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'विकल्प' की राजनीति वाले केजरीवाल क्यों नही ले सकते मोदी की जगह, जानिए...

    • आईचौक
    • Updated: 28 मार्च, 2021 03:49 PM
  • 28 मार्च, 2021 03:49 PM
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अरविंद केजरीवाल के साथ बीते 6 सालों में सबसे बड़ी समस्या यही रही कि वह राजनीतिक हड़बड़ी का शिकार रहे. सब कुछ जल्दी से कर लेने के चक्कर में उन्होंने अपने ही पैर पर कुल्हाड़ी मार ली. हर बार खुद को नई पार्टी बताने वाले केजरीवाल को राजनीति में अपने वरिष्ठों से अभी बहुत कुछ सीखना है.

किसी भी बाजार में सप्लाई और डिमांड दो ऐसे कारक होते हैं, जो चीजों के भाव को तय करते हैं. राजनीति भी एक तरह का बाजार ही है, जहां नेताओं के भाव समय के साथ चढ़ते और उतरते रहते हैं. दिल्ली के डिप्टी सीएम मनीष सिसोदिया के अनुसार, मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की लोकप्रियता ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को भी पीछे छोड़ दिया है. लोग सोच रहे हैं कि अरविंद केजरीवाल पीएम मोदी के विकल्प हो सकते हैं.

संसद के दोनों सदनों से राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र (दिल्ली) संशोधन विधेयक (जीएनसीटीडी) पारित होने के बाद दिल्ली में अब केजरीवाल के लिए करने को ज्यादा कुछ रहा भी नहीं है. आने वाले समय में हो सकता है कि वो किसी अन्य राज्य (जिसे पूर्ण राज्य का दर्जा न दिलाना पड़े) की ओर रुख करें. लेकिन, मोदी के विकल्प के तौर खुद को सर्वस्वीकार्य नेता घोषित कर देना, उनकी राजनीतिक हड़बड़ी के अलावा और कुछ नहीं है.

अरविंद केजरीवाल के साथ बीते 6 सालों में सबसे बड़ी समस्या यही रही कि वह राजनीतिक हड़बड़ी का शिकार रहे.

दिल्ली की राजनीति में अरविंद केजरीवाल ने सप्लाई और डिमांड का भरपूर ख्याल रखा. राजनीति में एक विकल्प के तौर पर उभरे अरविंद केजरीवाल ने दिसंबर 2013 में 49 दिनों की सरकार चलाने के बाद 2014 के लोकसभा चुनाव में सीधे नरेंद्र मोदी को चुनौती दी थी. केजरीवाल वह चुनाव 3,71,784 वोटों के अंतर से हार गए थे, लेकिन इस हार ने ही उन्हें 2015 में दिल्ली का मुख्यमंत्री बनने में मदद की थी.

आज के समय में दिल्ली में आम आदमी पार्टी की जमीनी हकीकत ये हैं कि किसी राह चलते से भी पूछ लीजिए, तो वह दिल्ली के लिए केजरीवाल का ही नाम लेगा. 2020 के दिल्ली विधानसभा चुनाव से पहले तक वह पीएम मोदी पर खूब हमलावर रहे. लेकिन, चुनाव में उन्होंने नारा दिया 'दिल्ली में तो...

किसी भी बाजार में सप्लाई और डिमांड दो ऐसे कारक होते हैं, जो चीजों के भाव को तय करते हैं. राजनीति भी एक तरह का बाजार ही है, जहां नेताओं के भाव समय के साथ चढ़ते और उतरते रहते हैं. दिल्ली के डिप्टी सीएम मनीष सिसोदिया के अनुसार, मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की लोकप्रियता ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को भी पीछे छोड़ दिया है. लोग सोच रहे हैं कि अरविंद केजरीवाल पीएम मोदी के विकल्प हो सकते हैं.

