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तीन साल बाद मोदी, बीजेपी और भारत : बेमिसाल या बेहाल?

    • मृगांक शेखर
    • Updated: 26 मई, 2017 01:41 PM
  • 26 मई, 2017 01:41 PM
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ऐसा लगता है जैसे नरेंद्र मोदी ने जो अनुभव मुख्यमंत्री के अपने तीन शासनकाल में नहीं पा सके उससे ज्यादा हुनर तो वो प्रधानमंत्री बनने के बाद पिछले तीन साल में हासिल कर चुके हैं.

किसी भी फील्ड में विनर वही होता है जो लगातार सीखने में यकीन रखे, खासकर अपनी गलतियों से. सियासत में भी यही लागू होता है. राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी की नजर में भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बड़े ही फास्ट-लर्नर हैं. बतौर प्रधानमंत्री ही संसद में एंट्री लेने वाले मोदी ने गूढ़ अंतर्राष्ट्रीय विषयों को बहुत जल्दी समझ लिया. मोदी के बारे में राष्ट्रपति मुखर्जी ने हाल ही में ये बातें कही थीं.

ऐसा लगता है जैसे मोदी ने जो अनुभव मुख्यमंत्री के तीन शासनकाल में नहीं पा सके उससे ज्यादा हुनर तो वो पिछले तीन साल में हासिल कर चुके हैं.

नरेंद्र मोदी बोले तो 'मोदी-मोदी'

प्रधानमंत्री मोदी पर शुरुआती दौर में ही कॉर्पोरेट और पूंजीपतियों को तरजीह देने के इल्जाम लगे - और विपक्ष उनके लिए 'सूट बूट की सरकार' जुमले का इस्तेमाल करता रहा. फिर क्या था, मोदी छवि बदलने में जुट गये और सियासत के सबसे कारगर कीवर्ड 'गरीबी' पर फोकस किया. जन-धन योजना से लेकर उज्ज्वला स्कीम लेकर तो आये ही पिछली यूपीए सरकार की मनरेगा जैसी योजनाओं को भी अपना लिया और नये कलेवर के साथ पेश कर दिया. विपक्ष मोदी पर आरएसएस का एजेंडा लागू करने और हिंदुत्ववादी ताकतों को बढ़ावा देने का आरोप लगाता रहा है, लेकिन मोदी बड़ी बुद्धिमानी से कुछ दिन खामोश हो जाते हैं फिर 'गो रक्षकों' पर डॉजियर तैयार करने की सलाह देते हैं और दादरी और एखलाक जैसे मुद्दों पर कहते हैं कि महामहिम की बात मानिये, मेरी भी नहीं.

ये तो मानना ही पड़ेगा दूसरों को अपने बारे में जो भी राय हो, मोदी ने अपने लिए लगातार अच्छे दिन लाते जा रहे हैं. हिंदी दैनिक भास्कर के सर्वे में 56 फीसदी लोगों का मानना है कि अगर आज चुनाव हुए तो मोदी अपने नाम 2014 से भी ज्यादा सीटें जीत सकते हैं, लेकिन 18 फीसदी ऐसे भी हैं जिनकी नजर में सीटें कम मिलेंगी. 17 फीसदी लोगों का कहना है कि 2014 के बराबर ही सीटें मिलेंगी, पर 9 फीसदी ऐसे जरूर हैं जो मानते हैं कि तत्काल चुनाव होने पर मोदी हार जाएंगे. लब्बोलुआब ये है कि 91 फीसदी...

किसी भी फील्ड में विनर वही होता है जो लगातार सीखने में यकीन रखे, खासकर अपनी गलतियों से. सियासत में भी यही लागू होता है. राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी की नजर में भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बड़े ही फास्ट-लर्नर हैं. बतौर प्रधानमंत्री ही संसद में एंट्री लेने वाले मोदी ने गूढ़ अंतर्राष्ट्रीय विषयों को बहुत जल्दी समझ लिया. मोदी के बारे में राष्ट्रपति मुखर्जी ने हाल ही में ये बातें कही थीं.

ऐसा लगता है जैसे मोदी ने जो अनुभव मुख्यमंत्री के तीन शासनकाल में नहीं पा सके उससे ज्यादा हुनर तो वो पिछले तीन साल में हासिल कर चुके हैं.

