेपी नेता मनोज सिन्हा के हाथ लगी है, दरअसल, मनोज सिन्हा समर्थकों से घिरे और बनारस में उसी अंदाज में पूजा-पाठ करते दिखे थे. लंबे इंतजार के बाद मनोज सिन्हा को जम्मू-कश्मीर में एडजस्ट किया गया. फिलहाव वो सूबे के उप राज्यपाल हैं.

योगी आदित्यनाथ को दो-दो डिप्टी सीएम के साथ ही शपथ दिलायी गयी थी - केशव मौर्य और दिनेश शर्मा. समझा गया कि योगी आदित्यनाथ की प्रशासनिक अनुभवहीनता के चलते ऐसा किया गया - क्योंकि तब योगी आदित्यनाथ को भरी संसद में उनके बिलखते और आंसू पोंछते देखी गयी छवि ही सबके मन में बसी हुई थी. पांच बार लोक सभा का सांसद बनने के बाद भी बीजेपी नेतृत्व ने योगी आदित्यनाथ को मोदी कैबिनेट में जूनियर मंत्री के लायक भी नहीं समझा था. योगी आदित्यनाथ को मुख्यमंत्री बनाये जाने के साथ ही कैबिनेट के फैसलों और सरकार से जुड़ी जानकारी देने को लेकर भी प्रवक्ता बनाये गये. तब शायद ये डर भी रहा हो कि योगी आदित्यनाथ अपने अंदाज ऐसा कुछ न बोल दें जिससे सरकार की फजीहत होने लगे. एहतियाती उपाय किये जरूर जाते हैं लेकिन वे कभी फजीहत से बचाने में वैक्सीन का रोल नहीं निभा पाते - गोरखपुर अस्पताल में बच्चों की मौत के मामले में सरकार की तरफ से ही बयान आया था - अगस्त में तो बच्चे मरते ही हैं.

कुर्सी संभालने के कुछ ही दिन बाद योगी आदित्यनाथ की ही गोरखपुर संसदीय सीट पर उपचुनाव हुए तो बीजेपी वो सीट सपा-बसपा गठबंधन के हाथों गवां बैठी. हालांकि, तब तक वो अघोषित गठबंधन के रूप में ही रहा. बाद में आम चुनाव हुए तो योगी आदित्यनाथ गोरखपुर के साथ साथ फूलपुर और कैराना की लोक सभा सीटें जीतने में भी कामयाब रहे.

बहराहल, मुख्यमंत्री बनने के चार साल (4 Years of Yogi Sarkar) बाद योगी आदित्यनाथ काफी बदले बदले लगते हैं. सरकार के सालाना जलसे के मौके पर योगी आदित्यनाथ ने अपने शासन की जो उपलब्धियां गिनाई है, उनके निर्विवाद होने की संभावना कम हो सकती है - और ऐसा नहीं लगता कि योगी आदित्यनाथ ने अपनी असली उपलब्धियां बतायी हैं. हो सकता है योगी आदित्यनाथ को निजी उपलब्धियां बताना अपने मुंह मियां मिट्ठू बनने जैसा लगता हो, या फिर उनको उन बातों का अहसास ही न हो.

ये तो सर्वे में भी पाया गया है कि अगर यूपी में अभी चुनाव कराये जायें तो योगी आदित्यनाथ की सत्ता में वापसी की राह में कोई रोड़ा नहीं नजर आ रहा है - लेकिन क्या योगी आदित्यनाथ को मालूम है कि बीजेपी में योगी जैसा सीएम कोई भी नहीं है - और सिर्फ बीजेपी ही क्यों विपक्षी (ttar Pradesh Politics) खेमे में भी एकाध नाम ही नजर आते हैं जो थोड़ा बहुत टक्कर देने की स्थिति में हैं.

