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चाचा-भतीजे के घमासान से बुआ का रास्ता आसान

    • खुशदीप सहगल
    • Updated: 20 सितम्बर, 2016 02:17 PM
  • 20 सितम्बर, 2016 02:17 PM
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अखिलेश मायावती को 'बुआ' बुलाएं या ना बुलाएं लेकिन मायावती ने चाचा-भतीजे की लड़ाई की आग में घी डालने का काम जरूर कर दिया है

समाजवादी कुनबा साथ-साथ है. लेकिन कुनबे का हर सदस्य ये जताना भी नहीं भूल रहा कि नेताजी (मुलायम सिंह) के बाद पार्टी को सींचने में उसी ने सबसे ज्यादा खून-पसीना बहाया है. चाचा (शिवपाल यादव) और भतीजे (अखिलेश यादव) की सियासी रस्साकशी बेशक नेताजी के दखल के बाद दिखने को थम गई लगती है. लेकिन इस रस्सी में जो गांठ आ गई हैं, वो अब शायद ही खुल पाए.

 शिवपाल ने समाजवादी पार्टी के प्रदेशाध्यक्ष होने के नाते अपनी ताकत का अहसास कराना शुरू कर दिया है

पार्टी में अब हर किसी की वफादारी शिवपाल खेमे या अखिलेश खेमे से जोड़ कर देखी जाएगी. कुनबे के मुखिया मुलायम सिंह यादव के सामने ही जिस तरह दोनों खेमों ने शक्ति प्रदर्शन किया उससे नेताजी को भी समझ आ गया होगा कि परिवार को जोड़े रखना उन सियासी लड़ाइयों से कहीं ज्यादा मुश्किल है जो उन्होंने अपने जीवन में विरोधियों से लड़ीं. अब पीढ़ी सिर्फ मुलायम, रामगोपाल, या शिवपाल की ही नहीं रही. अब नई पीढ़ी से अखिलेश, प्रतीक, आदित्य, अक्षय जैसे भी ताल ठोकने के लिए मैदान में हैं. 

ये भी पढ़ें- अखिलेश अब भी आधे सीएम हैं या कुछ घटे बढ़े

कुनबे की कलह को सुलझा लेने के बाद नेताजी के दिल की कसक उनकी जुबान पर आ ही गई. वो कसक है प्रधानमंत्री ना बन पाने की. मुलायम सिंह की ये बात सच है कि समाजवादी पार्टी में सांगठनिक प्रबंधन में शिवपाल का कोई सानी नहीं. मुलायम अब ये मानने में कोई संकोच...

समाजवादी कुनबा साथ-साथ है. लेकिन कुनबे का हर सदस्य ये जताना भी नहीं भूल रहा कि नेताजी (मुलायम सिंह) के बाद पार्टी को सींचने में उसी ने सबसे ज्यादा खून-पसीना बहाया है. चाचा (शिवपाल यादव) और भतीजे (अखिलेश यादव) की सियासी रस्साकशी बेशक नेताजी के दखल के बाद दिखने को थम गई लगती है. लेकिन इस रस्सी में जो गांठ आ गई हैं, वो अब शायद ही खुल पाए.

 शिवपाल ने समाजवादी पार्टी के प्रदेशाध्यक्ष होने के नाते अपनी ताकत का अहसास कराना शुरू कर दिया है

पार्टी में अब हर किसी की वफादारी शिवपाल खेमे या अखिलेश खेमे से जोड़ कर देखी जाएगी. कुनबे के मुखिया मुलायम सिंह यादव के सामने ही जिस तरह दोनों खेमों ने शक्ति प्रदर्शन किया उससे नेताजी को भी समझ आ गया होगा कि परिवार को जोड़े रखना उन सियासी लड़ाइयों से कहीं ज्यादा मुश्किल है जो उन्होंने अपने जीवन में विरोधियों से लड़ीं. अब पीढ़ी सिर्फ मुलायम, रामगोपाल, या शिवपाल की ही नहीं रही. अब नई पीढ़ी से अखिलेश, प्रतीक, आदित्य, अक्षय जैसे भी ताल ठोकने के लिए मैदान में हैं. 

