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निकाय चुनाव छमाही थे, तो गोरखपुर उपचुनाव योगी का सालाना इम्तिहान है

    • आईचौक
    • Updated: 10 मार्च, 2018 07:28 PM
  • 10 मार्च, 2018 07:28 PM
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बीजेपी बीते दो उपचुनावों में लोक सभा की तीन सीटें कांग्रेस के हाथों गवां चुकी है. एक पंजाब और दो राजस्थान में. लेकिन यूपी की दो और बिहार की एक लोक सभा सीट बीजेपी के लिए ज्यादा अहम हैं.

जिस दिन यूपी विधानसभा के नतीजे आये थे उसके ठीक साल भर बाद गोरखपुर में उपचुनाव हो रहा है. हालांकि, नतीजों के दिन किसी को ये नहीं पता था कि योगी ही यूपी के मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठेंगे. नतीजे 11 मार्च 2017 को आये थे और उपचुनाव के लिए वोटिंग 11 मार्च 2018 को होने जा रही है.

क्या ये योगी का इम्तिहान है?

कहने को तो कहा जा सकता है कि यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ अपना चुनावी इम्तिहान पास कर चुके हैं. नगर निकाय चुनाव में बीजेपी को भारी जीत मिली थी. योगी के साथ ही यूपी बीजेपी अध्यक्ष महेंद्र नाथ पांडेय भी नगर निकाय चुनावों में जीत हासिल कर अच्छे मार्क्स के साथ उतीर्ण हो चुके हैं.

दांव पर साख!सही मायने में देखा जाये तो गोरुखपुर उपचुनाव ही यूपी के सीएम योगी आदित्यनाथ का असली इम्तिहान साबित होने जा रहा है. योगी आदित्यनाथ पांच बार गोरखपुर सीट का प्रतिनिधित्व कर चुके हैं और उनसे पहले उनके गुरु महंत अवैद्यनाथ वहां से सांसद हुआ करते रहे. देखें तो पिछले 29 साल से गोरखपुर सीट पर गोरखनाथ मंदिर का प्रभाव रहा है.

योगी के उम्मीदवार रहते अब तक सूबे की चुनावी गणित के सारे तिकड़म हाशिये पर छिटक जाया करते रहे, लेकिन इस बार हालात बदले से नजर आ रहे हैं.

बीजेपी ने उपेंद्र दत्त शुक्ला को उम्मीदवार बनाया है और उसके पीछे भी खास रणनीति है. योगी को ठाकुर समुदाय तो आंख मूंद कर समर्थन देता आ रहा है, लेकिन ब्राह्मण समुदाय भेदभाव के नाम पर नाराजगी जाहिर करता रहा है. यही सोच कर बीजेपी ने गोरखपुर के शिवप्रताप शुक्ला को राज्य सभा भेजा और फिर मंत्री भी बनाया. शुक्ला योगी की विरोधी लॉबी से आते हैं. वो लॉबी जो योगी पर ठाकुरों के साथ पक्षपात के आरोप लगाती रही है. ऐसा पहली बार है कि गोरखपुर में लड़ाई एकतरफा नहीं लग रही है, बल्कि...

जिस दिन यूपी विधानसभा के नतीजे आये थे उसके ठीक साल भर बाद गोरखपुर में उपचुनाव हो रहा है. हालांकि, नतीजों के दिन किसी को ये नहीं पता था कि योगी ही यूपी के मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठेंगे. नतीजे 11 मार्च 2017 को आये थे और उपचुनाव के लिए वोटिंग 11 मार्च 2018 को होने जा रही है.

क्या ये योगी का इम्तिहान है?

कहने को तो कहा जा सकता है कि यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ अपना चुनावी इम्तिहान पास कर चुके हैं. नगर निकाय चुनाव में बीजेपी को भारी जीत मिली थी. योगी के साथ ही यूपी बीजेपी अध्यक्ष महेंद्र नाथ पांडेय भी नगर निकाय चुनावों में जीत हासिल कर अच्छे मार्क्स के साथ उतीर्ण हो चुके हैं.

दांव पर साख!सही मायने में देखा जाये तो गोरुखपुर उपचुनाव ही यूपी के सीएम योगी आदित्यनाथ का असली इम्तिहान साबित होने जा रहा है. योगी आदित्यनाथ पांच बार गोरखपुर सीट का प्रतिनिधित्व कर चुके हैं और उनसे पहले उनके गुरु महंत अवैद्यनाथ वहां से सांसद हुआ करते रहे. देखें तो पिछले 29 साल से गोरखपुर सीट पर गोरखनाथ मंदिर का प्रभाव रहा है.