विपक्ष मुक्त यूपी कैसे बन गया

"ठोक दो", ये स्टाइल योगी आदित्यनाथ की ही है. ऐसा वो यूपी पुलिस को कानून व्यवस्था के लिए चुनौती बने अपराधियों के लिए कहा करते हैं और एनकाउंटर पर उठते सवालों के बीच आलोचना के पात्र भी बनते हैं.

योगी आदित्यनाथ के मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठते ही जो सबसे चर्चित और विवादित मुहिम नजर आयी, वो थी - एंटी रोमियो स्क्वॉड की. पता चला सड़क छाप मंजनुंओं की सबक सिखाने निकले पुलिसवाले भाई-बहन और पति-पत्नी के लिए भी मुसीबत बनने लगे. कुछ दिन तक तो चलता रहा लेकिन विवाद बढ़ने के बाद एंटी रोमियो स्क्वॉड की मुहिम वापस ले ली गयी.

एंटी रोमियो स्क्वॉड मुहिम के बाद यूपी पुलिस को योगी आदित्यनाथ ने अपराधियों के खिलाफ एनकाउंटर को लेकर हरी झंडी दिखा दी. फिर क्या था, ताबड़तोड़ एनकाउंटर होने लगे. ऐसा भी मौका आया जब पुलिस की गोली खत्म होने पर एनकाउंटर स्पेशलिस्ट मुंह से ही 'ठांय-ठायं' करने लगे. कानपुर वाले विकास दुबे के एनकाउंटर के बाद तो गोली की ही तरह गाड़ी पलट कर एनकाउंटर करने के किस्से भी मशहूर होने लगे हैं.

ताज्जुब तो तब होता है जब अपराधियों से ठोक-दो स्टाइल में निबटते हुए योगी आदित्यनाथ अपने राजनीतिक विरोधियों को भी करीब करीब ठिकाने लगा चुके हैं.

मोदी के बाद प्रधानमंत्री पद की पसंद में योगी ने शाह को भी एक सर्वे में पीछे छोड़ दिया था.

बीजेपी ने तो राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस मुक्त भारत अभियान चलाया और राजनीति को विपक्ष मुक्त बनाने के लिए खूब पापड़ भी बेले, लेकिन योगी आदित्यनाथ ने तो ऐसा कुछ भी खास या अलग भी नहीं किया - हींग लगे न फिटकरी रंग चोखा. यूपी की राजनीति में योगी आदित्यनाथ की भूमिका लगती तो ऐसी ही है, लेकिन सच तो यही है कि विपक्ष का नामोनिशान खोजना भी मुश्किल हो रहा है.

योगी आदित्यनाथ के मुख्यमंत्री बनने से पहले तक यूपी की राजनीति में असली लड़ाई मुलायम सिंह यादव और बाद में उनके बेटे अखिलेश यादव और बीएसपी नेता मायावती के बीच हुआ करती रही. दोनों पार्टियों के वर्चस्व बढ़ने के साथ ही कांग्रेस का तो बस अस्तित्व ही बचा नजर आ रहा था.

ये समझना भी आसान नहीं है कि यूपी में बेकाबू अपराध और आये दिन होने वाली रेप की घटनाओं और उन्हें लेकर पुलिस की हीलाहवाली की मिसालें देखे जाने के बावजूद योगी आदित्यनाथ के मुकाबले दूर दूर तक कोई नजर नहीं आ रहा है. हालत ये है कि उन्नाव में बीजेपी का ही तत्कालीन विधायक रेप का आरोपी होता है, बाद में कुलदीप सेंगर को उम्रकैद की सजा मिलती है, सीनियर बीजेपी नेता स्वामी चिन्मयानंद एक छात्रा के यौन शोषण के आरोप में पकड़े जाने पर एसआईटी अफसरों के सामने कबूल करते हैं - गलती हो गयी. हाथरस में बलात्कार की जिस घटना को ही योगी आदित्यनाथ के पुलिस अफसर झुठलाने में कोई कसर बाकी नहीं रखते, सीबीआई जांच करती है तो चार्जशीट फाइल करती है कि बलात्कार भी हुआ है और असली आरोपी भी वे ही हैं जिन्हें पुलिस ने शिकायत के आधार पर गिरफ्तार कर जेल भेजा था - फिर भी योगी आदित्यनाथ पर आंच तक नहीं पहुंच पाती.