संसद के दोनों सदनों से राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र (दिल्ली) संशोधन विधेयक (जीएनसीटीडी) पारित होने के बाद दिल्ली में अब केजरीवाल के लिए करने को ज्यादा कुछ रहा भी नहीं है. आने वाले समय में हो सकता है कि वो किसी अन्य राज्य (जिसे पूर्ण राज्य का दर्जा न दिलाना पड़े) की ओर रुख करें. लेकिन, मोदी के विकल्प के तौर खुद को सर्वस्वीकार्य नेता घोषित कर देना, उनकी राजनीतिक हड़बड़ी के अलावा और कुछ नहीं है.

अरविंद केजरीवाल के साथ बीते 6 सालों में सबसे बड़ी समस्या यही रही कि वह राजनीतिक हड़बड़ी का शिकार रहे.

दिल्ली की राजनीति में अरविंद केजरीवाल ने सप्लाई और डिमांड का भरपूर ख्याल रखा. राजनीति में एक विकल्प के तौर पर उभरे अरविंद केजरीवाल ने दिसंबर 2013 में 49 दिनों की सरकार चलाने के बाद 2014 के लोकसभा चुनाव में सीधे नरेंद्र मोदी को चुनौती दी थी. केजरीवाल वह चुनाव 3,71,784 वोटों के अंतर से हार गए थे, लेकिन इस हार ने ही उन्हें 2015 में दिल्ली का मुख्यमंत्री बनने में मदद की थी.

आज के समय में दिल्ली में आम आदमी पार्टी की जमीनी हकीकत ये हैं कि किसी राह चलते से भी पूछ लीजिए, तो वह दिल्ली के लिए केजरीवाल का ही नाम लेगा. 2020 के दिल्ली विधानसभा चुनाव से पहले तक वह पीएम मोदी पर खूब हमलावर रहे. लेकिन, चुनाव में उन्होंने नारा दिया 'दिल्ली में तो केजरीवाल'. यह नारा ही उनकी दिल्ली से बाहर की राजनीति में 'मजबूत' नेता की छवि के बारे में बता देता है.

शिवसेना के वरिष्ठ नेता संजय राउत का कहना है कि 'दिल्ली में कुछ लोग' यूपीए-2 बनाने की तैयारी कर रहे हैं. राउत के इस बयान में कुछ लोग कौन हैं, ये बताने की जरूरत शायद ही पड़ेगी. वैसे उन्होंने एनसीपी अध्यक्ष शरद पवार को संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (PA) का अध्यक्ष बनाने मांग भी की थी. वर्तमान में सोनिया गांधी यूपीए की अध्यक्ष हैं और कांग्रेस का हाल किसी से छिपा नहीं है.

पंजाब और छत्तीसगढ़ को छोड़ दिया जाए, तो राजस्थान में सचिन पायलट ने ही कांग्रेस को झटका देने की कोशिश की थी. मध्य प्रदेश में ज्योतिरादित्य सिंधिया के भाजपा के पाले में जाते ही कमलनाथ सरकार औंधे मुंह गिर गई. पांच राज्यों में हो रहे चुनावों के नतीजों से पूर्व कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी का राजनीतिक भविष्य भी तय हो ही जाएगा.

राष्ट्रीय राजधानी की सत्ता में लंबे समय से वनवास भोग रही भाजपा कुर्सी तक पहुंचने के लिए अपनी हर तिकड़म लगा रही है.

अरविंद केजरीवाल के साथ बीते 6 सालों में सबसे बड़ी समस्या यही रही कि वह राजनीतिक हड़बड़ी का शिकार रहे. सब कुछ जल्दी से कर लेने के चक्कर में उन्होंने अपने ही पैर पर कुल्हाड़ी मार ली. हर बार खुद को नई पार्टी बताने वाले केजरीवाल को राजनीति में अपने वरिष्ठों से अभी बहुत कुछ सीखना है. वह राजनीतिक इशारों को पढ़ने में अभी भी पारंगत नही हुए हैं. यही वजह है कि 2019 में 40 लोकसभा सीटों पर लड़ने वाली AAP केवल एक सीट पर सिमट गई थी.

