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सुप्रीम कोर्ट में अटक सकता है सवर्ण आरक्षण का चुनावी मास्टरस्ट्रोक

    • सुशील कुमार
    • Updated: 11 जनवरी, 2019 01:30 PM
  • 11 जनवरी, 2019 01:29 PM
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आर्थिक रूप से आरक्षण देना अच्छी पहल है. लेकिन सरकार को इस पर थोड़ा और होमवर्क करना चाहिए था. सरकार ने यहां भी चुनावी गुणा भाग को तरजीह देने की कोशिश की है. ताकि आगामी लोकसभा चुनाव में केन्द्र की बीजेपी सरकार को अगड़ों का एकमुश्त वोट मिल सके.

आर्थिक रूप से कमजोर सवर्णों को शिक्षा और सरकारी नौकरियों में 10 फीसदी आरक्षण सुनिश्चित करने वाला संविधान का 124वां संशोधन विधेयक लोकसभा और राज्‍यसभा में पारित हो गया. वोटिंग के दौरान इस संशोधन विधेयक को ज्यादातर पार्टियों का समर्थन मिला. खास बात ये कि इस बार आरक्षण के मसले पर किसी भी स्तर पर मामूली किंतु-परंतु को छोड़कर बड़ा विरोध नहीं हुआ. क्योंकि समाजिक न्याय के मसले पर कोई भी पार्टी आरक्षण विरोध का तमगा अपने माथे पर नहीं चिपकाना चाहती. वो भी तब जब चुनाव सिर पर हो.

लोकसभा चुनाव से पहले मोदी सरकार के लिए ये बड़ा मास्टरस्ट्रोक माना जा रहा है क्योंकि ये पहली बार है जब आर्थिक रूप से कमजोर लोगों के लिए आरक्षण की पहल की गई है. इसके तहत 8 लाख रुपये तक के सलाना आय वाले परिवारों को 10 फीसदी आरक्षण का लाभ मिलेगा.

आर्थिक रूप से आरक्षण देना अच्छी पहल है, लेकिन सरकार को इस पर थोड़ा और होमवर्क करना चाहिए था

सुप्रीम कोर्ट के सामने जो सवाल उठेगा:

सवाल ये है कि देश में 8 लाख रुपया सलाना (यानी तकरीबन 67,000 रु महीना) कमाने वाले लोग कितने हैं? क्या सही मायने में सरकार की मंशा आर्थिक रूप से कमजोर लोगों को राहत पहुंचाने की है?

जरा सांख्यिकी एवं कार्यक्रम क्रियान्वयन मंत्रालय की इस रिपोर्ट पर नजर डालें तो पता चलेगा कि इस देश में सलाना प्रति व्यक्ति आय 1,12,835 रु है यानी 9,402 रु प्रति माह के आसपास. ये आंकड़ा वित्तीय वर्ष 2017-2018 का है. समझ सकते हैं कि आरक्षण का लाभ किन लोगों को देने की तैयारी है. जिनके पास किसी भी चीज की कमी नहीं है. या यूं कहें कि जो सुविधा संपन्न हैं जिनके बच्चों की पढ़ाई लिखाई और परवरिश अच्छे माहौल में होती है.

इसे दूसरे तरीके से समझें कि अगर 8 लाख...

आर्थिक रूप से कमजोर सवर्णों को शिक्षा और सरकारी नौकरियों में 10 फीसदी आरक्षण सुनिश्चित करने वाला संविधान का 124वां संशोधन विधेयक लोकसभा और राज्‍यसभा में पारित हो गया. वोटिंग के दौरान इस संशोधन विधेयक को ज्यादातर पार्टियों का समर्थन मिला. खास बात ये कि इस बार आरक्षण के मसले पर किसी भी स्तर पर मामूली किंतु-परंतु को छोड़कर बड़ा विरोध नहीं हुआ. क्योंकि समाजिक न्याय के मसले पर कोई भी पार्टी आरक्षण विरोध का तमगा अपने माथे पर नहीं चिपकाना चाहती. वो भी तब जब चुनाव सिर पर हो.

