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अयोध्या से शुरू हुई यूपी की चुनावी राजनीति काशी पर ही खत्म हो रही है

    • मृगांक शेखर
    • Updated: 04 मार्च, 2022 10:54 PM
  • 04 मार्च, 2022 10:54 PM
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बनारस (Ayodhya to Kashi) यूपी की नयी राजनीतिक राजधानी लगने लगा है. यूपी चुनाव (UP Election 2022) में अंतिम चरण के मतदान से पहले तमाम दलों के बड़े बड़े नेता डेरा डाले हुए हैं - लेकिन बीजेपी को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) से ही निर्णायक भूमिका की उम्मीद है.

7 मार्च को यूपी चुनाव (P Election 2022) में आखिरी दौर की जहां जहां वोटिंग होनी है, सारे इलाके बनारस के आस पास ही हैं. आखिरी चरण में यूपी की 54 सीटों पर मतदान होना है - चूंकि कई सीटों पर लड़ाई मुश्किल लग रही है इसलिए मोर्चा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) को खुद संभालना पड़ रहा है.

बनारस, काशी या वाराणसी (Ayodhya to Kashi) जो भी कहिये वैसे भी पूर्वांचल की राजधानी समझा जाता है, लेकिन अभी तो आलम ये है कि उत्तर प्रदेश की राजनीतिक राजधानी लगने लगा है - तभी तो एक ही दिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के रोड शो के साथ ही, अखिलेश यादव के साथ साथ राहुल गांधी और प्रियंका गांधी वाड्रा भी सड़क पर निकल पड़े हैं.

हफ्ते भर से सभी दलों के बड़े नेताओं की गतिविधियां बढ़ी हुई हैं. प्रधानमंत्री मोदी से पहले सीनियर बीजेपी नेता अमित शाह ने पहुंच कर बीजेपी के हिसाब से सेट करने की कोशिश की - क्योंकि शुरू से तो वो पश्चिम यूपी में ही बीजेपी का चुनाव कैंपेन संभाल रहे थे.

मौका देख कर पश्चिम बंगाल से बनारस पहुंचीं ममता बनर्जी ने भी बहती चुनावी गंगा में जीभर कर हाथ धोया है - वैसे ममता बनर्जी विपक्ष की तरफ से समाजवादी नेता अखिलेश यादव के लिए वोट मांगने पहुंची थीं.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के वाराणसी से सांसद होने की वजह से अहमियत तो बढ़ ही जाती है, जब कभी भी वो शहर में होते हैं एक मिनी पीएमओ बन जाता है. 2017 की तरह प्रधानमंत्री मोदी एक बार फिर बनारस में डेरा डाले हुए हैं - और मीटिंग, रैलियां और रोड शो के जरिये बीजेपी पूरी कोशिश कर रहे हैं कि बीजेपी के हिस्से से कोई कसर बाकी न रह जाये.

अयोध्या से काशी तक

यूपी चुनाव की तारीखें घोषित होने से पहले लग रहा था जैसे अयोध्या तो उत्तर प्रदेश की राजनीतिक राजधानी बन चुकी है. जैसे जैसे चुनाव आखिरी दौर में पहुंच...

7 मार्च को यूपी चुनाव (P Election 2022) में आखिरी दौर की जहां जहां वोटिंग होनी है, सारे इलाके बनारस के आस पास ही हैं. आखिरी चरण में यूपी की 54 सीटों पर मतदान होना है - चूंकि कई सीटों पर लड़ाई मुश्किल लग रही है इसलिए मोर्चा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) को खुद संभालना पड़ रहा है.

बनारस, काशी या वाराणसी (Ayodhya to Kashi) जो भी कहिये वैसे भी पूर्वांचल की राजधानी समझा जाता है, लेकिन अभी तो आलम ये है कि उत्तर प्रदेश की राजनीतिक राजधानी लगने लगा है - तभी तो एक ही दिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के रोड शो के साथ ही, अखिलेश यादव के साथ साथ राहुल गांधी और प्रियंका गांधी वाड्रा भी सड़क पर निकल पड़े हैं.

हफ्ते भर से सभी दलों के बड़े नेताओं की गतिविधियां बढ़ी हुई हैं. प्रधानमंत्री मोदी से पहले सीनियर बीजेपी नेता अमित शाह ने पहुंच कर बीजेपी के हिसाब से सेट करने की कोशिश की - क्योंकि शुरू से तो वो पश्चिम यूपी में ही बीजेपी का चुनाव कैंपेन संभाल रहे थे.