नरेंद्र मोदी बोले तो 'मोदी-मोदी'

प्रधानमंत्री मोदी पर शुरुआती दौर में ही कॉर्पोरेट और पूंजीपतियों को तरजीह देने के इल्जाम लगे - और विपक्ष उनके लिए 'सूट बूट की सरकार' जुमले का इस्तेमाल करता रहा. फिर क्या था, मोदी छवि बदलने में जुट गये और सियासत के सबसे कारगर कीवर्ड 'गरीबी' पर फोकस किया. जन-धन योजना से लेकर उज्ज्वला स्कीम लेकर तो आये ही पिछली यूपीए सरकार की मनरेगा जैसी योजनाओं को भी अपना लिया और नये कलेवर के साथ पेश कर दिया. विपक्ष मोदी पर आरएसएस का एजेंडा लागू करने और हिंदुत्ववादी ताकतों को बढ़ावा देने का आरोप लगाता रहा है, लेकिन मोदी बड़ी बुद्धिमानी से कुछ दिन खामोश हो जाते हैं फिर 'गो रक्षकों' पर डॉजियर तैयार करने की सलाह देते हैं और दादरी और एखलाक जैसे मुद्दों पर कहते हैं कि महामहिम की बात मानिये, मेरी भी नहीं.

ये तो मानना ही पड़ेगा दूसरों को अपने बारे में जो भी राय हो, मोदी ने अपने लिए लगातार अच्छे दिन लाते जा रहे हैं. हिंदी दैनिक भास्कर के सर्वे में 56 फीसदी लोगों का मानना है कि अगर आज चुनाव हुए तो मोदी अपने नाम 2014 से भी ज्यादा सीटें जीत सकते हैं, लेकिन 18 फीसदी ऐसे भी हैं जिनकी नजर में सीटें कम मिलेंगी. 17 फीसदी लोगों का कहना है कि 2014 के बराबर ही सीटें मिलेंगी, पर 9 फीसदी ऐसे जरूर हैं जो मानते हैं कि तत्काल चुनाव होने पर मोदी हार जाएंगे. लब्बोलुआब ये है कि 91 फीसदी लोगों मानते हैं कि अभी चुनाव हुए तो मोदी ही जीतेंगे.

चीन बॉर्डर पर महासेतु पर चहलकदमी...

ये भी साफ है कि मोदी बगैर छुट्टी लिये लगातार काम करते हैं और अपने मंत्रियों और अफसरों से भी वैसी ही अपेक्षा रखते हैं. प्रधानमंत्री बनने के बाद मोदी अब तक 57 बार विदेश यात्रा पर जा चुके हैं. 45 देशों के दौरे में मोदी ने कुल 119 दिन देश से बाहर बिताये. अगर उनके पूर्ववर्ती मनमोहन सिंह की विदेश यात्राओं से तुलना करें तो वो अपने अपने दस साल के शासन में कुल 80 देशों की यात्रा पर गये. जहां तक मनमोहन के पहले तीन साल की बात है तो वो सिर्फ 24 विदेश यात्राएं ही कर पाये थे.

हालत ये है कि मोदी के लिए फिलहाल न तो बाहर कोई राजीतिक चुनौती नजर आ रही है - और न पार्टी के भीतर कोई चुनौती बची है.

बीजेपी बोले तो बस मोदी और कोई नहीं

जब देश आजाद हुआ तो जवाहरलाल नेहरू की हैसियत ऐसी थी कि कोई उनके सामने टिक नहीं पा रहा था. बाद में उनकी बेटी इंदिरा गांधी ने ऐसी स्थिति बनाई कि उनके सामने कोई टिक ही न सके. तीन साल में ही प्रधानमंत्री मोदी भी अब तकरीबन उसी स्थिति में पहुंच चुके हैं.

प्रधानमंत्री की कुर्सी संभालने से पहले ही मोदी या तो अपने विरोधियों को किनारे लगा चुके थे या फिर उसका इंतजाम कर चुके थे. संजय जोशी से लेकर लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, यशवंत सिन्हा और अरुण शौरी तक किस स्थिति में हैं सब के सामने है. जिनका जनाधार रहा या फिर जिन्हें सत्ता प्यारी रही उन नेताओं ने या तो पाला बदल लिया या समझौता कर 'मोदी-मोदी' करने लगे. शिवराज सिंह चौहान से लेकर अरुण जेटली तक बड़ी ही होशियारी से मोदी की गुड बुक में भी फिट हो गये.

मोदी को मालूम था कि नेता ताकतवर होकर चुनौती खड़ी कर सकते हैं, लेकिन अफसरों के वश की बात नहीं. यही वजह है कि मोदी मंत्रियों से ज्यादा अफसरों पर भरोसा करते हैं. यहां तक कि नृपेंद्र मिश्र की नियुक्ति में अड़चन दिखी तो उन्होंने अध्यादेश के जरिये रास्ता निकाल लिया. पीएमओ से लेकर तमाम प्रमुख जगहों पर उन्होंने अपने सबसे भरोसेमंद अफसरों को तैनात किया - और उसका असर भी हुआ.

