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बिहार की राजनीति में क्यों अहम हुईं अगड़ी जातियां?

    • अशोक भाटिया
    • Updated: 25 जून, 2023 06:47 PM
  • 25 जून, 2023 05:10 PM
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90 के दशक में जब मंडल-कमंडल की राजनीति ने अपने पांव फैलाए, तो देश के तमाम दूसरे राज्यों की तरह बिहार की सियासत का नक़्शा भी बदल गया. लेकिन हाल के दिनों में, बिहार की राजनीति में एक बड़ा बदलाव देखने को मिल रहा है. अचानक वहां अगड़ी जातियों की अहमियत बढ़ गई है.

बिहार की राजनीति यही कोई तीन दशक से गैर सवर्ण जातियों के इर्द-गिर्द घूमती आई है. ख़ास तौर पर पिछड़ा वर्ग का प्रभुत्व इतना बढ़ा कि इस तबके से आने वाले लालू यादव-राबड़ी देवी-नीतीश कुमार ही मुख्यमंत्री होते आए हैं. हालांकि एक दौर वह भी रहा है, जब मुख्यमंत्री  अगड़ी जातियों के ही होते थे. 90 के दशक में जब मंडल-कमंडल की राजनीति ने अपने पांव फैलाए, तो देश के तमाम दूसरे राज्यों की तरह बिहार की सियासत का नक़्शा भी बदल गया. लेकिन हाल के दिनों में, बिहार की राजनीति में एक बड़ा बदलाव देखने को मिल रहा है. अचानक वहां अगड़ी जातियों की अहमियत बढ़ गई है.

राज्य में इस साल परशुराम जयंती का आयोजन बहुत भव्य स्तर पर किया गया, जिसमें तेजस्वी यादव ने शिरकत की. स्वतंत्रता संग्राम सेनानी कुंवर सिंह का विजय उत्सव बहुत धूमधाम से मनाया गया. इस समारोह में अमित शाह शामिल हुए. और तो और, जदयू ने अपनी पार्टी में सवर्ण प्रकोष्ठ बना दिया है. अमूमन राजनीतिक दलों में पिछड़ा वर्ग प्रकोष्ठ, अनुसूचित जाति प्रकोष्ठ और अल्पसंख्यक प्रकोष्ठ हुआ करते हैं, लेकिन नीतीश कुमार ने यह नया प्रयोग किया है.

बिहार में मुख्य रूप से चार बड़ी अगड़ी जातियां हैं- भूमिहार, राजपूत, ब्राह्मण और लाला. राजनीतिक गलियारों में उन्हें सांकेतिक भाषा में 'भूराबाल' कहा जाता है. बिल्कुल वैसे ही जैसे मुस्लिम-यादव समीकरण को 'एमवाई' कहते हैं. नब्बे के दशक में जब बिहार की राजनीति में लालू युग शुरू हुआ, तो उनको लेकर बड़ा राजनीतिक विवाद खड़ा हुआ था. कहा यह गया कि लालू ने बिहार की राजनीति में 'भूराबाल' को साफ़ करने की बात कही है. हालांकि लालू यादव इसे अपने ख़िलाफ़ एक बड़ी राजनीतिक साजिश बताते रहे हैं. उन्होंने कई मौकों पर कहा कि उन्होंने ऐसा कोई बयान नहीं दिया था. खैर, सच्चाई जो भी रही हो, लेकिन इस विवाद के बाद वहां लालू यादव की छवि 'एंटी अपर कास्ट' नेता के रूप में उभरी. लालू यादव ने भी इसकी परवाह किए बिना यादव, मुस्लिम और अति पिछड़ा वर्ग-दलित वर्ग की कुछ अन्य जातियों को गोलबंद कर अपने को मजबूत बनाए रखा.

बिहार की राजनीति यही कोई तीन दशक से गैर सवर्ण जातियों के इर्द-गिर्द घूमती आई है. ख़ास तौर पर पिछड़ा वर्ग का प्रभुत्व इतना बढ़ा कि इस तबके से आने वाले लालू यादव-राबड़ी देवी-नीतीश कुमार ही मुख्यमंत्री होते आए हैं. हालांकि एक दौर वह भी रहा है, जब मुख्यमंत्री  अगड़ी जातियों के ही होते थे. 90 के दशक में जब मंडल-कमंडल की राजनीति ने अपने पांव फैलाए, तो देश के तमाम दूसरे राज्यों की तरह बिहार की सियासत का नक़्शा भी बदल गया. लेकिन हाल के दिनों में, बिहार की राजनीति में एक बड़ा बदलाव देखने को मिल रहा है. अचानक वहां अगड़ी जातियों की अहमियत बढ़ गई है.

