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यूपी के दो उपचुनाव योगी के लिए नई कसौटी होंगे

    • आशीष वशिष्ठ
    • Updated: 11 फरवरी, 2018 03:44 PM
  • 11 फरवरी, 2018 03:44 PM
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राजस्थान में भाजपा की हार के आंसू सूखने से पहले ही चुनाव आयोग ने यूपी व बिहार में उपचुनाव की तारीखों की घोषणा कर दी है. योगी आदित्यनाथ के सामने सूबे में भाजपा को जिताने की बड़ी चुनौती है.

हाल ही में राजस्थान में उपचुनाव के नतीजे भाजपा के लिए बुरी और कांग्रेस के अच्छी खबर लाये थे. राजस्थान में भाजपा की हार के आंसू सूखने से पहले ही चुनाव आयोग ने यूपी व बिहार में उपचुनाव की तारीखों की घोषणा कर दी है. राजस्थान में लोकसभा की दो और विधानसभा की एक सीट पर करारी शिकस्त खाने के बाद उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के सामने सूबे में भाजपा को जिताने की बड़ी चुनौती है. योगी के लिए गोरखपुर की सीट सबसे प्रतिष्ठा का प्रश्न है. भाजपा से लेकर सीएम योगी के लिए यह सीट करो या मरो वाली है. सात बार से अधिक समय तक लगभग तीन दशकों तक यह सीट गोरक्षपीठ के महंत के ही कब्जे में रही है.

गोरखपुर सीट भाजपा का अभेद्य दुर्ग मानी जाती है. गोरखपुर सीट की जीत को लेकर भाजपा काफी हद तक आश्वस्त है, लेकिन चिंता का सबब फूलपुर सीट है. उप मुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य के इस्तीफे से खाली हुई फूलपुर सीट पहले कांग्रेस फिर सपा का गढ़ रही है. भारत के संसदीय इतिहास में भाजपा यहां सिर्फ एक बार चुनाव जीत सकी है. 2014 के लोकसभा चुनाव में केशव प्रसाद मौर्य ने इस सीट पर जीत दर्ज कर सपा के वर्चस्व को तोड़ दिया था इसलिए इस सीट को बरकरार रखने की बड़ी चुनौती यूपी में सत्तासीन भारतीय जनता पार्टी की होगी.

गोरखनाथ सीट से पहले योगी आदित्यनाथ सांसद थे. पिछले साल उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री बनने के बाद उन्होंने लोकसभा की सदस्यता से इस्तीफा दिया था. योगी 1998 से लगातार बीजेपी की टिकट पर गोरखपुर लोकसभा क्षेत्र का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं. करीब तीन दशक बाद ऐसा पहली बार होगा जब गोरखपुर संसदीय सीट पर कोई ऐसा नेता प्रतिनिधित्व करेगा जो गोरक्षपीठ से संबंधित नहीं होगा. इस सीट को जीतने के लिए विपक्षी दलों ने तमाम रणनीति अपनाईं, लेकिन कभी भी उनकी चाल सफल नहीं हो पाई.

देश के राजनैतिक इतिहास में फूलपुर संसदीय...

हाल ही में राजस्थान में उपचुनाव के नतीजे भाजपा के लिए बुरी और कांग्रेस के अच्छी खबर लाये थे. राजस्थान में भाजपा की हार के आंसू सूखने से पहले ही चुनाव आयोग ने यूपी व बिहार में उपचुनाव की तारीखों की घोषणा कर दी है. राजस्थान में लोकसभा की दो और विधानसभा की एक सीट पर करारी शिकस्त खाने के बाद उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के सामने सूबे में भाजपा को जिताने की बड़ी चुनौती है. योगी के लिए गोरखपुर की सीट सबसे प्रतिष्ठा का प्रश्न है. भाजपा से लेकर सीएम योगी के लिए यह सीट करो या मरो वाली है. सात बार से अधिक समय तक लगभग तीन दशकों तक यह सीट गोरक्षपीठ के महंत के ही कब्जे में रही है.

गोरखपुर सीट भाजपा का अभेद्य दुर्ग मानी जाती है. गोरखपुर सीट की जीत को लेकर भाजपा काफी हद तक आश्वस्त है, लेकिन चिंता का सबब फूलपुर सीट है. उप मुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य के इस्तीफे से खाली हुई फूलपुर सीट पहले कांग्रेस फिर सपा का गढ़ रही है. भारत के संसदीय इतिहास में भाजपा यहां सिर्फ एक बार चुनाव जीत सकी है. 2014 के लोकसभा चुनाव में केशव प्रसाद मौर्य ने इस सीट पर जीत दर्ज कर सपा के वर्चस्व को तोड़ दिया था इसलिए इस सीट को बरकरार रखने की बड़ी चुनौती यूपी में सत्तासीन भारतीय जनता पार्टी की होगी.

