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मोदी अगर 'सपनों का सौदागर' हैं तो राहुल गांधी क्या बेच रहे हैं?

    • मृगांक शेखर
    • Updated: 21 जून, 2022 05:23 PM
  • 21 जून, 2022 05:23 PM
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कांग्रेस भले ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) पर आरोप लगाती रही हो कि वो लोगों को सिर्फ सपने (Merchant of Dreams) दिखाते हैं, पूरा नहीं करते, लेकिन सच तो ये है कि राहुल गांधी (Rahul Gandhi) की तरफ से लोगों के लिए ऐसा कोई ठोस आश्वासन अब तक नहीं नजर आया है.

राहुल गांधी की राजनीति बड़ी ही मुश्किल मोड़ से गुजर रही है. ऐसी जगह जहां से बाउंस बैक करना बड़ा कठिन लगता है, फिर भी ऐसा कोई संकेत नहीं मिल रहा है कि कांग्रेस की राजनीति किसी ठोस रणनीति के साथ सही दिशा में बढ़ रही हो.

प्रवर्तन निदेशालय की पूछताछ के बीच राहुल गांधी पर गिरफ्तारी की तलवार भी सिर पर लटक रही है. सोनिया गांधी अस्पताल में हैं और उनकी भी पूछताछ की तारीख नजदीक आ चुकी है - सत्याग्रह के नाम पर चल रहा विरोध प्रदर्शन अभी रुका हुआ है. हो सकता है पूछताछ के नये दौर के साथ फिर से शुरू हो.

दिल्ली पुलिस के साथ कांग्रेस कार्यकर्ताओं का संघर्ष कठिन होता जा रहा है. पुलिस तो लगता है जैसे कांग्रेस मुख्यालय में आने जाने वालों पर भी पहरा बिठाना चाहती है - और सड़क पर संघर्ष के बीच कार्यकर्ताओं को कानूनी शिकंजे में फंसने का भी खतरा महसूस होता है.

हैरानी की बात ये है कि सब कुछ टीवी पर लाइव देखने के बाद भी लोगों को ऐसी बातों से कोई फर्क नहीं पड़ रहा, जबकि अग्निपथ स्कीम की जानकारी भर मिलते ही युवाओं का विरोध प्रदर्शन शुरू हो जाता है. देखते देखते देश के कई हिस्सों में फैल जाता है - और केंद्र सरकार को बार बार सफाई देने के साथ नयी नयी घोषणाए तक करनी पड़ रही हैं.

क्या राहुल गांधी और सोनिया गांधी को ये नहीं लगता कि जनता का सपोर्ट उनको क्यों नहीं मिल रहा है? ऐसा तो नहीं कि लोग कांग्रेस की विरोध की राजनीति से आजिज आ चुके हैं?

असल में जनता सिर्फ विरोध से नहीं,...

राहुल गांधी की राजनीति बड़ी ही मुश्किल मोड़ से गुजर रही है. ऐसी जगह जहां से बाउंस बैक करना बड़ा कठिन लगता है, फिर भी ऐसा कोई संकेत नहीं मिल रहा है कि कांग्रेस की राजनीति किसी ठोस रणनीति के साथ सही दिशा में बढ़ रही हो.

प्रवर्तन निदेशालय की पूछताछ के बीच राहुल गांधी पर गिरफ्तारी की तलवार भी सिर पर लटक रही है. सोनिया गांधी अस्पताल में हैं और उनकी भी पूछताछ की तारीख नजदीक आ चुकी है - सत्याग्रह के नाम पर चल रहा विरोध प्रदर्शन अभी रुका हुआ है. हो सकता है पूछताछ के नये दौर के साथ फिर से शुरू हो.

दिल्ली पुलिस के साथ कांग्रेस कार्यकर्ताओं का संघर्ष कठिन होता जा रहा है. पुलिस तो लगता है जैसे कांग्रेस मुख्यालय में आने जाने वालों पर भी पहरा बिठाना चाहती है - और सड़क पर संघर्ष के बीच कार्यकर्ताओं को कानूनी शिकंजे में फंसने का भी खतरा महसूस होता है.