योगी के उम्मीदवार रहते अब तक सूबे की चुनावी गणित के सारे तिकड़म हाशिये पर छिटक जाया करते रहे, लेकिन इस बार हालात बदले से नजर आ रहे हैं.

बीजेपी ने उपेंद्र दत्त शुक्ला को उम्मीदवार बनाया है और उसके पीछे भी खास रणनीति है. योगी को ठाकुर समुदाय तो आंख मूंद कर समर्थन देता आ रहा है, लेकिन ब्राह्मण समुदाय भेदभाव के नाम पर नाराजगी जाहिर करता रहा है. यही सोच कर बीजेपी ने गोरखपुर के शिवप्रताप शुक्ला को राज्य सभा भेजा और फिर मंत्री भी बनाया. शुक्ला योगी की विरोधी लॉबी से आते हैं. वो लॉबी जो योगी पर ठाकुरों के साथ पक्षपात के आरोप लगाती रही है. ऐसा पहली बार है कि गोरखपुर में लड़ाई एकतरफा नहीं लग रही है, बल्कि समाजवादी पार्टी यहां बीजेपी को टक्कर भी दे रही है. वैसे कांग्रेस उम्मीदवार सहित गोरखपुर से 10 प्रत्याशी मैदान में हैं.

बीजेपी के सामने बाकी चुनौतियां तो वही हैं जो पूरे प्रदेश में हैं, लेकिन गोरखपुर अस्पताल में बच्चों की मौत के मामले को समाजवादी पार्टी ने काफी तूल देने की कोशिश की है. योगी आदित्यनाथ कानून और व्यवस्था के नाम पर एनकाउंटर को सही ठहराते रहे हैं, लेकिन विरोधियों ने उसमें भी भेदभाव के इल्जाम लगाये हैं.

योगी पर जिम्मेदारी तो फूलपुर की भी है जो डिप्टी सीएम केशव मौर्या के इस्तीफे से खाली हुई है. केशव मौर्या भी यूपी बीजेपी के अध्यक्ष रह चुके हैं. बेहतर ये कहना होगा कि यूपी के नगर निकाय चुनाव योगी के लिए छमाही इम्तिहान थे तो गोरखपुर और फूलपुर उपचुनाव सालाना इम्तिहान हैं.

बीजेपी के लिए अररिया की अहमियत

बीजेपी के हिसाब से देखें तो गोरखपुर और फूलपुर की ही तरह अररिया सीट उसके लिए अलग तरीके से अहम है. अररिया वो सीट है जो 2014 की मोदी लहर में भी बीजेपी के हाथ नहीं लग पायी थी. अब जबकि बीजेपी ने महागठबंधन से खींच कर नीतीश को अपने में मिलाकर बिहार चुनाव में हार का आधा बदला ले लिया है, अररिया सीट में बाकी बदला पूरा हो सकता है - और इसके लिए ये आखिरी मौका है.

2014 में अररिया इलाके में लोकप्रिय नेता तसलीमुद्दीन ने ये लोकसभा सीट आरजेटी के टिकट पर लड़ा और बीजेपी को शिकस्त खानी पड़ी. इस बार आरजेडी ने तसलीमुद्दीन के बेटे सरफराज आलम को ही उम्मीदवार बनाया है. सरफराज की कहानी ये है कि उपचुनाव की घोषणा से पहले तक वो जेडीयू के विधायक थे. अब बिहार में बीजेपी और जेडीयू मिल कर ही सरकार चलाते हैं.

बीजेपी के रास्ते में एक और मुश्किल बन कर जीतनराम मांझी खड़े हो गये हैं. 2015 के विधानसभा चुनाव में तो मांझी पूरी तरह फेल रहे, लेकिन अररिया में मांझी के मुसहर बिरादरी के खासे वोटर होने के कारण वो बीजेपी की राह का रोड़ा बन गये हैं.

नीतीश कुमार के लिए ये चुनाव फिलहाल इतना ही मायने रखता है कि आरजेडी से ये छीन कर वो बीजेपी को गिफ्ट कर दें. आरजेडी को सबक सिखाने में उन्हें जो मजा आएगा वो उनकी भावनात्मक और कुछ राजनीतिक उपलब्धि हो सकती है.

इसके पहले के तीन उपचुनाव बीजेपी के लिए इतने अहम नहीं थे जितने गोरखपुर, फूलपुर और अररिया हैं. बीजेपी इससे पहले एक पंजाब और दो राजस्थान की लोक सभा सीटें कांग्रेस के हाथों गवां चुकी है. ऐसे में ये तीनों ही उपचुनाव बीजेपी के लिए अलग अलग तरीके से महत्वपूर्ण हो जाते हैं.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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