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सिर्फ हम ही नहीं, 20 देशों को है चीन के पड़ोसी होने का सिरदर्द !

    • आईचौक
    • Updated: 07 जुलाई, 2017 08:15 PM
  • 07 जुलाई, 2017 08:15 PM
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दुनिया के अधिकांश देशों की तुलना में चीन का लंबा इतिहास रहा है. इसका सीधा सा मतलब ये है अन्य देशों की तुलना में पड़ोसी देशों के साथ खटपट की स्थित सबसे ज्यादा इसके साथ ही होगी.

सीमा विवादों को लेकर चीन नीतियों पर एक मजाक काफी प्रचलित है. कहा जाता है- 'जब गरीबी हो तो विवाद एक तरफ रखकर विकास में सहयोग करें; और जब अमीरी आ जाए तो उन इलाकों पर दावा करो, जिन्‍हें आप अपने समृद्ध इतिहास का हिस्‍सा मानते हो.' तो अब इसका मतलब कोई भी समझ सकता है. है ना?

ये बात तो माननी होगी कि लगभग हर पड़ोसी देश के साथ चीन का सीमा विवाद है. लेकिन इसका कारण चीन की आक्रामक सेना नहीं, बल्कि कई और दूसरे कारण हैं. जिनमें से कुछ हम आपको बताते हैं:

1. क्षेत्रफल के मामले में रूस और कनाडा के बाद चीन का ही नंबर आता है. लेकिन, दुनिया में सबसे ज्‍यादा पड़ोसियों चीन के ही हैं (भूमि से सटे 14 देश और समुद्री सीमा के किनारे 6). फिर ये बात तो हर किसी को पता है कि किसी एक परिवार के लिए भी ज्यादा पड़ोसियों से अच्छे संबंध कायम रखना टेढ़ी खीर होता है तो फिर अलग-अलग राजनीतिक व्यवस्था, विचारधारा, मूल्यों और परंपराओं वाले देशों की बात तो छोड़ ही दें.

ज्यादा जोगी मठ के उजाड़, ज्यादा पड़ोसी चीन से तकरार

2. दुनिया के अधिकांश देशों की तुलना में चीन का लंबा इतिहास रहा है. इसका सीधा सा मतलब ये है कि अन्य देशों की तुलना में पड़ोसी देशों के साथ खटपट की स्थिति सबसे ज्यादा इसके साथ ही होगी. खासकर उन छोटे देशों के साथ, जो क्षेत्रीय विस्तार या वर्चस्व की चीन की महत्वाकांक्षाओं को लेकर सतर्क रहते हैं. इसके अलावा चीन के गृहयुद्ध ने भी क्षेत्रीय विवादों के निपटारे पर से कुछ हद तक ध्यान हटाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. और चीन की कम्‍युनिस्‍ट पार्टी के तख्तापलट ने सरकार के शांतिपूर्ण तरीके से बदलने की संभावना को असंभव बना दिया, परिणामस्वरूप आवश्यक ऐतिहासिक दस्तावेज गुम हो गए.

3. आखिर...

सीमा विवादों को लेकर चीन नीतियों पर एक मजाक काफी प्रचलित है. कहा जाता है- 'जब गरीबी हो तो विवाद एक तरफ रखकर विकास में सहयोग करें; और जब अमीरी आ जाए तो उन इलाकों पर दावा करो, जिन्‍हें आप अपने समृद्ध इतिहास का हिस्‍सा मानते हो.' तो अब इसका मतलब कोई भी समझ सकता है. है ना?

ये बात तो माननी होगी कि लगभग हर पड़ोसी देश के साथ चीन का सीमा विवाद है. लेकिन इसका कारण चीन की आक्रामक सेना नहीं, बल्कि कई और दूसरे कारण हैं. जिनमें से कुछ हम आपको बताते हैं:

1. क्षेत्रफल के मामले में रूस और कनाडा के बाद चीन का ही नंबर आता है. लेकिन, दुनिया में सबसे ज्‍यादा पड़ोसियों चीन के ही हैं (भूमि से सटे 14 देश और समुद्री सीमा के किनारे 6). फिर ये बात तो हर किसी को पता है कि किसी एक परिवार के लिए भी ज्यादा पड़ोसियों से अच्छे संबंध कायम रखना टेढ़ी खीर होता है तो फिर अलग-अलग राजनीतिक व्यवस्था, विचारधारा, मूल्यों और परंपराओं वाले देशों की बात तो छोड़ ही दें.

ज्यादा जोगी मठ के उजाड़, ज्यादा पड़ोसी चीन से तकरार

2. दुनिया के अधिकांश देशों की तुलना में चीन का लंबा इतिहास रहा है. इसका सीधा सा मतलब ये है कि अन्य देशों की तुलना में पड़ोसी देशों के साथ खटपट की स्थिति सबसे ज्यादा इसके साथ ही होगी. खासकर उन छोटे देशों के साथ, जो क्षेत्रीय विस्तार या वर्चस्व की चीन की महत्वाकांक्षाओं को लेकर सतर्क रहते हैं. इसके अलावा चीन के गृहयुद्ध ने भी क्षेत्रीय विवादों के निपटारे पर से कुछ हद तक ध्यान हटाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. और चीन की कम्‍युनिस्‍ट पार्टी के तख्तापलट ने सरकार के शांतिपूर्ण तरीके से बदलने की संभावना को असंभव बना दिया, परिणामस्वरूप आवश्यक ऐतिहासिक दस्तावेज गुम हो गए.

