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जो चीज अभी उद्धव ठाकरे की कमजोरी लग रही है, ताकत भी उसी में छुपी हुई है

    • आईचौक
    • Updated: 20 फरवरी, 2023 05:14 PM
  • 20 फरवरी, 2023 05:14 PM
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उद्धव ठाकरे (Uddhav Thackeray) का जो हाल हुआ है, असल में वो परिवारवाद की राजनीति का रिजल्ट है, लेकिन एकनाथ शिंदे (Eknath Shinde) को जो कुछ मिला है वो भी स्थायी भाव नहीं है - शिवसेना (Shiv Sena) भी आखिरकार उसी की होगी जो विरासत को संजो कर रखेगा.

उद्धव ठाकरे (ddhav Thackeray) असल में परिवारवाद की राजनीति करने का खामियाजा भुगत रहे हैं. राहुल गांधी तो खैर पहले से ही बीजेपी और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के निशाने पर रहे हैं. हाल फिलहाल निशाने पर सबसे आगे तेलंगाना के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव देखे गये, लेकिन चपेट में सबसे पहले उद्धव ठाकरे आ गये - और जो कुछ हुआ है, बता यही रहा है कि परिवारवाद की राजनीति करने का नतीजा ऐसे ही भुगतना पड़ सकता है.

उद्धव ठाकरे का संघर्ष भी वैसा ही है जैसा बाकियों का. जैसे राहुल गांधी लगातार संघर्षरत हैं. जैसे अखिलेश यादव लगातार जूझ रहे हैं. जैसे तेजस्वी यादव की कश्ती भी वहीं डूबती नजर आती है जहां पानी बहुत कम होता है.

परिवारवाद की राजनीति करने वालों की लिस्ट काफी लंबी है. हेमंत सोरेन और एमके स्टालिन भी परिवारवाद की ही राजनीति से आते हैं - और जगनमोहन रेड्डी भी, लेकिन फर्क ये है कि ये लोग उससे आगे हट कर कुछ नये प्रयोग करने की कोशिश कर रहे हैं. ऐसे नेताओं में आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री जगनमोहन रेड्डी सबसे आगे नजर आते हैं.

जगनमोहन रेड्डी और उनके जैसे दूसरे नेताओं में फर्क ये है कि उनको सब पका-पकाया मिला है. जैसे राजघराने के राजकुमार होते थे. जगन मोहन रेड्डी ने जो कुछ पाया है, लड़ कर हासिल किया है. जैसे किसी जमाने में इंदिरा गांधी ने किया था. इंदिरा गांधी भी जवाहरलाल नेहरू की बेटी थीं, और जगनमोहन रेड्डी भी अपने स्तर पर वाईएस राजशेखर रेड्डी के बेटे हैं - लेकिन विरासत के नाम पर सिर्फ नाम मात्र ही मिला था, बाकी सब निजी तौर पर अर्जित किया हुआ है. महाराष्ट्र की राजनीति में उद्धव ठाकरे भी देखा जाये तो चिराग पासवान बन कर रह गये हैं. कुछ दिन पहले तक चिराग पासवान की स्थिति भी वैसी ही रही जैसी अभी उद्धव ठाकरे की हो चली है. जैसे चिराग पासवान की किस्मत पलटी है, हो सकता है एक दिन ऐसा उद्धव ठाकरे के साथ भी हो.

उद्धव ठाकरे (ddhav Thackeray) असल में परिवारवाद की राजनीति करने का खामियाजा भुगत रहे हैं. राहुल गांधी तो खैर पहले से ही बीजेपी और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के निशाने पर रहे हैं. हाल फिलहाल निशाने पर सबसे आगे तेलंगाना के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव देखे गये, लेकिन चपेट में सबसे पहले उद्धव ठाकरे आ गये - और जो कुछ हुआ है, बता यही रहा है कि परिवारवाद की राजनीति करने का नतीजा ऐसे ही भुगतना पड़ सकता है.

उद्धव ठाकरे का संघर्ष भी वैसा ही है जैसा बाकियों का. जैसे राहुल गांधी लगातार संघर्षरत हैं. जैसे अखिलेश यादव लगातार जूझ रहे हैं. जैसे तेजस्वी यादव की कश्ती भी वहीं डूबती नजर आती है जहां पानी बहुत कम होता है.

परिवारवाद की राजनीति करने वालों की लिस्ट काफी लंबी है. हेमंत सोरेन और एमके स्टालिन भी परिवारवाद की ही राजनीति से आते हैं - और जगनमोहन रेड्डी भी, लेकिन फर्क ये है कि ये लोग उससे आगे हट कर कुछ नये प्रयोग करने की कोशिश कर रहे हैं. ऐसे नेताओं में आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री जगनमोहन रेड्डी सबसे आगे नजर आते हैं.