हैरानी की बात ये है कि सब कुछ टीवी पर लाइव देखने के बाद भी लोगों को ऐसी बातों से कोई फर्क नहीं पड़ रहा, जबकि अग्निपथ स्कीम की जानकारी भर मिलते ही युवाओं का विरोध प्रदर्शन शुरू हो जाता है. देखते देखते देश के कई हिस्सों में फैल जाता है - और केंद्र सरकार को बार बार सफाई देने के साथ नयी नयी घोषणाए तक करनी पड़ रही हैं.

क्या राहुल गांधी और सोनिया गांधी को ये नहीं लगता कि जनता का सपोर्ट उनको क्यों नहीं मिल रहा है? ऐसा तो नहीं कि लोग कांग्रेस की विरोध की राजनीति से आजिज आ चुके हैं?

असल में जनता सिर्फ विरोध से नहीं, बदलाव की उम्मीद में किसी नेता के पीछे चलती है. फॉलो करती है - मुश्किल तो ये है कि कांग्रेस की पूरी राजनीति विरोध पर आकर अटक जाती है.

कांग्रेस की राजनीति विरोध पर अटक गयी है

कांग्रेस का इल्जाम रहा है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सिर्फ सपने बेचते हैं. अग्निपथ स्कीम के विरोध के पीछे भी कांग्रेस नेतृत्व का यही स्टैंड है. जैसे कृषि कानूनों के खिलाफ था. कांग्रेस ने मोदी सरकार से अग्निपथ योजना वापस लेने की मांग की है.

राहुल गांधी थोड़ा ध्यान से मोदी की नकल भी करते तो कांग्रेस बेहतर स्थिति में होती.

कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने आंदोलन कर रहे युवाओं से शांति के साथ विरोध प्रदर्शन की अपील की है. आंदोलनकारी युवाओं को संबोधित एक पत्र के जरिये सोनिया गांधी ने केंद्र की मोदी सरकार पर हमला बोला है.

अग्निपथ योजना के विरोध के बीच राहुल गांधी का कहना है कृषि कानूनों को लेकर उनकी बात सच साबित हो चुकी है. राहुल गांधी का दावा है कि अग्निपथ स्कीम को भी मोदी सरकार को कृषि कानूनों की तरह ही वापस लेना पड़ेगा.

कांग्रेस की तरफ से जंतर मंतर पर अग्निपथ स्कीम के विरोध में भी सत्याग्रह किया जा रहा है. सत्याग्रह का नेतृत्व कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी वाड्रा कर रही हैं. वैसे राहुल गांधी से ईडी की पूछताछ के खिलाफ चल रहे कांग्रेस के विरोध प्रदर्शन को भी सत्याग्रह ही नाम दिया गया है.

हर बात का विरोध बेमतलब है: 2014 में केंद्र की सत्ता से बेदखल होने के बाद से कांग्रेस का जोर हमेशा ही मोदी सरकार के विरोध पर फोकस रहा है - और राहुल गांधी तो विरोध करते करते बेहद आक्रामक रुख अपना लेते हैं.

सिर्फ नोटबंदी या जीएसटी की कौन कहे, जम्मू-कश्मीर से धारा 370 हटाने का मामला हो या चीन को लेकर केंद्र सरकार की पॉलिसी. कोरोना वायरस के आते ही लॉकडाउन का फैसला हो या फिर कोविड संकट के दौरान सरकार की तरफ से उठाये गये कदम - कांग्रेस नेतृत्व का स्टैंड सिर्फ विरोध पर टिका रहा है.

जम्मू-कश्मीर से धारा 370 हटाये जाने के मामले में जो स्टैंड कांग्रेस नेतृत्व ने लिया, गुलाम नबी आजाद के अलावा कम ही नेता ऐसे रहे जो विरोध के फैसले से इत्तेफाक रखते हों. कई नेताओं ने तो कांग्रेस कार्यकारिणी में खुल कर विरोध भी किया.

गुलाम नबी आजाद का अपना स्वार्थ रहा, लेकिन न तो सोनिया गांधी, न राहुल गांधी और न ही प्रियंका गांधी वाड्रा ने कभी इसे समझने की कोशिश की. जिन नेताओं ने विरोध का दुस्साहस किया उनको टारगेट किया जाने लगा और हाशिये पर भेज दिया गया. जितिन प्रसाद और आरपीएन सिंह जैसे नेताओं ने मजबूर होकर कांग्रेस छोड़ने का फैसला किया - और जैसे ही मौका मिला बीजेपी में जा पहुंचे.