गोरखनाथ सीट से पहले योगी आदित्यनाथ सांसद थे. पिछले साल उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री बनने के बाद उन्होंने लोकसभा की सदस्यता से इस्तीफा दिया था. योगी 1998 से लगातार बीजेपी की टिकट पर गोरखपुर लोकसभा क्षेत्र का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं. करीब तीन दशक बाद ऐसा पहली बार होगा जब गोरखपुर संसदीय सीट पर कोई ऐसा नेता प्रतिनिधित्व करेगा जो गोरक्षपीठ से संबंधित नहीं होगा. इस सीट को जीतने के लिए विपक्षी दलों ने तमाम रणनीति अपनाईं, लेकिन कभी भी उनकी चाल सफल नहीं हो पाई.

देश के राजनैतिक इतिहास में फूलपुर संसदीय सीट का खास स्थान है. इस सीट से ही देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने जीत दर्ज की थी. इसी सीट से कांग्रेस के टिकट पर वीपी सिंह भी जीते थे. वे भी बाद में देश के प्रधानमंत्री बने. इससे पहले फूलपुर में दो बार उपचुनाव हो चुका है. यह तीसरी बार होगा जब यहां चुनाव के लिए 11 मार्च को वोट डाले जाएंगे. वर्ष 1952 से अब तक इस सीट पर 18 बार चुनाव हो चुके हैं. हालांकि, विधान सभा के तौर पर फूलपुर का गठन पहली बार 2012 में ही हुआ. विधानसभा में तो फिलहाल इस क्षेत्र का प्रतिनिधित्व समाजवादी पार्टी के सईद अहमद करते हैं, जबकि लोकसभा में बीजेपी के प्रदेश अध्यक्ष केशव प्रसाद मौर्य हैं. फूलपुर कई बार अप्रत्याशित परिणाम देने और कई बड़े नेताओं को हराने के लिए मशहूर रहा है.

1952 में देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने पहली लोकसभा में पहुंचने के लिए फूलपुर सीट को चुना और लगातार तीन बार 1952, 1957 और 1962 में जीत दर्ज कराई थी. नेहरू के चुनाव लड़ने के कारण ही इस सीट को ‘वीआईपी सीट’ का दर्जा हासिल हुआ. यूं तो फूलपुर से जवाहर लाल नेहरू का कोई खास विरोध नहीं होता था और वो आसानी से चुनाव जीत जाते थे, लेकिन उनके विजय रथ को रोकने के लिए 1962 में प्रख्यात समाजवादी नेता डॉ. राम मनोहर लोहिया खुद फूलपुर सीट से चुनाव मैदान में उतरे, हालांकि वो भी जीत नहीं पाए.

पं. नेहरू के निधन के बाद इस सीट की जिम्मेदारी उनकी बहन विजय लक्ष्मी पंडित ने संभाली और उन्होंने 1967 के चुनाव में जनेश्वर मिश्र को हराकर नेहरू और कांग्रेस की विरासत को आगे बढ़ाया. 1969 में विजय लक्ष्मी पंडित ने संयुक्त राष्ट्र में प्रतिनिधि बनने के बाद इस्तीफा दे दिया. यहां हुए उपचुनाव में कांग्रेस ने नेहरू के सहयोगी केशवदेव मालवीय को उतारा, लेकिन संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के उम्मीदवार के तौर पर जनेश्वर मिश्र ने उन्हें पराजित कर दिया. इसके बाद 1971 में यहां से पूर्व प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह कांग्रेस के टिकट पर निर्वाचित हुए. आपातकाल के दौर में 1977 में हुए आम चुनाव में कांग्रेस ने यहां से रामपूजन पटेल को उतारा, लेकिन जनता पार्टी की उम्मीदवार कमला बहुगुणा ने यहां से जीत हासिल की. ये अलग बात है कि बाद में कमला बहुगुणा खुद कांग्रेस में शामिल हो गईं.

इमरजेंसी के बाद मोरारजी देसाई के नेतृत्व में बनी जनता पार्टी की सरकार पांच साल नहीं चली और 1980 में मध्यावधि चुनाव हुए तो इस सीट से लोकदल के उम्मीदवार प्रोफेसर बी.डी. सिंह ने जीत दर्ज की. 1984 में हुए चुनाव कांग्रेस के रामपूजन पटेल ने इस सीट को जीतकर एक बार फिर इस सीट को कांग्रेस की झोली में डाल दिया. लेकिन कांग्रेस से जीतने के बाद रामपूजन पटेल जनता दल में शामिल हो गए. 1989 और 1991 का चुनाव रामपूजन पटेल ने जनता दल के टिकट पर ही जीता. पंडित नेहरू के बाद इस सीट पर लगातार तीन बार यानी हैट्रिक लगाने का रिकॉर्ड रामपूजन पटेल ने ही बनाया.

1996 से 2004 के बीच हुए चार लोकसभा चुनावों में यहां से समाजवादी पार्टी के उम्मीदवार विजय पताका फहराते रहे. 2004 में कथित तौर पर बाहुबली की छवि वाले अतीक अहमद यहां से सांसद चुने गए. अतीक अहमद के बाद 2009 में पहली बार इस सीट पर बहुजन समाज पार्टी ने भी जीत हासिल की. जबकि बीएसपी के संस्थापक कांशीराम यहां से खुद चुनाव हार चुके थे. लेकिन दिलचस्प बात ये है कि 2009 तक तमाम कोशिशों और समीकरणों के बावजूद भारतीय जनता पार्टी इस सीट पर जीत हासिल करने में नाकाम रही. आखिरकार 2014 में मोदी लहर में यहां की जनता ने जैसे बीजेपी के भी अरमान पूरे कर दिए. यहां से केशव प्रसाद मौर्य ने बीएसपी के मौजूदा सांसद कपिलमुनि करवरिया को पांच लाख से भी ज्यादा वोटों से हराया.