3. आखिर चीन ने 1962 में भारत पर आक्रमण क्यों किया था? इसका प्रमुख कारण सीसीपी या पीआरसी द्वारा क्षेत्रीय विवादों को निपटाने लिए किसी विदेशी नीतियों का ना होना था. जिससे इन विवादों को बढ़ावा ही मिला. माओ जेडोंग के शासनकाल में, सीसीपी नेताओं, खासकर माओ को सीमाओं और भूमि की बहुत कम जानकारी थी या फिर पीआरसी की स्थापना के बाद से वे आधुनिक राष्ट्रीय राज्यों पर अभिन्न विचार और दर्शन को अपनाने में विफल रहे थे. जहां तक ​​भूमि और क्षेत्रों के विवादों का संबंध है तो उनकी सोच को नियंत्रित करने वाले विचार चीनी पारंपरिक केंद्रीय या स्वर्गीय साम्राज्य और यूएसएसआर की विश्व क्रांति से आयात किए गए थे.सत्ताधारी कम्युनिस्ट पार्टी मार्क्सवाद में विश्वास करती है इसलिए उनका मानना ​​था कि विश्व क्रांति की सफलता के बाद सारे राज्य खुद ही गायब हो जाएंगे. और क्यूंकि राज्य अब अस्तित्व में नहीं रहेगें तो सीमा की भूमिका अर्थहीन हो जाएगी. और इन दो दिशा-निर्देशों के मद्देनजर सीमा विवाद कोई मुद्दा ही नहीं था. अगर कोई पड़ोसी देश एक ही समाजवाद या वामपंथ की विचारधारा को मानते हैं तो विवादित क्षेत्र का मुद्दा सुलझा लिया जाएगा. और अगर पड़ोसी देश भारत की तरह हुआ तो कठोर कदम उठाने होंगे जिसमें की मिलिट्री को सहारा लेना पड़ेगा.

जब माओ की मौत के बाद डेंग जियाओपिंग ने पदभार संभाला तो उन्होंने महसूस किया कि राजनीतिक उथल-पुथल के दौर के बाद केंद्रीय साम्राज्य बहुत ही कमजोर हो गया था. इसलिए उन्होंने 'अपनी क्षमताओं को छुपाओ और सही समय का इंतजार करो' की पॉलिसी को बढ़ावा देने की वकालत की. डेंग के इस कदन से चीन को खूब फायदा हुआ और देश में शांतिपूर्ण माहौल बनाने में वो सफल रहे. लेकिन विवादों को खत्म ना करके उसे टालते रहने से नतीजा उल्टा हो गया और लंबे समय तक देशों पर शासन करना मुश्किल होने लगा. चीन की अर्थव्यवस्था में सुधार के साथ झी जिंनपिंग ने महसूस किया कि सालों से चले आ रहे दमन को खत्म करना चाहिए. वे न केवल शासन के लिए फायदेमंद, लोक-लुभावनवाद, राष्ट्रवाद और अतिसंवेदनशीलता के लिए अपील करने के लिए क्षेत्र पर घनिष्ठ रुख अपनाते थे, बल्कि इसका इस्तेमाल भी करते थे. इस लिहाज से क्षेत्रीय विवाद पर चीनी कूटनीति केवल घरेलू नीतियों का ही विस्तार है.

4. एक अनुकूल विदेश नीति के अभाव में कूटनीति शायद ही कभी सीसीपी की प्राथमिकता रही थी. सीसीपी के पहली पीढ़ी के राजनीतिज्ञ, जनरलों या अन्य क्रांतिकारी दिग्गजों थे, इनमें से ज्यादातर के पास किसी तरह का पूर्व प्रशिक्षण नहीं था. भले ही उनके बाद के सीसीपी राजनीयिक विदेशी भाषाओं के जानकार हों या फिर प्रोटोकॉल से परिचित हों, लेकिन इनमें से ज्यादातर को सबसे पहले अनुवादकों के रूप में प्रशिक्षित किया गया था. इनकी कूटनीति की कला की पूरी समझ की आवश्यकता सिर्फ दो देशों के बीच विवादों को सुलझाने के लिए ही थी.

कोई बड़ा मुद्दा होने पर विदेश मंत्री को राज्य परिषद से सलाह लेनी होती थी जो कैबिनेट में कूटनीति के प्रभारी से और काउंसलर, उप प्रधानमंत्री को रिपोर्ट भेजते थे. उप-प्रधानंमंत्री पोलित ब्यूरो के सदस्य भी थे. उप-प्रधानमंत्री अपनी रिपोर्ट को केन्द्रीय कूटनीति प्रमुख और पोलित ब्यूरो के स्थायी सदस्यों को एक ही समय में रिपोर्ट करते थे. इस पूरे घटनाक्रम के दौरान मंत्रालय, राज्य परिषद और पॉलित ब्यूरो के अलावा, केंद्रीय सैन्य आयोग, सीसीपी के अंतर्राष्ट्रीय विभाग, केंद्रीय प्रचार विभाग और अन्य सभी शक्तिशाली अंगों ने चीन के अंतर्राष्ट्रीय मामलों में सक्रिय भूमिका निभाई. इस कारण से न केवल इनके निर्णय लेने की प्रक्रिया अक्षम और थकाऊ बन गई बल्कि इसके लिए परस्पर विरोधी संदेश भी भेजे गए.

5. यद्यपि चीन संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के 5 स्थायी सदस्यों में से एक है, फिर भी ये विवादों को सुलझाने या मध्यस्ता के लिए कभी किसी अंतरराष्ट्रीय सम्मलेन या मध्यस्थता ट्रिब्यून का सहारा नहीं लेता है. खासकर तब, जब इसे अपना पलड़ा भारी ना दिखे. और इस कारण से स्थिति को बदतर बनाते हैं.

लेख को एक और जोक से खत्म करते हैं:

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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