जगनमोहन रेड्डी और उनके जैसे दूसरे नेताओं में फर्क ये है कि उनको सब पका-पकाया मिला है. जैसे राजघराने के राजकुमार होते थे. जगन मोहन रेड्डी ने जो कुछ पाया है, लड़ कर हासिल किया है. जैसे किसी जमाने में इंदिरा गांधी ने किया था. इंदिरा गांधी भी जवाहरलाल नेहरू की बेटी थीं, और जगनमोहन रेड्डी भी अपने स्तर पर वाईएस राजशेखर रेड्डी के बेटे हैं - लेकिन विरासत के नाम पर सिर्फ नाम मात्र ही मिला था, बाकी सब निजी तौर पर अर्जित किया हुआ है. महाराष्ट्र की राजनीति में उद्धव ठाकरे भी देखा जाये तो चिराग पासवान बन कर रह गये हैं. कुछ दिन पहले तक चिराग पासवान की स्थिति भी वैसी ही रही जैसी अभी उद्धव ठाकरे की हो चली है. जैसे चिराग पासवान की किस्मत पलटी है, हो सकता है एक दिन ऐसा उद्धव ठाकरे के साथ भी हो.

जरूरी नहीं कि उद्धव ठाकरे को भी वैसा ही सहारा मिले जैसा फिलहाल चिराग पासवान को मिला है - ऐसा भी तो हो सकता है, उद्धव ठाकरे अपने दम पर ही खड़े हो जायें. उद्धव ठाकरे की जगह आदित्य ठाकरे भी हो सकते हैं. यहां आशय ठाकरे परिवार से है जिसके पास बालासाहेब ठाकरे की राजनीतिक विरासत हो.

पारिवारिक विरासत संभालने राजनीति में आये उद्धव ठाकरे से थोड़ी सी चूक हुई थी, लेकिन वो वक्त रहते संभाल नहीं पाये. जब सामने दुश्मन बड़ा हो तो सबसे पहले घर को दुरूस्त रखना होता है. घर से मतलब मातोश्री इमारत से नहीं है, न ही उसके अंदर रहने वालों से. जिस शिवसेना (Shiv Sena) को वो परिवार की तरह समझते थे, उसे नहीं संभाल पाये.

उद्धव ठाकरे का भरोसा करना गलत नहीं था, धोखा खाना गलत था. राजनीति में किसी को धोखा कोई और नहीं देता, जरा सी चूक हुई तो खुद ही खाना पड़ता है. उद्धव ठाकरे चाहे कितनी भी बार एकनाथ शिंदे को धोखेबाज बतायें, फर्क नहीं पड़ने वाला - फर्क तब जरूर पड़ेगा जब यही बात वो अपने लोगों को भी समझा सकें. लोग उनकी बातें सुने तो मानें भी. एक कान से सुन कर दूसरे कान से निकाल न दें.

उद्धव ठाकरे अब भी दोहरा रहे हैं, 'मैंने अपने पिता द्वारा दिये गये हिंदुत्व को नहीं छोड़ा,' लेकिन मुश्किल तो यही है कि बीजेपी सहित उद्धव ठाकरे के राजनीतिक विरोधियों ने समझा दिया और लोगों ने मान लिया.

उद्धव ठाकरे तब भी नहीं समझ सके जब लाउडस्पीकर के मुद्दे पर शिवसेना के संस्थापक बाल ठाकरे का नाम लेकर उनके चचेरे भाई राज ठाकरे हमला बोल रहे थे. निचले स्तर पर शिवसैनिकों को राज ठाकरे की बात कहीं से भी गलत नहीं लगती थी. बस हालात को देखते हुए वे चुप रह जाते थे, और जैसे ही मौका मिला एकनाथ शिंदे (Eknath Shinde) के साथ चल दिये.

एकनाथ शिंदे तो शिवसैनिकों में वही गुस्सा भड़काने में कामयाब रहे. वो भी ऐसा इसलिए कर पाये क्योंकि बीजेपी नेतृत्व चट्टान की तरह एकनाथ शिंदे के पीछे खड़ा रहा. एकनाथ शिंदे ने कहा भी है कि अमित शाह ने चट्टान की तरफ खड़ा रहने का जो वादा किया था, पूरी तरह निभाया भी.

