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शत्रु सम्पत्ति बिल पर जल्दबाजी क्यों!

    • मोहम्मद शहजाद
    • Updated: 03 अप्रिल, 2017 04:46 PM
  • 03 अप्रिल, 2017 04:46 PM
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भारत का मुसलमान ‘बाई-चांस’ नहीं बल्कि ‘बाई-च्वॉइस’ भारतीय है. मतलब विभाजन के बाद उसने यहां संयोगवश नहीं बल्कि अपनी मर्जी से रहना पसंद किया.

भारत का मुसलमान ‘बाई-चांस’ नहीं बल्कि ‘बाई-च्वॉइस’ भारतीय है. मतलब विभाजन के बाद उसने यहां संयोगवश नहीं बल्कि अपनी मर्जी से रहना पसंद किया. यह बात 1965 और फिर 1971 के भारत-पाक युद्ध के संदर्भ में भी लागू होती है. इन सभी परिस्थितियों में उनके कई घरवालों और रिश्ते-नातों ने पाकिस्तान जाना पसंद किया लेकिन जिन्हें अपनी मिट्टी और वतन से प्यार था, वो यहीं रुके रहे.

इस विभीषिका का प्रकोप कई मां-बाप को अपनी औलादों, यहां तक कि पति-पत्नी को भी वियोग के रूप में झेलना पड़ा. ऐसे में ‘शत्रु सम्पत्ति संशोधन एवं विधिमान्यकरण कानून’ के द्वारा उन लोगों के जरिए छोड़ी गई सम्पत्तियों से उनके असल उत्तराधिकारियों को वंचित कर देना किसी भी तरह से न्यायोचित नहीं ठहराया जा सकता है.

वैसे तो इस आशय से सम्बंधित कानून 1968 से लागू है. इसे 1962 में भारत की चीन और फिर 1965 में पाकिस्तान के साथ हुई जंग के बाद पारित किया गया था. इसके अनुसार भारत के साथ युद्ध छेड़ने वाले इन दोनों देशों को पलायन करने वाले लोगों की सम्पत्तियों को शत्रु सम्पत्ति माना गया और उन्हें अधिकृत करने का अधिकार केंद्र सरकार के अधिनस्थ ‘कस्टोडियन ऑफ एनिमी प्रॉपर्टी ऑफ इंडिया’ संस्था को दिया गया. इसमें बाद में बंग्लादेश को भी सम्मिलित कर लिया गया था. केंद्र सरकार की दलील है कि लोकसभा द्वारा गत दिनों पारित संशोधित विधेयक, 1968 के कानून की एक तरह से व्याख्या है और इसे उसके स्पष्टीकरण के रूप में देखा जाना चाहिए.

अजीब बात है कि शत्रु सम्पत्ति संशोधित कानून में ‘शत्रु’ की मूल परिभाषा को बदलकर इसके दायरे को ऐसी सम्पत्तियों के उन कानूनी वारिस या फिर उत्तराधिकारियों तक बढ़ा दिया गया है जो भारतीय नागरिक हैं या अशत्रु राष्ट्र से सम्बंधित हैं. ऐसे परिवारों की ये आपत्ति वाजिब है...

भारत का मुसलमान ‘बाई-चांस’ नहीं बल्कि ‘बाई-च्वॉइस’ भारतीय है. मतलब विभाजन के बाद उसने यहां संयोगवश नहीं बल्कि अपनी मर्जी से रहना पसंद किया. यह बात 1965 और फिर 1971 के भारत-पाक युद्ध के संदर्भ में भी लागू होती है. इन सभी परिस्थितियों में उनके कई घरवालों और रिश्ते-नातों ने पाकिस्तान जाना पसंद किया लेकिन जिन्हें अपनी मिट्टी और वतन से प्यार था, वो यहीं रुके रहे.