मौका देख कर पश्चिम बंगाल से बनारस पहुंचीं ममता बनर्जी ने भी बहती चुनावी गंगा में जीभर कर हाथ धोया है - वैसे ममता बनर्जी विपक्ष की तरफ से समाजवादी नेता अखिलेश यादव के लिए वोट मांगने पहुंची थीं.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के वाराणसी से सांसद होने की वजह से अहमियत तो बढ़ ही जाती है, जब कभी भी वो शहर में होते हैं एक मिनी पीएमओ बन जाता है. 2017 की तरह प्रधानमंत्री मोदी एक बार फिर बनारस में डेरा डाले हुए हैं - और मीटिंग, रैलियां और रोड शो के जरिये बीजेपी पूरी कोशिश कर रहे हैं कि बीजेपी के हिस्से से कोई कसर बाकी न रह जाये.

अयोध्या से काशी तक

यूपी चुनाव की तारीखें घोषित होने से पहले लग रहा था जैसे अयोध्या तो उत्तर प्रदेश की राजनीतिक राजधानी बन चुकी है. जैसे जैसे चुनाव आखिरी दौर में पहुंच रहा है, लगता है राजधानी अयोध्या से काशी शिफ्ट हो चुकी है. लखनऊ की भूमिका तो नाम मात्र रह गयी लगती है. कम से कम चुनावों तक तो ऐसा ही लगता है.

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अयोध्या और काशी - ये दोनों ही बीजेपी के राजनीतिक एजेंडे का हिस्सा रहे हैं. बीच में जरूर यूपी के डिप्टी सीएम केशव प्रसाद मौर्य ने मथुरा का मुद्दा उछालने की कोशिश की थी, लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से एक मुलाकात के बाद वो पूरी तरह शांत भी हो गये. मथुरा को लेकर योगी आदित्यनाथ ने भी हंसते हंसते हवा देने की कोशिश की थी, लेकिन वो वैसा ही रहा जैसे वो एनकाउंटर के सवाल पर गाड़ी के कभी भी पलट जाने की बातें किया करते हैं.

बीजेपी की देखा देखी, शुरू में तो ऐसा लगा जैसे सारे राजनीतिक दलों के नेताओं का अयोध्या में राम मंदिर निर्माण तक जमावड़ा लगा रहेगा. अयोध्या के साथ बीजेपी ने काशी की महत्ता को तो हमेशा ही डिस्प्ले पर ही रखा, लेकिन बाकियों में वैसी दिलचस्पी नहीं देखने को मिली - हां, ये जरूर है कि आखिरी दौर आते आते अयोध्या में राममय महसूस करने वाले बनारस पहुंच कर शिवमय हो चुके हैं.

ध्यान खींचने वाली अदा तो तृणमूल कांग्रेस नेता ममता बनर्जी ने दिखायी है. जय श्रीराम के नारों से चिढ़ जाने वाली ममता बनर्जी को लेकर लगता नहीं था कि वो बनारस जाएंगी और घाटों पर पहुंच कर गंगा आरती भी देखना चाहेंगी.

आखिरी दौर में ही सही, लेकिन ममता बनर्जी ने बनारस का वैसे ही राजनीतिक इस्तेमाल करने की कोशिश की है जैसे मायावती से लेकर अरविंद केजरीवाल तक अयोध्या पर टूट पड़े थे. अरविंद केजरीवाल तो दिल्ली में दिवाली के टाइम से ही जय श्रीराम बोलने लगे थे, अयोध्या में तो स्वाभाविक ही था. मायावती ने तो बीएसपी महासचिव सतीश चंद्र मिश्रा को अयोध्या भेज कर पार्टी के मंच पर शंख भी बजवाया और जय श्रीराम के नारे भी लगवाये. अयोध्या से शुरू हुए बीएसपी के ब्राह्मण सम्मेलन का समापन जब लखनऊ में हुआ तो मायावती भी हाथों में त्रिशूल लिए अवतरित हुई थीं.

आखिरी दौर में मायावती ने भी बनारस में दस्तक दी है. अगर कोई नजर नहीं आया तो वो हैं आम आदमी पार्टी के नेता अरविंद केजरीवाल, जबकि ममता बनर्जी से ज्यादा उम्मीद तो दिल्ली के मुख्यमंत्री की रही. अरविंद केजरीवाल तो 2014 में बीजेपी उम्मीदवार नरेंद्र मोदी के खिलाफ वाराणसी से चुनाव भी लड़े थे.

जब चुनाव मैदान में केजरीवाल उतरे थे तो कुटिया बना कर बनारस में ही आगे भी रहने की बात कर रहे थे. हालांकि, ये सब तो चुनावी जुमले होते हैं क्योंकि 2017 में जब अरविंद केजरीवाल पंजाब पहुंचे तो बोल दिये कि वो वहीं खूंटा गाड़ कर बैठे रहेंगे.