राज्य में इस साल परशुराम जयंती का आयोजन बहुत भव्य स्तर पर किया गया, जिसमें तेजस्वी यादव ने शिरकत की. स्वतंत्रता संग्राम सेनानी कुंवर सिंह का विजय उत्सव बहुत धूमधाम से मनाया गया. इस समारोह में अमित शाह शामिल हुए. और तो और, जदयू ने अपनी पार्टी में सवर्ण प्रकोष्ठ बना दिया है. अमूमन राजनीतिक दलों में पिछड़ा वर्ग प्रकोष्ठ, अनुसूचित जाति प्रकोष्ठ और अल्पसंख्यक प्रकोष्ठ हुआ करते हैं, लेकिन नीतीश कुमार ने यह नया प्रयोग किया है.

बिहार में मुख्य रूप से चार बड़ी अगड़ी जातियां हैं- भूमिहार, राजपूत, ब्राह्मण और लाला. राजनीतिक गलियारों में उन्हें सांकेतिक भाषा में 'भूराबाल' कहा जाता है. बिल्कुल वैसे ही जैसे मुस्लिम-यादव समीकरण को 'एमवाई' कहते हैं. नब्बे के दशक में जब बिहार की राजनीति में लालू युग शुरू हुआ, तो उनको लेकर बड़ा राजनीतिक विवाद खड़ा हुआ था. कहा यह गया कि लालू ने बिहार की राजनीति में 'भूराबाल' को साफ़ करने की बात कही है. हालांकि लालू यादव इसे अपने ख़िलाफ़ एक बड़ी राजनीतिक साजिश बताते रहे हैं. उन्होंने कई मौकों पर कहा कि उन्होंने ऐसा कोई बयान नहीं दिया था. खैर, सच्चाई जो भी रही हो, लेकिन इस विवाद के बाद वहां लालू यादव की छवि 'एंटी अपर कास्ट' नेता के रूप में उभरी. लालू यादव ने भी इसकी परवाह किए बिना यादव, मुस्लिम और अति पिछड़ा वर्ग-दलित वर्ग की कुछ अन्य जातियों को गोलबंद कर अपने को मजबूत बनाए रखा.

बिहार में अगड़ी जातियों की आबादी 15 से 20 प्रतिशत के बीच है. एक वक़्त यह कांग्रेस का वोट बैंक हुआ करती थीं, लेकिन बाद में भाजपा  के साथ आईं. नीतीश कुमार के भाजपा  के साथ गठबंधन में होने की वजह से इनका समर्थन जदयू को मिलता रहा. लेकिन पिछले  चुनाव में यह देखा गया कि सवर्ण जातियों ने भाजपा  को तो वोट किया, लेकिन जदयू को नहीं. यही वजह रही कि जदयू को पहली बार भाजपा  से कम सीट मिलीं और राज्य विधानसभा में सीटों की संख्या के क्रम में तीसरे पायदान पर पहुंच गई.

राजनीति में बिना मकसद कुछ भी नहीं होता. अगर बिहार में अगड़ी जातियों की पूछ बढ़ गई है, तो उसकी वजह भी है. बिहार में जिस तरह से भाजपा  तनकर खड़ी हुई है और जीतनराम मांझी, मुकेश सहनी जैसे अपनी-अपनी जातियों के नेताओं का प्रभाव बढ़ना शुरू हुआ है, उसमें आरजेडी को लगने लगा है कि 'एमवाई' समीकरण के सहारे राज्य की सत्ता में वापसी मुश्किल है. तेजस्वी यादव ने पिछले चुनाव के मौके पर कहा भी था कि अब हम 'एमवाई' की पार्टी नहीं बल्कि ए टू जेड की पार्टी होंगे. इसी कोशिश में वह अगड़ी जातियों के साथ अपनी दोस्ती बढ़ा रहे हैं. मार्च महीने में स्थानीय निकाय चुनाव में प्रत्याशियों के चयन में यह बात साफ़ दिखी भी. बिहार के सियासी गलियारों में यह कहा भी जाने लगा है कि लालू यादव जिस 'भूराबाल' को साफ़ करने की बात करते थे, तेजस्वी यादव उसी 'भूराबाल' को साथ लेकर चलने की बात करने लगे हैं.

