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तो फिर अफजल गुरू को फांसी क्यों दी गई?

    • गोपाल शुक्ल
    • Updated: 26 फरवरी, 2016 02:22 PM
  • 26 फरवरी, 2016 02:22 PM
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अचानक पी चिदंबरम जी को अपनी वकालत की काबिलियत और अपने भीतर छुपे इमानदार इंसान के जागने का भ्रम हो रहा है. यानी वो ये कहना चाहते हैं कि उस वक्त जो कुछ भी हुआ गलत हुआ. सुप्रीम कोर्ट का फैसला गलत था. राष्ट्रपति का दया याचिका खारिज करना गलत था. यानी उनका आला कमान गलत था.

ये सवाल यहां आज उस वक्त खड़ा हो गया जब सुबह के समाचार पत्र में पी चिदंबरम का वो बयान पढ़ा, जिसमें उन्होंने राय जाहिर की है कि ये उनकी इमानदार और आजाद राय है कि संसद पर हुए आतंकी हमले के मामले में अफजल गुरु को फांसी देना शायद ठीक नहीं था. उसे बिना पैरोल के आजीवन कारावास दिया जा सकता था. चिदंबरम ने कहा कि मेरी राय में अफजल के मामले में सुप्रीम कोर्ट का फैसला शायद ठीक नहीं है. उसके मामले को ढंग से नहीं रखा गया.

बात थोड़ी समझ से परे लगी. ये बात गले से भी नहीं उतर रही और इस बात को पचाने में भी तकलीफ हो रही है क्योंकि 2001 में संसद पर हुए आतंकी हमलों के मुख्य आरोपी मोहम्मद अफजल गुरु को 9 फरवरी 2013 को सुबह दिल्ली के तिहाड़ जेल में फांसी पर लटका दिया गया था. ये वही दौर था जब केंद्र में यूपीए की सरकार थी और राष्ट्रपति के पद पर प्रणव मुखर्जी आसीन थे. इतना ही नहीं उस वक्त यूपीए की सरकार में पी चिदंबरम की हैसियत भी कैबिनेट मंत्री की थी और वो वित्त मंत्रालय का कार्यभार संभाल रहे थे. ये बात समझना कोई मुश्किल काम नहीं है कि भारतीय संविधान के तहत किसी को भी फांसी तब तक नहीं दी जाती जब तक फैसले पर सुप्रीम कोर्ट की आखिरी मुहर लगने के बाद देश का राष्ट्रपति उस फैसले के खिलाफ दायर की गई दया याचिका पर अपना कोई फैसला नहीं दे देता. और राष्ट्रपति तब तक कोई फैसला नहीं करता जब तक वो अपने प्रधानमंत्री और उसके मंत्रिपरिषद से सलाह मशविरा न कर ले. यानी जिस मंत्रिपरिषद की सलाह के बाद राष्ट्रपति अपने उस फैसले तक पहुंचे जिसमें उन्हें अफजल गुरु को फांसी पर लटकाने के फैसले को उचित मानने में कोई परेशानी नहीं हुई. उस मंत्रिपरिषद में पी चिदंबरम बाकायदा एक हैसियत वाले मंत्री थे. बात सिर्फ इतनी सी भी नहीं है कि पी चिदंबरम एक कद्दावर मंत्री थे. बल्कि वो देश के जाने माने वकील भी हैं जिनका शुमार मुल्क के ऊंचे, कीमती और काबिल वकीलों में की जाती रही है. ऐसे में ये बात जरा समझ में कम आती है कि जब मंत्रिपरिषद ऐसा फैसला ले रही थी तो बतौर मंत्री न भी सही कम से कम एक वकील की हैसियत से भी पी चिदंबरम उस फैसले के खिलाफ अपनी आवाज बुलंद कर सकते थे. वो कैबिनेट में किसी का अपमान किए बगैर अपने आलाकमान के खिलाफ जाए बगैर भी इस बात का विरोध कर सकते थे कि अफजल गुरू को फांसी पर लटकाने से पहले जरा उसके मामले...

ये सवाल यहां आज उस वक्त खड़ा हो गया जब सुबह के समाचार पत्र में पी चिदंबरम का वो बयान पढ़ा, जिसमें उन्होंने राय जाहिर की है कि ये उनकी इमानदार और आजाद राय है कि संसद पर हुए आतंकी हमले के मामले में अफजल गुरु को फांसी देना शायद ठीक नहीं था. उसे बिना पैरोल के आजीवन कारावास दिया जा सकता था. चिदंबरम ने कहा कि मेरी राय में अफजल के मामले में सुप्रीम कोर्ट का फैसला शायद ठीक नहीं है. उसके मामले को ढंग से नहीं रखा गया.

