• होम
  • सियासत
  • समाज
  • स्पोर्ट्स
  • सिनेमा
  • सोशल मीडिया
  • इकोनॉमी
  • ह्यूमर
  • टेक्नोलॉजी
  • वीडियो
होम
सियासत

क्या बीएसपी को किसी संभावित टूट से बचा पाएंगी मायावती

    • आईचौक
    • Updated: 02 अप्रिल, 2017 06:13 PM
  • 02 अप्रिल, 2017 06:13 PM
offline
मायावती की राजनीति की थ्योरी अब तक 'एको अहं द्वितीयो नास्ति' रही है लेकिन मतदाताओं के लगातार नकार देने के कारण अब बीएसपी के नेता भी विकल्प तलाशते नजर आने लगे हैं.

जीत की बात और होती है, खासकर सत्ता की सियासत में. हार पर सिर्फ तकरार ही नहीं होती अक्सर बगावत भी चरम पर पहुंच जाती है. बीएसपी भी अब ऐसे ही दौर से गुजरने लगी है. मायावती को ऐसी बातों से अब तक दो चार नहीं होना पड़ा था लेकिन अब उनका तिलिस्म टूटने लगा है.

मायावती की राजनीति की थ्योरी अब तक 'एको अहं द्वितीयो नास्ति' रही है लेकिन मतदाताओं के लगातार नकार देने के कारण अब बीएसपी के नेता भी विकल्प तलाशते नजर आने लगे हैं.

बगावत का बिगुल तो यूपी चुनाव से पहले ही बज चुका था, बात सिर्फ इतनी थी कि सत्ता की उम्मीद में कुछ आवाजें थोड़ी दब गयीं.

बदलाव के खतरे

एक अरसे से महसूस किया जा रहा है कि बीएसपी पूरी तरह बदल चुकी है. ये बदलाव कांशीराम के सपनों की बीएसपी का मायावती वाली बीएसपी में तब्दील होना है. बदलाव का नतीजा ये देखने को मिला कि नये मिजाज की बीएसपी में कोर दलित पॉलिटिक्स वाले नेता हाशिये पर चले गये, लेकिन मायावती को कभी इन बातों की फिक्र नहीं हुई.

लंबे समय तक उनके भरोसेमंद रहे नेता मायावती पर टिकट बेचने का इल्जाम लगाते रहे और मायावती उन्हें ही दोषी ठहरा कर कर्तव्यों की इतिश्री समझ लेती रहीं. चुनाव से पहले स्वामी प्रसाद मौर्य और ब्रजेश पाठक जैसे नेताओं के बीएसपी छोड़ने को लेकर भी मायावती कभी चिंतित नहीं दिखीं. बल्कि सार्वजनिक रूप से राहत महसूस करने जैसा पोज करती रहीं.

बीएसपी में बदलाव की बयार...

लगातार हार के बावजूद मायावती के दिमाग में शायद ही कभी ये बात भी आई कि दलितों में भी नयी चेतना करवट लेने लगी है. उन्हें भी दुनियादारी समझ आने लगी है. मायावती जो भी समझाएं उस पर आंख मूंद कर यकीन कर लेने वाली बात ज्यादा दिन नहीं चलने वाली.

बदलाव बुरा नहीं होता, बल्कि वो तो कुदरत का आखिरी सच है...

जीत की बात और होती है, खासकर सत्ता की सियासत में. हार पर सिर्फ तकरार ही नहीं होती अक्सर बगावत भी चरम पर पहुंच जाती है. बीएसपी भी अब ऐसे ही दौर से गुजरने लगी है. मायावती को ऐसी बातों से अब तक दो चार नहीं होना पड़ा था लेकिन अब उनका तिलिस्म टूटने लगा है.

मायावती की राजनीति की थ्योरी अब तक 'एको अहं द्वितीयो नास्ति' रही है लेकिन मतदाताओं के लगातार नकार देने के कारण अब बीएसपी के नेता भी विकल्प तलाशते नजर आने लगे हैं.

बगावत का बिगुल तो यूपी चुनाव से पहले ही बज चुका था, बात सिर्फ इतनी थी कि सत्ता की उम्मीद में कुछ आवाजें थोड़ी दब गयीं.

बदलाव के खतरे

एक अरसे से महसूस किया जा रहा है कि बीएसपी पूरी तरह बदल चुकी है. ये बदलाव कांशीराम के सपनों की बीएसपी का मायावती वाली बीएसपी में तब्दील होना है. बदलाव का नतीजा ये देखने को मिला कि नये मिजाज की बीएसपी में कोर दलित पॉलिटिक्स वाले नेता हाशिये पर चले गये, लेकिन मायावती को कभी इन बातों की फिक्र नहीं हुई.

लंबे समय तक उनके भरोसेमंद रहे नेता मायावती पर टिकट बेचने का इल्जाम लगाते रहे और मायावती उन्हें ही दोषी ठहरा कर कर्तव्यों की इतिश्री समझ लेती रहीं. चुनाव से पहले स्वामी प्रसाद मौर्य और ब्रजेश पाठक जैसे नेताओं के बीएसपी छोड़ने को लेकर भी मायावती कभी चिंतित नहीं दिखीं. बल्कि सार्वजनिक रूप से राहत महसूस करने जैसा पोज करती रहीं.

बीएसपी में बदलाव की बयार...

लगातार हार के बावजूद मायावती के दिमाग में शायद ही कभी ये बात भी आई कि दलितों में भी नयी चेतना करवट लेने लगी है. उन्हें भी दुनियादारी समझ आने लगी है. मायावती जो भी समझाएं उस पर आंख मूंद कर यकीन कर लेने वाली बात ज्यादा दिन नहीं चलने वाली.