ये भी पढ़ें- अखिलेश अब भी आधे सीएम हैं या कुछ घटे बढ़े

कुनबे की कलह को सुलझा लेने के बाद नेताजी के दिल की कसक उनकी जुबान पर आ ही गई. वो कसक है प्रधानमंत्री ना बन पाने की. मुलायम सिंह की ये बात सच है कि समाजवादी पार्टी में सांगठनिक प्रबंधन में शिवपाल का कोई सानी नहीं. मुलायम अब ये मानने में कोई संकोच नहीं कर रहे कि 2012 में उन्होंने शिवपाल की बात ना मानकर भूल की थी. शिवपाल ने उस वक्त अखिलेश को सीएम बनाने का विरोध किया था. शिवपाल ने कहा था कि नेताजी खुद 2014 लोकसभा चुनाव तक यूपी के सीएम की कुर्सी संभाले और लोकसभा चुनाव के बाद ही उसे छोड़ें. नेताजी के शब्दों में ही कि इसका ये नतीजा रहा, लोकसभा में पार्टी के सिर्फ 5 सांसद ही जीत कर पहुंच सके, वो भी सब परिवार के ही सदस्य. 

शिवपाल अब पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष हैं. खांटी राजनीति के समीकरणों को अच्छी तरह समझते हैं. इन समीकरणों का जाति बड़ा आधार है. सूबे के किस इलाके में किस नेता का दबदबा है, ये शिवपाल बाखूबी जानते हैं. ऐसे नेताओं के माथे पर बाहुबली चस्पा है तो शिवपाल को उससे भी परहेज नहीं. लेकिन शिवपाल के सामने अब एक दिक्कत होगी. अखिलेश ने चाचा शिवपाल से समझौते की एवज में नेताजी से ये वचन ले लिया है कि 2017 विधानसभा चुनाव में पार्टी टिकट उन्हीं की मर्जी से बांटे जाएंगे.

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टिकट जब बांटे जाएंगे सो बांटे जाएंगे लेकिन शिवपाल ने समाजवादी पार्टी के प्रदेशाध्यक्ष होने के नाते अपनी ताकत का अहसास कराना शुरू कर दिया है. शिवपाल ने पहले पार्टी के थिंकटैंक माने जाने वाले प्रोफेसर रामगोपाल यादव के भांजे और एमएलसी अरविंद यादव की पार्टी से 6 साल के लिए छुट्टी की. फिर नेताजी के खिलाफ कथित अपमानजनक टिप्पणी और पार्टी विरोधी गतिविधियों के आरोप की वजह से 7 और नेताओं को बाहर का रास्ता दिखा दिया. इनमें तीन एमएलसी-सुनील सिंह यादव, आनंद भदौरिया, संजय लाठर के अलावा यूथ ब्रिगेड के प्रदेश अध्यक्ष मो. एबाद, युवजन सभा के प्रदेश अध्यक्ष बृजेश यादव, यूथ ब्रिगेड के राष्ट्रीय अध्यक्ष गौरव दुबे और छात्र सभा के अध्यक्ष दिग्विजय सिंह देव शामिल हैं.

बहरहाल, समाजवादी पार्टी में चाचा और भतीजे के बीच 'अपमैनशिप' के इस खेल पर अब विरोधी दलों की बारीक नजर रहेगी. अखिलेश ने बेशक कह दिया है कि अब आगे से वे बीएसपी सुप्रीमो मायावती के लिए 'बुआ' शब्द का इस्तेमाल नहीं करेंगे. अब अखिलेश 'बुआ' बुलाएं या ना बुलाएं लेकिन मायावती ने चाचा-भतीजे की लड़ाई की आग में घी डालने का काम जरूर कर दिया है. मायावती ने कहा है कि मुलायम सिंह ने बेटे अखिलेश को बचाने के लिए शिवपाल को समाजवादी पार्टी का प्रदेश अध्यक्ष बनाया है. ताकि 2017 विधानसभा चुनाव में पार्टी की हार पर शिवपाल को 'बलि का बकरा' बनाया जा सके. यानी मायावती मान बैठी हैं कि 2017 विधानसभा चुनाव में उनकी जीत को समाजवादी कुनबे की कलह ने आसान कर दिया है. ऐसे में नेताजी के सामने भी इस यक्ष प्रश्न से निपटना सबसे बड़ी चुनौती है कि कहीं चाचा-भतीजे की लड़ाई का फायदा 'बुआ' ना उठा ले जाए?

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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