आंकड़ों से अंदाजा लगाया जा सकता है कि बीजेपी के लिए ये सीट क्यों अहमियत रखती है, जहां साल 2009 में बीजेपी का वोट शेयर महज 8 फीसदी था, वो 2014 में बढ़कर 52 फीसदी हो गया. इसका इनाम भी ‘विजेता’ केशव प्रसाद मौर्य को मिला. वो पहले वो बीजेपी प्रदेश अध्यक्ष बने फिर प्रदेश के डिप्टी सीएम. साफ है कि साल 2014 में बीजेपी को जहां 52 फीसदी वोट मिले, वहीं कांग्रेस, बीएसपी, एसपी के कुल वोटों की संख्या महज 43 फीसदी ही रह गई. 2014 लोकसभा चुनाव के परिणाम जरूर संयुक्त विपक्ष की उम्मीदों पर चोट करते दिख रहे हैं.

2017 विधानसभा चुनाव पर नजर डालें तो वो विपक्ष के लिए राहत दिखती है. आंकड़ें बताते हैं कि बीएसपी, एसपी और कांग्रेस अगर तीनों एक साथ विधानसभा चुनाव लड़ते तो कहानी कुछ और ही होती. दरअसल, फूलपुर लोकसभा सीट के अंतर्गत पांच विधानसभा क्षेत्र आते हैं. 2017 विधानसभा में अगर एसपी, बीएसपी कांग्रेस के कुल वोटों को जोड़ लें, तो वो बीजेपी से डेढ लाख ज्यादा बैठते हैं. साथ ही अगर ये तीन पार्टियां एक साथ चुनाव लड़ीं होतीं, तो 5 विधानसभा सीटों में से 4 पर बीजेपी को हार का सामना करना पड़ता. फूलपुर में सबसे अधिक पटेल फिर मुस्लिम मतदाता हैं. इस सीट पर यादव मतदाताओं की भी अच्छी खासी संख्या है. अगर बसपा ने यहां अपना प्रत्याशी नहीं उतारा तो फिर सपा को हराना भाजपा के लिए चुनौती बन जाएगा.

यूपी के उपचुनाव आदित्यनाथ के लिए परीक्षा साबित होगी क्योंकि इन्हें उनकी सरकार की लोकप्रियता से जोड़कर देखा जा रहा है. वहीं दूसरी तरफ गोरखपुर में ऑक्सीजन की कमी से हुई बच्चों की मौत, कासगंज दंगा और नोएडा फर्जी इनकाउंटर मामला सीएम योगी की छवि को खराब कर सकता है. ऐसे में अब यह दोनों सीट सीएम आदित्यनाथ योगी के लिए किसी बड़ी चुनौती से कम नहीं है. दोनों सीटों के लिए विपक्ष में फिलवक्त एका होता नहीं दिख रहा है. सपा मुखिया अखिलेश यादव कह चुके हैं कि सपा दोनों सीटों के लिए तैयारी कर रही है. बसपा का कहना है कि उसका इतिहास रहा है कि वह उपचुनाव में उम्मीदवार खड़े नहीं करती. ऐसे में अगर कांग्रेस के नेतृत्व में साझा उम्मीदवार मैदान में उतरता है तो वह उसे समर्थन कर सकती है. कांग्रेस की स्थिति साफ नहीं है. वह उम्मीदवार खड़ा करेगी या फिर साझा उम्मीदवार को समर्थन यह वक्त ही बताएगा. लेकिन यह जरूर है कि बिखरा विपक्ष से बीजेपी की राह आसान होगी.

यूपी की इन दोनों सीटों के नतीजों पर देशभर की नजरें टिक गई हैं. दरअसल इस उपचुनाव से आगामी 2019 के आम चुनाव का आकलन किया जा रहा. अगर विपक्ष इस सीट पर विजय पताका फहरा देगा तो उसे कहने का मौका मिल जाएगा कि अब यूपी की जनता बीजेपी सरकार से नाखुश है, जिसका नतीजा चुनाव में साफ देखने को मिला, लेकिन बीजेपी विपक्ष को ऐसा कहना का मौका नहीं देना चाहती है यहीं वजह है कि उपचुनाव के लिए पार्टी अभी से तैयारी में लग गई है. चुनाव नतीजे योगी सरकार के साथ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए भी बेहद अहम है. चुनाव नतीजों की तारीख 14 मार्च के ठीक पांच दिन बाद योगी सरकार का एक साल पूरा होगा. उपचुनाव के नतीजे योगी सरकार के पहले साल के जश्न में रंग जमाएंगे या उसका रंग फीका करेंगे यह देखना दिलचस्प होगा.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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