बदलाव बुरा नहीं होता, बल्कि वो तो कुदरत का आखिरी सच है - लेकिन किसी भी बदलाव को हमेशा कस्टोमाइज करके नहीं रखा जा सकता. वक्त के साथ कदम से कदम मिलाकर नहीं चलने पर अचानक इतने बड़े बदलाव से सामना हो जाता है कि स्थिति नियंत्रण के बाहर हो जाती है.

असल में बीएसपी में आया बदलाव अब पुरानी सोच वाले नेताओं को रास नहीं आ रहा है और यही वजह है कि वे नये मिशन में जुट गये हैं.

बीएसपी में नया फोरम

कांशीराम जयंती पर लखनऊ में जश्न तो हुआ लेकिन न तो मायावती में वो हनक दिखी न कार्यकर्ताओं में पुराना जोश. अब 14 अप्रैल को अंबेडकर जयंती आने वाली है. देखना होगा कि बीएसपी के आयोजन से बीजेपी का उत्सव अधिक भव्य तो नहीं होने जा रहा.

खैर, 14 अप्रैल को मायावती से नाराज नेता एक नये फोरम की तैयारी में भी हैं, जिसे नाम दिया है - 'मिशन सुरक्षा परिषद'. इन नेताओं ने संकेत दिया है कि 14 अप्रैल को वो इस फोरम की औपचारिक घोषणा करेंगे - और उसे बीएसपी के विकल्प के तौर पर खड़ा करने की तैयारी चल रही है. इस असंतुष्ट ग्रुप की अगुवाई कर कर रहे हैं मायावती की पिछली सरकार में मंत्री रहे कमलाकांत गौतम और बीएसपी सुप्रीमो के ओएसडी रहे गंगाराम अंबेडकर. इन दोनों ने चुनाव में हार के बाद बीएसपी छोड़ दी है. फिलहाल इन नेताओं ने नये ग्रुप के लिए 13 अप्रैल को एक राज्य स्तरीय सम्मेलन बुलाया है.

इन नेताओं ने उन सभी बीएसपी समर्थकों को से साथ आने की अपील की है जो बीएसपी संस्थापक कांशीराम के बहुजन मिशन पर काम करना चाहते हैं.

मायावती से नाराज इन नेताओं का आरोप है कि लगातार हार से कार्यकर्ताओं का मनोबल गिरता जा रहा है लेकिन मौजूदा नेतृत्व की इसकी जरा भी परवाह नहीं.

टाइम्स ऑफ इंडिया से बातचीत में गंगाराम कहते हैं, 'हमने 2012 में सत्ता गंवा दी, 2014 के लोकसभा चुनाव में एक भी सीट नहीं जीत पाये और अब विधानसभा चुनाव में सिर्फ 19 सीटें जीत सके. ये तमाम बातें साफ करती हैं कि कांशीराम द्वारा बनाई गई पार्टी का जनाधार तेजी से सिकुड़ रहा है.' भिंड में EVM मशीन से बीजेपी के चुनाव चिह्न वाली पर्ची निकलने से मायावती काफी राहत महसूस कर रही होंगी - क्योंकि उन्हें भी यकीन होगा कि इसके बाद उनकी बातों को महज हारे हुए नेता का बयान समझ कर दरकिनार नहीं किया जाएगा.

मायावती के सामने मुश्किलों का अंबार लगा है. अगले साल अप्रैल में राज्य सभा का उनका कार्यकाल पूरा हो रहा है और दूसरी पारी के लिए अभी उनके पास नंबर नहीं है. इतना ही नहीं अगर वो विधान परिषद जाना चाहें तो भी उनके 19 विधायकों का कोई मदद नहीं कर सकता. बगैर बाहरी सपोर्ट के उनके लिए ये काम भी मुश्किल होंगे. पिछली बार मायावती ने कांग्रेस की मदद की थी, लेकिन अभी तो कांग्रेस चाह कर भी मदद नहीं कर सकती. विधान परिषद की सदस्यता के लिए 29 विधायकों की जरूरत होगी - और कांग्रेस के सपोर्ट के बावजूद इसमें तीन वोट कम पड़ेंगे.

मायावती ने हालात को नहीं समझा, जरूरी कदम नहीं उठाये, नाराज नेताओं से बात नहीं की और जमाने के हिसाब से बदलाव को नहीं अपनाया तो बीएसपी को टूट से बचाना मुश्किल होगा. इस बार न सही, अगली बार ही सही.

इन्हें भी पढ़ें :

मोदी की तरह अखिलेश और मायावती के पास भी सिर्फ दो ही साल बचे हैं

मायावती की हार : दलितों ने ठगा महसूस किया और मुस्लिमों को यकीन न हुआ

2019 चुनावों की झलक दिख सकती है उत्तर प्रदेश के उपचुनावों में

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

ये भी पढ़ें

Read more!

संबंधि‍त ख़बरें

  • offline
    अब चीन से मिलने वाली मदद से भी महरूम न हो जाए पाकिस्तान?
  • offline
    भारत की आर्थिक छलांग के लिए उत्तर प्रदेश महत्वपूर्ण क्यों है?
  • offline
    अखिलेश यादव के PDA में क्षत्रियों का क्या काम है?
  • offline
    मिशन 2023 में भाजपा का गढ़ ग्वालियर - चम्बल ही भाजपा के लिए बना मुसीबत!
Copyright © 2025 Living Media India Limited. For reprint rights: Syndications Today.

Read :

  • Facebook
  • Twitter

what is Ichowk :

  • About
  • Team
  • Contact
Copyright © 2025 Living Media India Limited. For reprint rights: Syndications Today.
▲