लोकसभा चुनाव से पहले मोदी सरकार के लिए ये बड़ा मास्टरस्ट्रोक माना जा रहा है क्योंकि ये पहली बार है जब आर्थिक रूप से कमजोर लोगों के लिए आरक्षण की पहल की गई है. इसके तहत 8 लाख रुपये तक के सलाना आय वाले परिवारों को 10 फीसदी आरक्षण का लाभ मिलेगा.

आर्थिक रूप से आरक्षण देना अच्छी पहल है, लेकिन सरकार को इस पर थोड़ा और होमवर्क करना चाहिए था

सुप्रीम कोर्ट के सामने जो सवाल उठेगा:

सवाल ये है कि देश में 8 लाख रुपया सलाना (यानी तकरीबन 67,000 रु महीना) कमाने वाले लोग कितने हैं? क्या सही मायने में सरकार की मंशा आर्थिक रूप से कमजोर लोगों को राहत पहुंचाने की है?

जरा सांख्यिकी एवं कार्यक्रम क्रियान्वयन मंत्रालय की इस रिपोर्ट पर नजर डालें तो पता चलेगा कि इस देश में सलाना प्रति व्यक्ति आय 1,12,835 रु है यानी 9,402 रु प्रति माह के आसपास. ये आंकड़ा वित्तीय वर्ष 2017-2018 का है. समझ सकते हैं कि आरक्षण का लाभ किन लोगों को देने की तैयारी है. जिनके पास किसी भी चीज की कमी नहीं है. या यूं कहें कि जो सुविधा संपन्न हैं जिनके बच्चों की पढ़ाई लिखाई और परवरिश अच्छे माहौल में होती है.

इसे दूसरे तरीके से समझें कि अगर 8 लाख रुपया तक के सलाना आय वाले को आरक्षण मिलेगा तो सामान्य वर्ग के तकरीबन 96 फीसदी लोग इसके दायरे में होंगे. क्योंकि 96 फीसदी लोगों की सलाना आय 8 लाख रु या इससे कम के दायरे में आता है. तो फिर इस आरक्षण का मतलब क्या रह जाएगा.

इसे यूं भी समझ सकते हैं कि जब 8 लाख रुपया तक कमाने वालों को आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग माना जाएगा तो सवर्णों में जो असल कमजोर वर्ग है उसे आरक्षण का लाभ कैसे मिलेगा. क्योंकि आरक्षण का अवसर तो सुविधा संपन्न लोग ही ले जाएंगे, और जो वास्तविक रूप से गरीब या कमजोर हैं वे कमजोर ही रह जाएंगे. क्योंकि जिन परिवारों की सलाना आमदनी 1-2 लाख रु होगी उनके बच्चों की पढाई लिखाई भी अभाव में होगी उनके बच्चे उन परिवारों के बच्चों के साथ कभी भी कंपीट नहीं कर पाएंगे जिनके परिवारों की सलाना आमदनी 8 लाख रु के आसपास होगी. दोनों परिवारों के बच्चों को एक ही पलड़े पर नहीं रख सकते हैं. क्योंकि दोनों परिवारों के बच्चों का रहन सहन और विकास एक जैसा नहीं होगा. हां लेकिन मैं मानता हूं की कुछ गुदड़ी के लाल भी होते हैं कुछ अपवाद भी होते हैं. इससे इनकार नहीं किया जा सकता.

यही नहीं संशोधन विधेयक में 5 एकड़ तक जमीन वालों को भी आरक्षण का लाभ देने की बात कही गई है. जो कि समझ से परे है. देश में फिलहाल सिर्फ 14 फीसदी लोग हैं जिनके पास 5 एकड़ तक जमीन है जिनके पास सुख सुविधा की सारी चीजें मौजूद हैं और ये भी इस आरक्षण के दायरे में होंगे.