उद्धव ठाकरे का केस परिवारवाद की राजनीति की भविष्यवाणी है

गुजरते वक्त और जरूरत के हिसाब से सुधार जरूरी होता है. लेकिन लगता है राजनीति में सुधारों की बहुत जरूरत नहीं होती. बाहर से जिसे जो भी लगता हो, सिस्टम कभी नहीं बदलता. राहुल गांधी सिस्टम को ही बदलना चाहते थे, कांग्रेस हाशिये पर पहुंच गयी.

और अरविंद केजरीवाल को देखिये भ्रष्टाचार से मुक्ति दिलाने राजनीति में आये थे. अव्वल तो वो भ्रष्टाचार का मुद्दा भूल ही चुके थे, लेकिन विडंबना देखिये कि सत्येंद्र जैन से लेकर मनीष सिसोदिया तक उनके सारे मजबूत साथियों को भ्रष्टाचार का ही आरोप झेलना पड़ रहा है - और अब तो ऐसा लगता है देर सबेर वो भी लपेटे में आने ही वाले हैं.

उद्धव ठाकरे बहुत कुछ गवां चुके हैं, लेकिन सब कुछ नहीं गवांया है

ये दुनिया तो मिखाइल गोर्बाचेव का उत्थान और पतन दोनों ही देख चुकी है. वो भी पेरेस्त्रोइका और ग्लासनोस्त जैसे अपने सुधारवादी कार्यक्रमों के ही शिकार हुए थे - उद्धव ठाकरे भी तो गरम दल को नरम दल बनाने के चक्कर में अर्श से फर्श पर पहुंच चुके हैं.

हालत ये हो चली है कि चुनाव लड़ने के लिए उद्धव ठाकरे को कैंडिडेट तक नहीं मिलने वाले हैं क्योंकि राजनीति में लोग उगते सूरज को ही सलामी ठोकते हैं. और उससे भी कहीं बड़ी मुश्किल फंड को लेकर आने वाली है. जब शिवसेना की के साथ सारी संपत्ति भी हाथ से निकल जाएगी तो चुनाव लड़ने के लिए फंड कहां से आएगा - और जिस हालत में वो हैं अभी, डोनेशन भी मिलने से रहा.

उद्धव ठाकरे से बहुत सारी गलतियां हुई हैं जिसकी वजह से शिवसेना का सब कुछ उनके हाथ से फिसल कर एकनाथ शिंदे के कब्जे में चला गया है - उद्धव ठाकरे तब भी नहीं संभले जब चीजें उनकी आंखों के सामने उनसे दूर जा रही थीं.

एकनाथ शिंदे और उद्धव ठाकरे की राजनीतिक चालों को एक छोटे से उदाहरण से समझ सकते हैं. विवाद होने पर जिस तरीके से दोनों ने नाम चुने और चुनाव आयोग के पास पहुंचे उसमें भी राजनीतिक अनुभव बढ़ चढ़ कर बोल रहा है, भले ही एकनाथ शिंदे को वो बीजेपी से उधार में मिला हो.

एकनाथ शिंदे को जब अपने लिए पार्टी का नाम चुनना हुआ तो अप्लाई करने के लिए 'बालासाहेबांची शिवसेना' नाम चुना. और उद्धव ठाकरे ने अपनी पार्टी का नाम रखा - शिवसेना (उद्धव बालासाहेब ठाकरे). अस्थायी तौर पर दोनों को चुनाव आयोग की तरफ से मान्यता भी मिल गयी.

शिवसेना के नाम पर चुनाव आयोग का आदेश आ जाने के बाद और मामला सुप्रीम कोर्ट जाने के बाद फैसला आने तक जो यथास्थिति दिखायी पड़ रही है, उद्धव ठाकरे तो सबसे बड़े लूजर साबित हो चुके हैं - लेकिन क्यों?

ये बात नाम चुनने के हिसाब से समझी जा सकती है. एकनाथ शिंदे हर तरीके से यही साबित करने की कोशिश कर रहे थे कि वो बालासाहेब ठाकरे की राजनीतिक विरासत बचाये रखने के लिए लड़ रहे हैं. पार्टी के नाम में भी सबसे पहले एकनाथ शिंदे ने बालासाहेब ठाकरे का ही नाम रखा था, जबकि उद्धव ठाकरे ने अपना. वो अपना नाम उद्धव बालासाहेब ठाकरे लिखते हैं.

ऐसी बातों का फिलहाल बहुत मतलब नहीं रह गया है, लेकिन इससे पता चलता है कि कौन राजनीतिक को कैसे समझता है, और फिर उसी हिसाब से कैसे फैसले लेता है? जाहिर है, उद्धव ठाकरे ने ऐसी और भी गलतियां की होंगी जो सामने नहीं आयी हैं.