फर्ज कीजिये जम्मू-कश्मीर से धारा 370 हटाये जाने के बाद अगर कांग्रेस के हाथ में सत्ता होती, तो क्या चीजों को वो यूं ही एक झटके में फिर से वापस उसी स्थिति में ला पाती. कहने को तो राहुल गांधी कहते रहे हैं कि सत्ता में आने पर वो जम्मू-कश्मीर पर बीजेपी सरकार का फैसला पलट देंगे, लेकिन क्या ये सब इतना आसान होगा? कांग्रेस सरकार के मनरेगा स्कीम को लेकर भी बीजेपी और मोदी की पहले खिलाफ हुआ करते थे, लेकिन सत्ता में आते ही स्टैंड बदल गया.

मोदी सरकार की जम्मू-कश्मीर नीति के विरोध के बहुत सारे पहलू थे. अब भी हैं. कश्मीरी नेताओं को लंबे समय तक नजरबंद रखे जाने का विरोध किया जा सकता था. कश्मीर में अब भी हालात क्यों नहीं सुधर रहे, सरकार से ये सवाल हर रोज पूछा जा सकता है.

लॉकडाउन लागू करने में हड़बड़ी की आलोचना हो सकती थी, जिसकी वजह से बहुत सारे लोगों को मुश्किलें उठानी पड़ीं - लेकिन जब पूरी दुनिया उसी तरह के फॉर्मूले पर चल रही हो तो विरोध का क्या मतलब रहा? यूपी चुनाव के दौरान तो कांग्रेस के पास मौका भी रहा कि कोविड की बदइंतजामियों के बारे में लोगों को बताये, लेकिन वो क्यों नहीं समझा सकी, वही जाने?

मोदी पर निजी हमले से कुछ नहीं होने वाला: कांग्रेस के कई सीनियर नेता राहुल गांधी को समझाते रहे हैं कि वो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर निजी हमलों ले बचने की कोशिश करें, लेकिन उनकी जिद है कि मानते ही नहीं.

वैसे भी नीतियों को विरोध तो सही है, लेकिन नेता के विरोध का क्या मतलब है? वो भी ऐसा नेता जिसकी लोकप्रियता के मुकाबले में राहुल गांधी काफी दूर खड़े नजर आते हैं. फिर भी वो चुनाव प्रचार के दौरान बोल देते हैं, 'युवा डंडे मारेंगे...'

'सूट बूट की सरकार' तक भी कोई बहुत आपत्ति वाली बात नहीं थी, लेकिन आम चुनाव में 'चौकीदार चोर है' जैसा नारा तो आत्मघाती ही रहा, साबित भी हो गया. ये बात अलग है कि राहुल गांधी अब भी अपनी बात पर कायम हैं. कांग्रेस अध्यक्ष पद से इस्तीफे की कॉपी ट्विटर पर शेयर करते हुए ये बात कांग्रेस नेता ने दोहरायी थी.

जनता को बदलाव और विकल्प चाहिये

ऐसा भी नहीं है कि देश की जनता मोदी सरकार पर आंख मूंद कर भरोसा करने लगी है - और कांग्रेस पर उसकी नजर नहीं है, लेकिन राहुल गांधी ने अब तक ऐसा कुछ किया ही क्या है जो वो कांग्रेस को विकल्प के तौर पर सोचे.

बीजेपी के प्रति लोगों को इतना ही भरोसा होता तो पंजाब में अरविंद केजरीवाल की पार्टी को लोग सत्ता क्यों सौंप देते? ऐसा तो नहीं था कि बीजेपी ने पंजाब में अपने उम्मीदवार ही नहीं खड़े किये थे!