जैसे मोदी ही हों चुनाव मैदान में

संघ की सलाह पर प्रधानमंत्री मोदी ने बनारस में रोड शो तो 2017 में भी किया था - और 2019 में तो वो खुद ही वाराणसी संसदीय सीट से बीजेपी के उम्मीदवार रहे - लेकिन 2022 में ऐसा क्यों लग रहा है जैसे मोदी ही एक बार फिर चुनाव मैदान में हों और शहर की गलियों में घूम घूम कर लोगों से वोट मांग रहे हों.

हुआ ये है कि संघ की तरफ से बनारस की तीन सीटों को लेकर बीजेपी नेतृत्व को पहले से ही आगाह कर दिया गया था - और यही वजह है कि मोदी के मैदान में उतरने से पहले अमित शाह ने मौके का मुआयना करके चाक चौबंद बंदोबस्त की कोशिश की.

संघ की तरफ से जिन तीन सीटों पर फोकस करने की सलाह दी गयी थी, वे हैं - शहर दक्षिणी, शहर उत्तरी और रोहनिया. रोहनिया विधानसभा सीट बीजेपी ने गठबंधन के हिस्से में अपना दल को दे दी गयी है, लिहाजा अनुप्रिया पटेल के लिए भी सलाहियत रही कि वो उम्मीदवार की जीत सुनिश्चित करने के लिए फौरन मैदान में उतर जायें.

बीजेपी की जिन दो सीटों की संघ को फिक्र है, उसमें शहर दक्षिणी है जहां से एक बार फिर नीलकंठ तिवारी चुनाव मैदान में हैं. नीलकंठ तिवारी पूरे पांच साल योगी आदित्यनाथ सरकार में राज्य मंत्री रहे. स्वतंत्र प्रभार के साथ - लेकिन इलाके के लोगों की नाराजगी उनकी सीट पर बहुत भारी पड़ने लगी है.

सोनभद्र के बीजेपी विधायक भूपेश चौबे तो कान पकड़ कर उठक-बैठक करने के बाद तेल मालिश करते नजर आये ही थे, नीलकंठ तिवारी भी एक वीडियो में इलाके के लोगों से अपनी गलतियों के लिए माफी मांगते देखे गये हैं - और ये देख कर सबके कान खड़े हो गये.

सोशल मीडिया पर वायरल वीडियो में नीलकंठ तिवारी को ये कहते सुना जा रहा कि 'सामाजिक जीवन है... राजनीतिक जीवन है... जिम्मेदारियां बहुत हैं... प्रदेश भर में भ्रमण रहा... मैं इससे इनकार नहीं करता कि मैं मनुष्य हूं तो गलती होती हैं... यदि कोई गलती हुई हो जाने-अनजाने में... उसके लिए व्यक्तिगत रूप से मुझसे आप कुछ भी कह सकते हैं... बात भी कर सकते हैं... मैं उसके लिए आपसे क्षमा भी मांगता हूं - क्षमाप्रार्थी भी हूं.'

पिछली बार तो नीलकंठ तिवारी ने बनारस से कांग्रेस सांसद रहे राजेश मिश्रा को हरा कर नाम कमा लिया था, लेकिन इस बार मृत्युंजय महादेव मंदिर के महंत के बेटे किशन दीक्षित ने शहर दक्षिणी सीट पर पेंच फंसा दिया है. किशन दीक्षित समाजवादी पार्टी के टिकट पर चुनाव लड़ रहे हैं.

किशन दीक्षित और नीलकंठ तिवारी दोनों ही पेशे से वकील हैं और राजनीति की शुरुआत एक ही कॉलेज से की थी - हरिश्चंद्र डिग्री कॉलेज. नीलकंठ तिवारी जहां कॉलेज में छात्रसंघ के महामंत्री रह चुके हैं, किशन दीक्षित अपने दौर में अध्यक्ष रहे.

ये नीलकंठ तिवारी ही हैं जिनके लिए बीजेपी ने 1989 से लगातार सात बार विधायक रहे श्यामदेव रॉय चौधरी दादा को बनारस का आडवाणी बना डाला - उनकी नाराजगी का आलम ये रहा कि रास्ते में किनारे खड़ा देखने के बाद प्रधानमंत्री मोदी उनका हाथ पकड़ कर काशी विश्वनाथ मंदिर में दर्शन के लिए लेते गये थे. दरअसल, नाराज बीजेपी कार्यकर्ताओं को ये संदेश देने की कोशिश रही कि दादा को मोदी मना रहे हैं. अब इलाके के दादा समर्थकों के जख्म नीलकंठ तिवारी ने फिर से हरे कर दिये हैं.

बात प्रधानमंत्री के इलाके की प्रतिष्ठा की है, लिहाजा नरेंद्र मोदी को खुद ही मैदान में उतरना पड़ा है - और पांच साल पहले मोदी के रोड शो का असर कारगर साबित भी हो चुका है. वैसे अखिलेश यादव ने ममता बनर्जी को बनारस ले जाकर बीजेपी की मुश्किलें पहले से ही कम कर दी है.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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