दलितों की राजनीति करने वाली पूर्व मुख्यमंत्री मायावती भी विरोध के नाम पर महज बयानबाजी करती हैं - और आलम ये है कि कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी तो बीएसपी नेता को बीजेपी का अघोषित प्रवक्ता तक बता चुकी हैं. मायावती की राजनीति में भी टाइम मैगजीन के कवर पर छपे चंद्रशेखर आजाद रावण जैसे नेता कह रहे हैं कि अब बुआ को आराम करना चाहिये क्योंकि भतीजे बड़े हो गये हैं और काम संभाल रहे हैं. चंद्रशेखर आजाद रावण की नजदीकियां प्रियंका गांधी वाड्रा से ज्यादा देखने को मिलती हैं.

बीजेपी के खिलाफ दलित राजनीति को ठिकाने लगाने के मकसद से महाराष्ट्र से आरपीआई नेता रामदास आठवले भी यूपी पहुंच चुके हैं - उनकी टीम भी राज्य में राजनीतिक तौर पर एक्टिव हो चुकी है. हालांकि, लगता तो ऐसा ही है जैसे रामदास आठवले की भूमिका भी AIMIM नेता असदुद्दीन ओवैसी जैसी ही होगी.

2022 का विधानसभा चुनाव तो मायावती की ही तरह अखिलेश यादव भी अकेले लड़ने की बात कर रहे हैं, लेकिन विरोध के नाम पर यूपी में अगर कोई आवाज सुनायी देती है तो वो हैं कांग्रेस नेता प्रियंका गांधी वाड्रा. एक ऐसी नेता जिसके पास डॉक्टर कफील अहमद और चंद्रशेखर रावण जैसे चेहरे तो हैं लेकिन कांग्रेस का ही कोई जनाधार नहीं बचा है और वो आखिरी पायदान से आगे बढ़ने का भी कोई संकेत नहीं दे पा रही है.

दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल भी कुलांचे भर रहे हैं, लेकिन योगी आदित्यनाथ के अयोध्या की दिवाली के आगे उनका अक्षरधाम दीपोत्सव फीका ही लगता है. अरविंद केजरीवाल ने यूपी का प्रभारी भी अपने राज्य सभा सांसद संजय सिंह को ही बनाया है जिनके बूते वो 2017 में पंजाब में सरकार बनाने के सपने देख रहे थे.

यूपी में विपक्ष का ये हाल अपनी बदौलत हुआ है या योगी आदित्यनाथ की राजनीति की बदौलत - ऐसे सवाल का जवाब कुछ भी हो, लेकिन सच तो यही लगता है कि योगी आदित्यनाथ को फिलहाल यूपी में चैलेंज करने वाला दूर दूर तक कोई भी नहीं है.

बीजेपी में भी पूरे ताकतवर

बीजेपी में भी एकमात्र योगी आदित्यनाथ ही ऐसे मुख्यमंत्री हैं जो चुनावी अग्नि परीक्षा में उतरने से साल भर पहले कहीं से कमजोर होना तो दूर, प्रधानमंत्री मोदी के उत्तराधिकारी के तौर पर भी देखे जाते रहे हैं. एक सर्वे में तो पता चला कि लोग अमित शाह के मुकाबले भी योगी आदित्यनाथ को ही तरजीह दे रहे हैं.

योगी आदित्यनाथ से ठीक एक दिन पहले ही त्रिवेंद्र सिंह रावत उत्तराखंड के मुख्यमंत्री बने थे, लेकिन नौ दिन पहले ही वो कुर्सी गवां चुके हैं. हरियाणा में मनोहर लाल खट्टर अविश्वास प्रस्ताव से अभी अभी उबरे हैं और असम में सर्बानंद सोनवाल चुनावी इम्तिहान में जूझ रहे हैं.