2019 चुनाव में सवर्णों को एक साथ लाने के लिए इससे बेहतर कोई मास्टर स्ट्रोक हो नहीं सकता

क्या कोर्ट में टिक पाएगा ये बिल

सवाल ये है कि सरकार का ये संशोधन बिल कोर्ट में टिक पाएगा. क्योंकि सरकार का ये कदम आरक्षण पर दिए सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बिल्कुल उलट है. क्योंकि मौजूदा हालात में आरक्षण का दायरा 59.5 फीसदी तक पहुंच जाएगा जो कि 50 फीसदी के दायरे से ऊपर होगा. हालांकि केन्द्र सरकार को उम्मीद है कि संविधान में प्रावधान होने की वजह से अदालत इस पर रोक नहीं लगाएगी. यदि मोदी सरकार सुप्रीम कोर्ट को जातिगत आधार पर दिए जाने वाले आरक्षण में छेड़छाड़ न करने का भरोसा दिलाए, तो भी उसे यह समझाने में कठिनाई होगी कि 8 लाख रु की आय वाले परिवार के व्‍यक्ति को आर्थिक कमजोर मानने की क्‍या वजह है.

सलाना आय का दायरा कम हो

वैसे आर्थिक रूप से आरक्षण देना अच्छी पहल है. लेकिन सरकार को इस पर थोड़ा और होमवर्क करना चाहिए था. यानी आरक्षण का लाभ लेने वालों की सलाना आय का दायरा 1 या 2 लाख रुपया किया जाना चाहिए. इससे सही और जरूरतमंद लोगों को फायदा मिलता. लेकिन शायद सरकार ने यहां भी चुनावी गुणा भाग को तरजीह देने की कोशिश की है. ताकि आगामी लोकसभा चुनाव में केन्द्र की बीजेपी सरकार को अगड़ों का एकमुश्त वोट मिल सके.

दरअसल हिन्दी पट्टी के तीन राज्यों मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान के विधानसभा चुनाव में जिस प्रकार से एससी एसटी संशोधन विधेयक के खिलाफ अगड़ों ने नोटा का बटन दबाकर बीजेपी को सत्ता से दूर कर दिया. इससे केन्द्र की मोदी सरकार भांप गई थी कि 2019 चुनाव में सवर्णों को एक साथ लाने के लिए इससे बेहतर कोई मास्टर स्ट्रोक हो नहीं सकता.

इन्हें कैसे मिलेगा न्याय

आंकड़ों पर नजर डालें तो देश की कुल जनसंख्या सवा सौ करोड़ से ज्यादा है इनमें करीब 27 करोड़ लोग गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन करते हैं. इनमें से तकरीबन 10 फीसदी लोग सामान्य वर्ग या यूं कहें की जिन्हें 10 फीसदी आरक्षण का लाभ मिलेगा, उनमें आते हैं. अब जरा इसे भी समझ लें कि गरीबी रेखा से नीचे कौन हैं. गरीबी रेखा का पैमाना मापने का सरकारी स्केल अलग-अलग है. शहरों में 28 रुपए 65 पैसे प्रतिदिन खर्च करने वाले और गांवों में 22 रुपये 42 पैसे खर्च करने वाले को गरीब नहीं माना जाता. इस लिहाज से शहरों में महीने में 859 रुपए 60 पैसे और ग्रामीण क्षेत्रों में 672 रुपए 80 पैसे से अधिक खर्च करने वाला व्यक्ति गरीब नहीं है. अब समझिए की 859 रुपया प्रति महीना कमाने वाला परिवार 8 लाख रुपया प्रति महीना कमाने वाले परिवारों से कैसे बराबरी करेगा? क्या आरक्षण में विशेष रूप से इन जैसे लोगों को तरजीह नहीं देनी चाहिए?

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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