दिल्ली और बिहार विधानसभा चुनाव मोदी के लिए तीन साल के सबसे बड़े झटके रहे. बावजूद इसके मोदी ने अपने बूते बीजेपी शासित राज्यों की संख्या तीन साल में डबल से भी ज्यादा कर दी है, जबकि कांग्रेस आधे गंवा चुकी है. 2014 के लोक सभा चुनाव के बाद बीजेपी गठबंधन की सत्ता सात से 17 राज्यों तक फैल चुकी है.

मोदी की अगुवाई में उनके सारथी बीजेपी के गोल्डन एरा की बात करने लगे हैं. गोवा, मणिपुर और अरुणाचल में बीजेपी ने जिस तरह सरकार बनाई सबने देखा ही है. वैसी ही कोशिश पहले उत्तराखंड में भी हुई थी - लेकिन हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप के चलते तब बीजेपी नाकाम रही. हालांकि, ताजा चुनावों में उसे बहुमत हासिल हो गया. इस साल के आखिर में गुजरात और हिमाचल प्रदेश में चुनाव होने हैं - और 2019 तक बीजेपी 10 और राज्यों में सत्ता पर काबिज होना चाहती है.

इंडिया बोले तो सिर्फ मोदी

इसी देश में कभी 'इंडिया इज इंदिरा, इंदिरा इज इंडिया' जैसे स्लोगन भी गढ़े गये. मौजूदा दौर में मोदी के लिए भी ऐसे ही मुहावरे गढ़ने की तैयारी चल रही है. इंदिरा के लिए कांग्रेस के देवकांत बरुआ की तरह बीजेपी के लिए वेंकैया नायडू ने MODI का मतलब - 'मेकिंग ऑफ डेवलप्ड इंडिया' बताया है. देखा जाये तो मोदी सरकार के लिए जीएसटी लागू करना टेढ़ी खीर था, लेकिन जिस तरह खुद प्रधानमंत्री मोदी और उनकी टीम ने विपक्ष को साथ लेकर उसे अंजाम तक पहुंचाया वो बहुत बड़ी उपलब्धि है.

हालांकि, लोग सर्जिकल स्ट्राइक सरकार को सबसे बड़ा अजीवमेंट मानते हैं. नोटबंदी के राजनीतिक विरोध को छोड़ दें तो बाकियों ने उसे लागू करने के तरीके पर विरोध किया. एक वक्त ऐसा भी रहा जब नोटबंदी को लेकर बीजेपी नेता बड़े परेशान रहे. असल में पहले उसे काले धन के खिलाफ तो बाद में दूसरे कारणों से बताया जाने लगा. अंत भला तो सब भला - यूपी चुनाव के नतीजों ने बीजेपी को उस मुसीबत से पूरी तरह उबार दिया.

मोदी की दो स्कीम - जनधन योजना और उज्ज्वला योजना पूरी तरह उनकी सरकार के पक्ष में गयीं. चुनावों में बीजेपी को इसका भी भरपूर फायदा मिला.

दिल्ली में एमसीडी चुनाव के ऐन पहले लालबत्ती हटाने के फैसले के साथ मोदी ने वीआईपी कल्चर खत्म करने को लेकर लोगों को दो टुक मैसेज देने की कोशिश की और कामयाब रहे.

महंगाई और नौजवानों के लिए नौकरी और रोजगार के मौके देने के मोर्चे पर सरकार की ओर से कोई ठोस बात सामने नहीं आई. अपने शपथग्रहण के मौके पर मोदी ने सार्क नेताओं को बुलाया जरूर था लेकिन पाकिस्तान के साथ रिश्ते में सुधार होगा इसकी संभावना कम ही थी और नतीजे भी वैसे ही रहे. पड़ोसी देशों से संबंधों पर गौर करें तो पाकिस्तान के अलावा चीन के साथ भी तनाव बना हुआ है. नेपाल में आये भूकंप में जिस तरह मोदी सरकार ने मदद में तेजी दिखायी रिश्ते सुधरने की बड़ी उम्मीद रही. नेपाल ही नहीं श्रीलंका के मामले में भी भारत ने ऐसा रुख अख्तियार किया कि करीबी दूरी में बदलती गयी और चीन का भी हस्तक्षेप बढ़ने लगा.

जम्मू कश्मीर को लेकर प्रधानमंत्री मोदी के साथ साथ दूसरों को भी काफी उम्मीदें थीं. शायद ही कोई ऐसा रहा जिसके गले पीडीपी के साथ बीजेपी का गठबंधन उतर पाया, लेकिन उसकी चौतरफा तारीफ हुई. तमाम उतार चढ़ाव के बाद अब माना जा रहा है कि महबूबा मुफ्ती सरकार का काउंटडाउन चल रहा है.

मोदी सरकार के लिए अगर तीन साल का कोई पैमाना बनता है तो एक छोर पर जीएसटी है तो दूसरे पर जम्मू कश्मीर ही होगा.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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