इस विभीषिका का प्रकोप कई मां-बाप को अपनी औलादों, यहां तक कि पति-पत्नी को भी वियोग के रूप में झेलना पड़ा. ऐसे में ‘शत्रु सम्पत्ति संशोधन एवं विधिमान्यकरण कानून’ के द्वारा उन लोगों के जरिए छोड़ी गई सम्पत्तियों से उनके असल उत्तराधिकारियों को वंचित कर देना किसी भी तरह से न्यायोचित नहीं ठहराया जा सकता है.

वैसे तो इस आशय से सम्बंधित कानून 1968 से लागू है. इसे 1962 में भारत की चीन और फिर 1965 में पाकिस्तान के साथ हुई जंग के बाद पारित किया गया था. इसके अनुसार भारत के साथ युद्ध छेड़ने वाले इन दोनों देशों को पलायन करने वाले लोगों की सम्पत्तियों को शत्रु सम्पत्ति माना गया और उन्हें अधिकृत करने का अधिकार केंद्र सरकार के अधिनस्थ ‘कस्टोडियन ऑफ एनिमी प्रॉपर्टी ऑफ इंडिया’ संस्था को दिया गया. इसमें बाद में बंग्लादेश को भी सम्मिलित कर लिया गया था. केंद्र सरकार की दलील है कि लोकसभा द्वारा गत दिनों पारित संशोधित विधेयक, 1968 के कानून की एक तरह से व्याख्या है और इसे उसके स्पष्टीकरण के रूप में देखा जाना चाहिए.

अजीब बात है कि शत्रु सम्पत्ति संशोधित कानून में ‘शत्रु’ की मूल परिभाषा को बदलकर इसके दायरे को ऐसी सम्पत्तियों के उन कानूनी वारिस या फिर उत्तराधिकारियों तक बढ़ा दिया गया है जो भारतीय नागरिक हैं या अशत्रु राष्ट्र से सम्बंधित हैं. ऐसे परिवारों की ये आपत्ति वाजिब है कि जो लोग भारतीय नागरिक हैं या फिर उनका ताल्लुक ऐसे देशों से है जो शत्रु नहीं हैं तो उन्हें उत्तराधिकार के हक से कैसे वंचित किया जा सकता है? गौरतलब है कि भारत की कुल जनसंख्या में सबसे बड़े अल्पसंख्यक मुसलमानों की आबादी 14-15 प्रतिशत है.

आबादी के हिसाब से उनकी भूमि मिल्कियत काफी कम है और इस मामले में वे राष्ट्रीय औसत से काफी पीछे हैं. जमीनों की खरीद-फरोख्त और किराए पर देने के मामले में भी उनके साथ भेदभाव बरते जाने की बातें सामने आती रहती हैं. अकारण नहीं है कि विगत कुछ वर्षों में ही शत्रु सम्पत्तियों की संख्या महज 2100 से बढ़कर 16 हजार तक पहुंच गई है. इनकी कीमत एक लाख करोड़ रुपये से भी अधिक आंकी जा रही है. जाहिर है इनसे वंचित हो जाने के बाद आर्थिक रूप से अत्यंत पिछड़े मुसलमानों की स्थिति और दयनीय हो जाएगी.

सरकार की ये भी दलील है कि पाकिस्तान में ये कानून पहले से लागू है और वो भारतीय नागरिकों की सम्पत्तियों को हथिया चुका है. बेशक हमें भी पाकिस्तान पलायन करने वाले लोगों के साथ वैसा ही सुलूक करना चाहिए. युद्ध के समय जिन लोगों ने शत्रु राष्ट्रों की मदद की या फिर वहां पलायन कर गए, उनकी सम्पत्तियों पर से उनकी मिल्कियत एवं अधिकार छीन लेना पूरी तरह से तर्कसंगत है. लेकिन, बेचारे उनके उन वारिसों का क्या कसूर है जिन्होंने पलायन में अपने बाप-दादाओं का साथ देना गवारा नहीं किया?