पंजाब के लोग बदलाव चाहते थे, विकल्प मिला और सत्ता बदल डाले. ऐसा केंद्र में भी हो सकता है. 2019 में भी ये मौका था, लेकिन कांग्रेस चूक गयी. यूपी चुनाव में भी एक मौका मिला था, लेकिन वहां भी कांग्रेस चूकी हुई लगती है. एक चुनाव की हार जीत ही नहीं, आगे के लिए उम्मीद बढ़ा देना भी तो जरूरी होता है. यूपी चुनाव के नतीजों से तो ऐसा ही लगता है कि अमेठी के लोगों को अब भी राहुल गांधी को लेकर कोई उम्मीद नहीं जग पायी है.

सपनों का मर जाना: सपनों को लेकर कवि पाश ने जो लिखा है राहुल गांधी को बार बार पढ़ना चाहिये - '...सबसे खतरनाक होता है, सपनों का मर जाना.'

मालूम नहीं राहुल गांधी को याद रहता कि नहीं कि कभी जवाहरलाल नेहरू अपने टेबल पर रॉबर्ट फ्रॉस्ट की कविता की चार लाइनें रखा करते थे - 'द वूड्स आर लवली डार्क एंड डीप... एंड माइल्स टु गो बिफोर आय स्लीप.'

ये लाइने प्रेरणा देती हैं. लक्ष्य कहीं भूल न जाये याद दिलाती रहती हैं. बीच रास्ते के आलस्य से बचाती हैं - कहने का मतलब यही है कि अच्छी तरह समझ लेना चाहिये कि सफलता का कोई शॉर्ट कट नहीं होता. धैर्यपूर्वक सही वक्त का इंतजार करना ही होता है.

28 अगस्त, 1963 के वाशिंगटन मार्च में मार्टिन लूथर किंग का भाषण काफी मशहूर हुआ था और आज भी याद किया जाता है – 'आय हैव अ ड्रीम'. ये भाषण आज भी पाश की कविता की तरह ही प्रासंगिक है और शायद हमेशा ही रहेगा. अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा भी इसे ही अपने जीवन का सबसे प्रेरक मंत्र मानते हैं.

और यही वजह रही कि बराक ओबामा ने HOPE यानी उम्मीद को लेकर अभियान चलाया था - राहुल गांधी को लेकर ओबामा की टिप्पणी को भूल कर कांग्रेस क्यों नहीं एक बार ओबामा जैसे ही उम्मीदों से भरी कोई मुहिम चलाती. एक बार आजमा कर देख सकती है, अब तक आजमाये सारे नुस्खों से ये बेहतर साबित हो सकता है.

2016 में कांग्रेस नेता आनंद शर्मा ने मोदी सरकार के दो साल पूरे होने के मौके पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को 'सपनों का सौदागर' कहा था. निश्चित तौर पर ये कांग्रेस नेतृत्व के लिए नौ साल बाद भूल सुधार जैसा ही रहा होगा. 2007 में गुजरात विधानसभा चुनाव के दौरान सोनिया गांधी ने नरेंद्र मोदी को 'मौत का सौदागर' कहा था. तब के गुजरात के मुख्यमंत्री को टारगेट करते हुए सोनिया गांधी ने कहा था, 'गुजरात की सरकार चलाने वाले झूठे, बेईमान, मौत के सौदागर हैं.'

ऐसा भी नहीं कि मौका ही नहीं मिलता: 2019 के आम चुनाव में कांग्रेस NYAY यानी न्यूनतम आय योजना लेकर आयी थी. निश्चित तौर पर स्कीम को बताने समझाने के लिए कम वक्त बचा था, लेकिन लेकिन राहुल गांधी ने पूरी एनर्जी 'चौकीदार चोर है' पर झोंक दी. अब कोई इसे एरर ऑफ जजमेंट समझे या कुछ और मान ले.

यूपी चुनाव 2022 में भी युवाओं के लिए रोजगार और महिलाओं को लेकर जो कार्यक्रम कांग्रेस ने बनाये थे, काफी अच्छे थे. लेकिन प्रयोग के तौर पर सिर्फ यूपी तक सीमित कर दिया गया. अगर राहुल गांधी चाहते तो पांचों राज्यों में ऐसे कार्यक्रमों के साथ चुनाव मैदान में उतरते. चुनाव जीतते या नहीं, कम से कम लोगों में ये मैसेज तो जाता ही कि कांग्रेस भी लोगों के लिए कुछ सोच रही है - गंभीर भी है.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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