अनुभव और संघर्ष के जरिये जो समझ एकनाथ शिंदे ने हासिल की है, उद्धव ठाकरे वैसे प्रतियोगिता नहीं कर सकते. और जहां तक उनके फोटोग्राफी की विशेषज्ञता की बात है, एकनाथ शिंदे भी उनको चैलेंज नहीं कर सकते.

उद्धव के पास ये विकल्प तो बचा हुआ है ही कि वो लोगों के बीच जायें और बतायें कि उनके साथ वास्तव में धोखा हुआ है. शर्त ये है कि लोग भी उद्धव ठाकरे की बातों पर यकीन करें - जैसे बिहार में चिराग पासवान बहुत हद तक ये बात अपने वोटर को समझा चुके हैं. ये ठीक है कि चिराग पासवान चुनावी राजनीतिक में कोई खास प्रदर्शन नहीं कर पाये हैं, और उद्धव ठाकरे ने बुरी हालत में भी अंधेरी उपचुनाव जीत लिया - उद्धव ठाकरे की खोयी हुई प्रतिष्ठा वापस पाने का रास्ता भी चुनावी राजनीति से ही निकलेगा.

ऐसे भी समझ सकते हैं कि अगर उद्धव ठाकरे को परिवारवाद की राजनीति का खामियाजा भुगतना पड़ा है तो पारिवारिक राजनीति की वही विरासत उनको उबार भी सकती है - बशर्ते, वो धैर्य के साथ मैदान में डटे रहें.

ठाकरे की विरासत ही अब उद्धव की थाती है

सारे दिन एक समान नहीं होते. दिन सबका बदलता है. कभी उद्धव ठाकरे का दिन था, लेकिन जैसा एक दिन राज ठाकरे के साथ हुआ था आज उनके साथ हुआ है. और जो उद्धव ठाकरे के लिए किया गया था, आज एकनाथ शिंदे के लिए किया गया है.

बेशक शिवसेना के नाम, चुनाव निशान और सारी संपत्तियों के मामले में पावर ऑफ अटॉर्नी एकनाथ शिंदे को मिल गयी हो, लेकिन पावर ऑफ अटॉर्नी कभी रजिस्ट्री नहीं जैसी ताकतवर नहीं होती. एक वक्त पर मिलती भी है, लेकिन एक वक्त ऐसा भी आता है जब ले भी ली जाती है.

निश्चित तौर पर एकनाथ शिंदे को जो मिला है, वो उद्धव ठाकरे ने नहीं दिया है, लेकिन वो हमेशा के लिए नहीं मिला है - न तो अभी, और न ही आगे ठाकरे की विरासत को लेकर उद्धव ठाकरे को कोई भी चैलेंज नहीं करने वाला है. एकनाथ शिंदे भी नहीं.

वक्त के लंबे कैनवास पर देखा जाये तो एकनाथ शिंदे नाइटवाचमैन जैसे ही हैं. वो किसी के हाथों का खिलौना हैं. जैसे कोई कठपुतली होती है. डोर किसी और के हाथ में होती है - फिलहाल वो डोर अमित शाह के हाथ में है, ऐसा लगता है. पहरेदारी का जिम्मा डिप्टी सीएम के तौर पर देवेंद्र फडणवीस को मिला हुआ है.

लेकिन बीजेपी शिवसेना का ये रूप ज्यादा दिन नहीं चलने देने वाली है. बीजेपी की कोशिश यही होगी कि अगर एकनाथ शिंदे शिवसेना को विलय के लिए तैयार न किया जा सके तो नेताओं को ही इधर से उधर शिफ्ट करा दिया जाये - और धीरे धीरे ऐसी हालत कर दी जाये कि एकनाथ शिंदे भी एक दिन हथियार डाल दें.

कुछ दिन बाद ऐसा भी हो सकता है कि बीजेपी को एकनाथ शिंदे किसी काम के न लगें, और लोग भी उनको भूल जायें. फिर क्या होगा? फिर तो झगड़ा ही शुरू होगा. हर कोई एकनाथ शिंदे बनना चाहेगा, लेकिन एकनाथ शिंदे तो एक ही होते हैं.

कुल मिला कर उद्धव ठाकरे के लिए मुफ्त की सलाह यही है कि अगर अभी वो समझौता कर लें और धैर्य के साथ इंतजार करें, तो वो दिन भी आ सकता है जब फिर से लोग ब्रांड ठाकरे के लिए खड़े हो जायें - और उद्धव ठाकरे को वो सब फिर से मिल जाये जिसके लिए अभी वो तड़प रहे हैं.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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