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सुशील कुमार मोदी ने प्रवासी मजदूरों के साथ किया है भद्दा मजाक

    • आईचौक
    • Updated: 15 अप्रिल, 2021 02:09 PM
  • 15 अप्रिल, 2021 02:09 PM
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मान लेते हैं कि सरकारों ने मजदूरों के लिए काफी कुछ किया, लेकिन इसके बावजूद भी वह राज्यों से पलायन रोकने में असफल हैं. मजदूरों का कल्याण 100 दिन के रोजगार या मुफ्त के गेंहू-चावल से नहीं हो सकता है. सरकार को ऐसी व्यवस्था बनानी होगी, जिससे उन्होंने साल के 365 दिन काम मिले.

कोरोना महामारी की दूसरी लहर ने देश के कई राज्यों को अपनी चपेट में ले लिया है. राज्यों में कोरोना कर्फ्यू के साथ ही लॉकडाउन जैसे अन्य उपायों के जरिये कोविड-19 के मामलों में आई तेजी को रोकने की कोशिश शुरू कर दी गई है. इसी के साथ देश के महानगरों से प्रवासी मजदूरों के पलायन की खबरों में भी तेजी आई है. सैकड़ों की संख्या में प्रवासी मजदूर अपने गांव-जोहार की ओर लौट रहे हैं. इन प्रवासी मजदूरों में बड़ी संख्या में बिहार के रहने वाले लोग भी हैं. इन प्रवासी मजदूरों को उम्मीद है कि अपने घर लौटने पर सरकार कुछ न कुछ सहायता करेगी, लेकिन उसकी यह उम्मीद खोखली नजर आती है.

बिहार के उपमुख्यमंत्री रहे राज्यसभा सांसद सुशील कुमार मोदी ने इस कठिन समय में भी प्रवासी मजदूरों से ऊपर राजनीति को तरजीह दी है. सुशील कुमार मोदी का कहना है कि पड़ोसी राज्य (पश्चिम बंगाल) में बदलाव होने से बिहार के विकास में मदद मिलेगी और बिहारी मूल के लाखों लोगों को वहां रोजगार के नये अवसर मिलेंगे. सुशील मोदी का ये कहना दर्शाता है कि नेताओं के लिए गरीब मजदूर केवल अपना हित साधने का एक जरिया भर हैं. यह राजनीति का प्रवासी मजदूरों के साथ किया जा रहा भद्दा मजाक है. सुशील मोदी के हिसाब से प्रवासी मजदूर महाराष्ट्र या दिल्ली से लौटकर बिहार जरूर आ रहे हैं, लेकिन अब इनका नया ठिकाना पश्चिम बंगाल होने वाला है. वो भी भाजपा की सरकार बनने के बाद.

बिहार की स्थिति इतने वर्षों बाद भी नहीं सुधरी है, यहां रोजगार चाहिए, तो राज्य से पलायन करो. अच्छी पढ़ाई करनी है, तो राज्य से पलायन करो. इसे विडंबना ही कहेंगे कि बिहार में इतने लंबे समय तक सरकार चलाने के बावजूद भाजपा और जेडीयू के नेता अपने प्रदेश में लोगों को रोजगार मुहैया कराने की स्थिति में नहीं आ सके हैं. लोगों की मूलभूत जरूरतों की चीजें भी उपलब्ध नहीं करा सके हैं. इससे तो यही साबित होता है कि नीतीश कुमार का सुशासन...

कोरोना महामारी की दूसरी लहर ने देश के कई राज्यों को अपनी चपेट में ले लिया है. राज्यों में कोरोना कर्फ्यू के साथ ही लॉकडाउन जैसे अन्य उपायों के जरिये कोविड-19 के मामलों में आई तेजी को रोकने की कोशिश शुरू कर दी गई है. इसी के साथ देश के महानगरों से प्रवासी मजदूरों के पलायन की खबरों में भी तेजी आई है. सैकड़ों की संख्या में प्रवासी मजदूर अपने गांव-जोहार की ओर लौट रहे हैं. इन प्रवासी मजदूरों में बड़ी संख्या में बिहार के रहने वाले लोग भी हैं. इन प्रवासी मजदूरों को उम्मीद है कि अपने घर लौटने पर सरकार कुछ न कुछ सहायता करेगी, लेकिन उसकी यह उम्मीद खोखली नजर आती है.