2014 की तरह 2019 के लोकसभा चुनाव में दिल्ली की एक भी सीट पर आम आदमी पार्टी को जीत नसीब नहीं हुई थी. लोकसभा चुनाव 2019 में दिल्ली के अंदर आम आदमी पार्टी वोट शेयर के मामले में 18 फीसदी वोटों के साथ तीसरे नंबर पर रही थी. बीते 6 सालों में केजरीवाल ने एक ही राज्य में खुद को केंद्रित न करने और संभावनाएं खोजने अन्य राज्यों तक जाने में दिल्ली में खुद को कमजोर कर लिया.

हां, इसमें कोई दो राय नहीं है कि भाजपा दिल्ली के सीएम से डरी हुई है. राष्ट्रीय राजधानी की सत्ता में लंबे समय से वनवास भोग रही भाजपा कुर्सी तक पहुंचने के लिए अपनी हर तिकड़म लगा रही है. 2014 में मोदी का देश के सामने पेश किया गया गुजरात मॉडल कमजोर पड़ चुका है और केजरीवाल का दिल्ली मॉडल सुर्खियां बटोर रहा है. शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं को लेकर उनका किया गया काम देश-विदेश में चर्चा का विषय है.

हाल ही में दिल्ली नगर निगम की 5 सीटों पर हुए उपचुनाव में AAP ने बाजी मारते हुए चार सीटों पर कब्जा जमाया था. एक सीट पर कांग्रेस ने जीत हासिल की थी और भाजपा का डिब्बा गुल हो गया था. पिछले तीन बार से एमसीडी चुनावों में भाजपा का दबदबा रहा है. इन उपचुनावों के परिणाम AAP को राहत तो देते हैं, लेकिन दिल्ली से बाहर जाने की इजाजत नहीं देते हैं.

AAP के लोकतांत्रिक ढांचे में अरविंद केजरीवाल से ऊपर कोई नहीं है और यही बात उन्हें कांग्रेस के समकक्ष खड़ा कर देती है.

AAP के लोकतांत्रिक ढांचे में अरविंद केजरीवाल से ऊपर कोई नहीं है और यही बात उन्हें कांग्रेस के समकक्ष खड़ा कर देती है. कुमार विश्वास और योगेंद्र यादव जैसे कई नाम इसका उदाहरण हैं. वर्तमान कांग्रेस नेता अलका लांबा ने AAP छोड़ते समय ऐसे ही कुछ आरोप लगाए थे. 2014 में पंजाब के अंदर 4 लोकसभा सीट जीतने वाली पार्टी 2019 में भगवंत मान वाली ही सीट बचा पाई थी.

2017 में पंजाब विधानसभा चुनाव में 20 सीटें जीतने वाली पार्टी के कई विधायकों ने AAP से किनारा ही कर लिया था. पंजाब में हालिया हुए निकाय चुनावों में आम आदमी पार्टी समेत पूरे विपक्ष का क्या हाल हुआ, वो सबके सामने है. गुजरात, हिमाचल आदि राज्यों के निकाय चुनावों में छोटी-मोटी जीत शायद ही किसी को नरेंद्र मोदी के सामने प्रमुख प्रतिद्वंदी के तौर पर खड़ा करने में मदद करे.

खैर, केजरीवाल के सबसे भरोसेमंद सिपेहसालार मनीष सिसोदिया ने उन्हें लेकर ये बात कही है, तो कुछ सोच-समझकर ही कही होगी. हो सकता है कि दिल्ली में भाजपा द्वारा 'पर' कतर दिए जाने के बाद दिल्ली के सीएम अब अन्य राज्यों पर पूरी तरह से फोकस साध लें. लेकिन, संभावनाएं टटोलने के लिए बीच मझदार में दिल्ली का साथ छोड़ना उन्हें इस बार भारी पड़ सकता है. दिल्ली को यूं ही देश का 'दिल' नहीं कहते हैं. कुल मिलाकर विकल्प की राजनीति के तौर पर आए अरविंद केजरीवाल अभी नरेंद्र मोदी का विकल्प नहीं बन सकते हैं. उनके लिए अभी 'दिल्ली' बहुत दूर है.

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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