उधर, पिछले  चुनावी नतीजों से झटका खाए नीतीश कुमार को लगता है कि अगर वह ख़ुद अपने पांव पर नहीं खड़े हुए और भाजपा  ने अपनी बैसाखी छीन ली, तो फिर उनके सियासी लड़ाई मुश्किल हो जाएगी. अपने पांव पर खड़े होने की कवायद में ही वह अगड़ी जातियों में अपना प्रभाव बढ़ाने की कोशिश में हैं. राज्य में पिछड़ा वर्ग की नुमाइंदगी करने वाले आरजेडी और जेडीयू, दोनों को अब यह अहसास हो चला है कि अगड़ी जातियों का साथ लेकर ही वे अपने वोट बैंक का विस्तार कर सकते हैं.

अब कांग्रेस को ही देखे  .कांग्रेस ने बिहार के नव नियुक्त जिलाध्यक्षों की जो सूची जारी की है उनमें करीब पचास प्रतिशत ब्राह्मण और भूमिहार जाति से हैं. कुल 39 जिलाध्यक्षों में से करीब 66 प्रतिशत अगड़ी जातियों से हैं. कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे ने बिहार कांग्रेस के 39 जिलाध्यक्षों को नियुक्त किया है. इनमें से 11 भूमिहार, 8 ब्राह्मण, 6 राजपूत, 5 मुस्लिम, 4 यादव, 3 दलित, 1 कुशवाहा और 1 कायस्थ जाति से हैं. 

बिहार कांग्रेस के अध्यक्ष अखिलेश प्रसाद सिंह और विधायक दल के नेता अजीत शर्मा भी भूमिहार जाति से ही हैं. हालांकि नीतीश सरकार में कांग्रेस कोटे के दो मंत्रियों में से एक दलित एक मुस्लिम है. कुल मिलाकर लोकसभा चुनाव के मद्देनजर बिहार में कांग्रेस की रणनीति भूमिहार और ब्राह्मण समाज को अपने पाले में करने की है जिन्हें भाजपा  का वोटर माना जाता है. बीते कुछ समय से भाजपा  बिहार में पिछड़ा वोटर को लुभाने में लगी है ऐसे में कांग्रेस भाजपा  के वोट में सेंध लगाने की कोशिश कर रही है. वैसे भी नीतीश और लालू के साथ गठबंधन के कारण कांग्रेस को दलित, पिछड़ा और मुस्लिम वोट मिलने का भरोसा है. हालांकि बिहार में अगड़ा समीकरण साधने के चक्कर में कांग्रेस ने अपने रायपुर अधिवेशन के उस अहम एलान को भुला दिया जिसमें ब्लॉक से लेकर सीडब्ल्यूसी तक 50 प्रतिशत पद ओबीसी, दलित, आदिवासी, अल्पसंख्यक वर्ग के लिए आरक्षित करने की बात कही गई थी.

कांग्रेस ने पश्चिमी चंपारण में भारत भूषण पांडेय, पूर्वी चंपारण में शशि भूषण राय, मुजफ्फरपुर में अरविंद मुकुल, सीतामढ़ी में कमलेश कुमार सिंह, गोपालगंज में ओम प्रकाश गर्ग, मधुबनी में मनोज मिश्रा, दरभंगा में सीता राम चौधरी, समस्तीपुर में अबू तमीन और सहरसा में मुकेश झा को जिलाध्यक्ष बनाया गया है.इसके अलावा पार्टी ने सुपौल से विमल यादव, मधेपुरा से सतेंद्र कुमार यादव, अररिया से जाकिर हुसैन, पूर्णिया से नीरज सिंह, किशनगंज से इमाम अली, कटिहार से सुनील यादव, भागलपुर से परवेज जमाल, बांका से कंचन सिंह, लखीसराय से अमरीश कुमार अनीस, शेखपुरा से सत्यजीत सिंह, जमुई से राजेंद्र सिंह, बेगुसराय से अभय कुमार, नालंदा से रवि ज्योति को जिलाध्यक्ष नियुक्त किया गया है.

वहीं पटना महानगर से शशि रंजन, पटना ग्रामीण 1 से सुमित कुमार सनी, पटना ग्रामीण 2 से रघुनंदन पासवान, भोजपुर से अशोक राम, बक्सर से मनोज कुमार पांडेय, रोहतास से कन्हैया सिंह, कैमूर से सुनील कुशवाहा और गया से गगन कुमार मिश्रा को जिलाध्यक्ष बनाया गया है. इसके साथ ही पार्टी ने जहानाबाद से गोपाल शर्मा, अरवल से धनंजय शर्मा, औरंगाबाद से राकेश कुमार सिंह, नवादा से सतीश कुमार, सारन से अजय कुमार सिंह, वैशाली से मनोज शुक्ला, सिवान से बिधुभूषण पांडेय और सिहोरा से नूरी बेगम को जिलाध्यक्ष बनाया गया है.

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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