बात थोड़ी समझ से परे लगी. ये बात गले से भी नहीं उतर रही और इस बात को पचाने में भी तकलीफ हो रही है क्योंकि 2001 में संसद पर हुए आतंकी हमलों के मुख्य आरोपी मोहम्मद अफजल गुरु को 9 फरवरी 2013 को सुबह दिल्ली के तिहाड़ जेल में फांसी पर लटका दिया गया था. ये वही दौर था जब केंद्र में यूपीए की सरकार थी और राष्ट्रपति के पद पर प्रणव मुखर्जी आसीन थे. इतना ही नहीं उस वक्त यूपीए की सरकार में पी चिदंबरम की हैसियत भी कैबिनेट मंत्री की थी और वो वित्त मंत्रालय का कार्यभार संभाल रहे थे. ये बात समझना कोई मुश्किल काम नहीं है कि भारतीय संविधान के तहत किसी को भी फांसी तब तक नहीं दी जाती जब तक फैसले पर सुप्रीम कोर्ट की आखिरी मुहर लगने के बाद देश का राष्ट्रपति उस फैसले के खिलाफ दायर की गई दया याचिका पर अपना कोई फैसला नहीं दे देता. और राष्ट्रपति तब तक कोई फैसला नहीं करता जब तक वो अपने प्रधानमंत्री और उसके मंत्रिपरिषद से सलाह मशविरा न कर ले. यानी जिस मंत्रिपरिषद की सलाह के बाद राष्ट्रपति अपने उस फैसले तक पहुंचे जिसमें उन्हें अफजल गुरु को फांसी पर लटकाने के फैसले को उचित मानने में कोई परेशानी नहीं हुई. उस मंत्रिपरिषद में पी चिदंबरम बाकायदा एक हैसियत वाले मंत्री थे. बात सिर्फ इतनी सी भी नहीं है कि पी चिदंबरम एक कद्दावर मंत्री थे. बल्कि वो देश के जाने माने वकील भी हैं जिनका शुमार मुल्क के ऊंचे, कीमती और काबिल वकीलों में की जाती रही है. ऐसे में ये बात जरा समझ में कम आती है कि जब मंत्रिपरिषद ऐसा फैसला ले रही थी तो बतौर मंत्री न भी सही कम से कम एक वकील की हैसियत से भी पी चिदंबरम उस फैसले के खिलाफ अपनी आवाज बुलंद कर सकते थे. वो कैबिनेट में किसी का अपमान किए बगैर अपने आलाकमान के खिलाफ जाए बगैर भी इस बात का विरोध कर सकते थे कि अफजल गुरू को फांसी पर लटकाने से पहले जरा उसके मामले की पूरी विवेचना कर ली जाए.

ये भी पढ़ें- क्या कांग्रेस को अफजल को फांसी पर चढ़ाने का अफसोस है?

ऐसा भी नहीं था कि राष्ट्रपति के फैसला लेते ही फौरन अफजल गुरू को फांसी पर लटका दिया गया था. अफजल गुरू को फांसी पर लटकाने के लिए राष्ट्रपति ने 3 फरवरी को अफजल गुरू की दया याचिका को ठुकराया था और 9 फरवरी को उसे तिहाड़ में फांसी दी गई थी. यानी दया याचिका के ठुकराये जाने के पूरे छह दिन बाद अफजल गुरू को फांसी दी गई थी. छह दिन तक पी चिदंबरम को सुध नहीं आई कि वो इस फैसले को सुप्रीम कोर्ट में जाकर चुनौती दें. वो तो कानून के जानकार भी हैं और काबिल वकीलों की जमात में भी उनका शुमार काफी पहले लिया जाता है. जाहिर है उन्हें वो सारे दांव पेंच अच्छी तरह पता होंगे कि किसी भी शख्स को उसके जीने का अधिकार दिलाने के लिए किस हद तक और कैसे कानूनी लड़ाई लड़ी जा सकती है. पी चिदंबरम साहब तब भी नहीं जागे.और अब जबकि जेएनयू में हुए देशद्रोही नारों और देश विरोधी हरकतों की वजह से अफजल गुरू का नाम एक बार फिर हवा में तैर रहा है और इस नाम को लेकर हिन्दुस्तान की सियासत सीधे सीधे दो फाड़ हो गई है जिसमें से एक फाड़ का नेतृत्व संघ परिवार और भारतीय जनता पार्टी करती दिख रही है.

ऐसे में अचानक पी चिदंबरम जी को अपनी वकालत की काबिलियत और अपने भीतर छुपे इमानदार इंसान के जागने का भ्रम हो रहा है. यानी वो ये कहना चाहते हैं कि उस वक्त जो कुछ भी हुआ गलत हुआ. सुप्रीम कोर्ट का फैसला गलत था. राष्ट्रपति का दया याचिका खारिज करना गलत था. यानी उनका आला कमान गलत था. यानी उस वक्त अफजल गुरु को फांसी पर लटकाने का जो फैसला यूपीए सरकार ने लिया वो जल्दबाजी में लिया गया फैसला था. ताकि देश में एक बार फिर फिजा बनाकर खुद को अल्पसंख्यकों का रहनुमा साबित कर दिया जाए और आने वाले चुनाव की बयार में अपने हक की हवा बहाई जा सके. चुनाव के वक्त बिखरने वाले वोटों को अपने पाले में समेटा जा सके. उस दौर में लगातार हमलावर हो रही बीजेपी और उसके उम्मीदवारों की चुनौती का मुकाबला किया जा सके. क्योंकि उनकी आज की बात से तो कम से कम यही समझ में आता है कि या तो उस वक्त गलती हुई या फिर खुद पी चिदंबरम साहब अब गलती कर रहे हैं. गलती ये कि गलत वक्त पर वो गलत बात कह कर भावनाओं के गलत तार छेड़ रहे हैं और अपनी सियासत को एक नया पायदान देने की फिराक में लगे हुए हैं.

चिदंबरम साहब शायद भूल गए कि इस सियासत में वक्त की बड़ी कीमत होती है. और यहां वो शायद कुछ चूकते दिखाई दे रहे हैं जो जाहिर कर देता है कि न तो वो अच्छे सियासत दां हैं और न ही अच्छे वकील. बस उन्होंने अपने अच्छे होने का लोगों को गुमान जरूर दिलाए रखा, जो अच्छी बात नहीं है.

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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