ये बिलकुल ऐसा ही है कि हालिया लखनऊ एन्काउंटर में मारे गए आईएस आतंकी सैफल्लाह के गुनाहों की वजह से उसके बाप पर शक किया जाए. जब्कि उसके पिता सरताज ने अपने बेटे का शव लेने से इंकार कर दिया. फिर भी उसकी देशभक्ति पर सवालिया निशान लगाए जाएं तो ये उचित नहीं है.

पांच दशक पुराने शत्रु विधेयक में संशोधन के जरिए सरकार ने ऐसी सम्पत्तियों से सम्बंधित विवाद की सुनवाई के लिए नागरिक अदालतों एवं प्राधिकरणों पर भी रोक लगा दी है. यानी अब ऐसे मामलों की सुनवाई उच्च न्यायालय से कम की कोर्ट में नहीं होगी.

संयोगवश नहीं है कि 1947 के विभाजन के बाद पाकिस्तान चले जाने वाले जिस राजा महमूदाबाद की सम्पत्ति का विवाद आज 70 सालों में भी नहीं निपटा, ऐसे दीगर कई मामलों की उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय में बहुतायत हो जाएगी. काबिलेजिक्र है कि इस सम्पत्ति पर राजा मोहम्मद आमिर मोहम्मद खान के दावे के मामले की सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि ऐसे कानूनी वारिस जो भारतीय नागरिक हैं, उन सम्पत्तियों पर अपना दावा जता सकते हैं. ऐसा ही एक मामला भोपाल के नवाब हमीदुल्लाह खान की सम्पत्तियों का भी वहां के हाईकोर्ट में विचाराधीन है.

कस्टोडियम ऑफ एनिमी प्रॉपर्टी के अनुसार उनकी सम्पत्तियों की वारिस उनकी बेटी आबिदा सुल्तान थीं जो 1950 में पाकिस्तान चली गई थीं, इसलिए उनकी सम्पत्तियां ‘शत्रु सम्पत्ति’ मानी जाएंगी. जब्कि नवाब के वारिसों में शामिल अभिनेता सैफ अली खान का दावा है कि 1960 में नवाब के मरने के बाद 1961 में भारत सरकार ने उनकी छोटी बेटी साजिदा सुल्तान को इसका उत्तराधिकारी माना गया था. ऐसे विवादों का निपटारा एक टेढ़ी खीर है. असल दिक्कत तो उन छोटी-छोटी सम्पत्तियों के कानूनी वारिसों तथा उत्तराधिकारियों को होगी, जिनके पास हाईकोर्ट और सुप्रमी कोर्ट का खर्च वहन करने की क्षमता नहीं होगी.

दरअसल इस संशोधित विधेयक को लेकर सरकार की नीयत शुरू से सवालों के घेरे में रही है. लोकसभा से तो ये गत वर्ष मार्च में भी पारित हो चुका था. राज्यसभा में लंबित होने के कारण सरकार को इसके लिए पांच बार अध्यादेश लाना पड़ा. आखिर सरकार को इसे पारित कराने की इतनी जल्दी क्यों थी?

ऑर्डिनेंस का सहारा वैसे भी विशेष परिस्थितियों और अत्यधिक जरूरत के समय लिया जाता है. राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी भी केंद्र सरकार के इस रवैये पर ऐतराज जता चुके हैं. बाद में इसे राज्यसभा की प्रवर्तन समिति के संशोधन के बाद फिर से लाया गया. लेकिन इस पर बहस की मांग करने को लेकर विपक्ष के वॉकआउट के बावजूद उनकी गैर-मौजूदगी में ही इसे उच्च सदन से पारित करा लिया गया.

लोकसभा में इसे सत्तापक्ष ने सुबह के वक्त सांसदों की कम मौजूदगी में लाकर हड़बड़ी का परिचय दिया. होना तो ये चाहिए था कि सरकार दोनों सदनों में इसपर खुले दिल से बहस करती और विपक्षी सांसदों की आपत्तियों को दूर करने का प्रयास करती.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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