बिहार के उपमुख्यमंत्री रहे राज्यसभा सांसद सुशील कुमार मोदी ने इस कठिन समय में भी प्रवासी मजदूरों से ऊपर राजनीति को तरजीह दी है. सुशील कुमार मोदी का कहना है कि पड़ोसी राज्य (पश्चिम बंगाल) में बदलाव होने से बिहार के विकास में मदद मिलेगी और बिहारी मूल के लाखों लोगों को वहां रोजगार के नये अवसर मिलेंगे. सुशील मोदी का ये कहना दर्शाता है कि नेताओं के लिए गरीब मजदूर केवल अपना हित साधने का एक जरिया भर हैं. यह राजनीति का प्रवासी मजदूरों के साथ किया जा रहा भद्दा मजाक है. सुशील मोदी के हिसाब से प्रवासी मजदूर महाराष्ट्र या दिल्ली से लौटकर बिहार जरूर आ रहे हैं, लेकिन अब इनका नया ठिकाना पश्चिम बंगाल होने वाला है. वो भी भाजपा की सरकार बनने के बाद.

बिहार की स्थिति इतने वर्षों बाद भी नहीं सुधरी है, यहां रोजगार चाहिए, तो राज्य से पलायन करो. अच्छी पढ़ाई करनी है, तो राज्य से पलायन करो. इसे विडंबना ही कहेंगे कि बिहार में इतने लंबे समय तक सरकार चलाने के बावजूद भाजपा और जेडीयू के नेता अपने प्रदेश में लोगों को रोजगार मुहैया कराने की स्थिति में नहीं आ सके हैं. लोगों की मूलभूत जरूरतों की चीजें भी उपलब्ध नहीं करा सके हैं. इससे तो यही साबित होता है कि नीतीश कुमार का सुशासन और डबल इंजन की सरकार बिहार में फेल ही रही है.

रोजगार के मामले में आंकड़े केंद्र की मोदी सरकार का साथ वैसे भी नहीं देते हैं. पश्चिम बंगाल के लोगों को तमाम उद्योग लगवाने की बात कहते हुए भाजपा नौकरियां देने का वादा कर रही है. लेकिन, भाजपा के सांसद की मानें, तो वहां बिहार के मजदूरों को लाखों की संख्या में नौकरियां मिलने वाली हैं. नौकरियां किसे मिलेंगी, ये न भाजपा बता सकती है और न उसके नेता. हां, गरीब और प्रवासी मजदूरों की भावनाओं के साथ खेल जरूर हो रहा है.

मनरेगा जैसी योजनाओं में 100 दिन के रोजगार के सहारे मजदूर पूरा साल तो नहीं निकाल सकते हैं.

वैसे, राज्य सरकार का दायित्व बनता है कि वह हर गरीब मजदूर को रोजगार के साधन मुहैया कराए. मनरेगा जैसी योजनाओं में 100 दिन के रोजगार के सहारे मजदूर पूरा साल तो नहीं निकाल सकते हैं. बड़े शहरों की बड़ी-बड़ी फैक्ट्रियों में मजदूर वर्ग खुद को झोंककर देश की तरक्की में योगदान देता है. ऊंची-ऊंची इमारतें खड़ी करने में अपना पसीना बहाता है और सरकार की ओर से आखिर उसे मिलता क्या है? ये भरोसा की पड़ोसी राज्य में हमारी सरकार आएगी, तो वहां जाकर मजदूरी करना.

मान लेते हैं कि सरकारों ने मजदूरों के लिए काफी कुछ किया, लेकिन इसके बावजूद भी वह राज्यों से पलायन रोकने में असफल हैं. मजदूरों का कल्याण 100 दिन के रोजगार या मुफ्त के गेंहू-चावल से नहीं हो सकता है. सरकार को ऐसी व्यवस्था बनानी होगी, जिससे उन्होंने साल के 365 दिन काम मिले. इन मजदूरों के जब तक हाथ-पैर चलते हैं, वह काम करते हैं. लेकिन, जिस दिन वह अशक्त हो जाते हैं, उन्हें पूछने वाला कोई नहीं होता है. उनको कोई पेंशन नहीं मिलती, उनके पास सामाजिक सुरक्षा के नाम कुछ भी नहीं है.

सरकारों को मजदूर की न्यूनतम आय यो काम के घंटे तय करने वाले कानून केवल बनाने नहीं चाहिए, बल्कि उनका सख्ती से पालन भी कराना चाहिए. फैक्ट्रियों, प्राइवेट कंपनियां और अन्य रोजगार देने वाली संस्थान आज भी मजदूरों का उत्पीड़न करते हैं. 12 घंटों तक काम कराते हैं और मजदूरी के नाम पर छोटी सी रकम देते हैं. सरकारों को राज्य में ही उद्योग-धंधे लगवाने की कोशिश करनी चाहिए, जिससे की लोग बाहरी राज्यों में पलायन को मजबूर न हों. वैसे, पश्चिम बंगाल में सत्ता का बदलाव बिहार के प्रवासी मजदूर वर्ग के लिए कैसे फायदेमंद होगा, ये तो सुशील मोदी ही बता सकते हैं.

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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