बीजेपी के सहयोगी और विरोधी मुख्यमंत्रियों पर नजर डालें तो सबको मालूम है ही कि बिहार में नीतीश कुमार की कुर्सी कैसे बच पायी - और पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी का जो हाल हो रखा है वो भी सबको पता ही है.

गोवा और त्रिपुरा जैसे राज्यों में बीजेपी मुख्यमंत्रियों की चुनौतियों का सामान्य मान कर चलें तो मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान तो नाम के ही मुख्यमंत्री लगते हैं. कर्नाटक में बीएस येदियुरप्पा मुख्यमंत्री बने हुए जरूर हैं, लेकिन एक नियमित अंतराल पर उनको भी राजनीतिक विरोधियों से जूझना ही पड़ता है, जबकि बीजेपी में उनकी ऑपरेशन लोटस के जनक के रूप में ख्याति है. गुजरात और हिमाचल की सरकारें भी दिल्ली के दबाव के चलते बढ़ती चली जा रही हैं.

बीजेपी विरोधी खेमे के मुख्यमंत्रियों को देखें तो महाराष्ट्र में उद्धव ठाकरे नये राजनीतिक समीकरणों के चलते परेशान हैं, राजस्थान में अशोक गहलोत की गांधी परिवार से करीबी नहीं होती तो सचिन पायलट उनका क्या हाल किये होते अंदाजा ही लगाया जा सकता है.

बीजेपी में तो नहीं, लेकिन विपक्षी खेमे से अगर योगी आदित्यनाथ की बराबरी में खड़ा नजर आता है तो वो हैं कैप्टन अमरिंदर - जो योगी आदित्यनाथ की ही तरह साल भर बाद चुनाव मैदान में उतरने जा रहे हैं. किसान आंदोलन को अपने हिसाब से हैंडल करते हुए कैप्टन अमरिंदर सिंह ने हाल के चुनावों में जीत हासिल कर अपनी ताकत दिखा ही दी है. मोदी कैबिनेट से इस्तीफा देने के बावजूद हरसिमरत कौर बादल की पार्टी अकाली दल अब तक कोई बड़ी चुनौती नहीं पेश कर पायी है - और न ही अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी ही.

ऐसा भी नहीं कि योगी बीजेपी में भी वैसे ही लोकप्रिय हैं जैसे बीजेपी के वोटर के बीच - लेकिन बीजेपी में भी कोई इस हैसियत में नहीं है कि योगी आदित्यनाथ को छू भी सके - या बगावत का झंडा बुलंद करने की कुव्वत रखता हो.

दलितों के बहाने एक बार यूपी के कुछ सांसदों ने प्रधानमंत्री मोदी को पत्र लिख कर योगी आदित्यनाथ की शिकायत जरूर की थी, लेकिन वो आखिरी बगावत थी - और आम चुनाव के साथ ही बीजेपी के पुराने सहयोगी ओम प्रकाश राजभर भी हाशिये पर ही पहुंच गये हैं. अपना दल की अनुप्रिया पटेल का करिश्मा भी ठंडा पड़ता ही नजर आ रहा है.

उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव होने में पूरे साल भर बचे हैं - और योगी आदित्यनाथ फिलहाल देश के सबसे मजबूत मुख्यमंत्री बने हुए हैं. देखा जाये तो उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ का हाल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जैसा ही है - दूर दूर तक मुकाबले में कोई नजर नहीं आ रहा है. कुछ महीने पहले इंडिया टुडे और कार्वी इनसाइट्स के सर्वे मूड ऑफ द नेशन में जो बातें सामने आयी थीं - ताजा ताजा सी-वोटर सर्वे भी करीब करीब वैसी ही बातें दोहरा रहा है.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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