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इराक युद्ध पर अमेरिका और ब्रिटेन की पोल खोल दी है एक रिपोर्ट ने

    • वीरू सोनकर
    • Updated: 08 जुलाई, 2016 07:09 PM
  • 08 जुलाई, 2016 07:09 PM
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तेल के लालच में उस समय की भयंकर भूलों का परिणाम आज विश्व देख रहा है. एशिया तब से लेकर आज तक स्थिर नहीं हो पाया है. अमेरिका आज भी दरोगा बना हुआ है. लेकिन अच्छी बात ये है कि अब ब्रिटेन के भीतर से ब्लेयर के खिलाफ आवाजें उठने लगी हैं.

'चिलकॉट रिपोर्ट' के सामने आने के बाद से अब हमारी दुनिया के सामने कुछ प्रश्न आ खड़े हुए हैं. ब्रिटेन के पूर्व प्रधानमंत्री टोनी ब्लेयर ने तथ्यों को नजरअंदाज करते हुए और अन्य विकल्पों का चयन न करके जार्ज बुश के साथ इराक युद्ध के लिए व्यक्तिगत सहमति बनाई. योजनाबद्ध तरीके से उस पर अमल किया. लाखों लोगों की हत्या का यह अपराध नाजी अत्याचारों से किसी भी प्रकार से कम नहीं था.

यह किसी दूसरे देश के साथ अमानवीय तो था ही साथ ही साथ यह खुद ब्रिटेन के सैनिको के साथ भी एक गैरजिम्मेदाराना बर्ताव था. इराक पर हमला करने से पहले बाकायदा एजेंसियों की मदद से सद्दाम शासन के विरुद्ध ऐसे संकेत छोड़े गए जिनसे दुनिया के सामने यह संदेश जाता कि इराक ने भारी पैमाने पर रासायनिक हथियार जमा कर रखे हैं.

ध्यान देने वाली बात ये है कि अमेरिकी नीतियां अभी भी उसी ढर्रे पर चल रही है. इसका उदाहरण इराक, अफगानिस्तान, लीबिया आदि मुल्को में स्पष्ट देखा जा सकता है. दुनिया अभी भी असुरक्षित है. लेकिन बात बस इतनी नहीं कि टोनी ब्लेयर पर अन्तर्राष्टीय न्यायलय में बतौर युद्ध अपराधी मुकदमा चलाया जाए. तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति बुश भी ऐसी नीतियों के लिए बराबर के दोषी हैं. इराक के लिए इन्होंने अपनी कोई पुनर्वास योजना नहीं बनाई थी.

 जांच समिति के अध्यक्ष सर जॉन चिलकॉट

तेल के लालच में उस समय की भयंकर नीतिगत भूलों का परिणाम आज पूरा विश्व भुगत रहा है. एशिया तब से लेकर आज तक स्थिर नहीं हो पाया है और अमेरिका आज भी दरोगा बना हुआ है. अच्छी बात ये रही कि अब ब्रिटेन के भीतर से ब्लेयर के विरुद्ध आवाजे उठने लगी हैं. ऐसे में यह आवश्यक हो जाता है कि भविष्य में ऐसे झूठे तथ्यों पर...

'चिलकॉट रिपोर्ट' के सामने आने के बाद से अब हमारी दुनिया के सामने कुछ प्रश्न आ खड़े हुए हैं. ब्रिटेन के पूर्व प्रधानमंत्री टोनी ब्लेयर ने तथ्यों को नजरअंदाज करते हुए और अन्य विकल्पों का चयन न करके जार्ज बुश के साथ इराक युद्ध के लिए व्यक्तिगत सहमति बनाई. योजनाबद्ध तरीके से उस पर अमल किया. लाखों लोगों की हत्या का यह अपराध नाजी अत्याचारों से किसी भी प्रकार से कम नहीं था.

यह किसी दूसरे देश के साथ अमानवीय तो था ही साथ ही साथ यह खुद ब्रिटेन के सैनिको के साथ भी एक गैरजिम्मेदाराना बर्ताव था. इराक पर हमला करने से पहले बाकायदा एजेंसियों की मदद से सद्दाम शासन के विरुद्ध ऐसे संकेत छोड़े गए जिनसे दुनिया के सामने यह संदेश जाता कि इराक ने भारी पैमाने पर रासायनिक हथियार जमा कर रखे हैं.

ध्यान देने वाली बात ये है कि अमेरिकी नीतियां अभी भी उसी ढर्रे पर चल रही है. इसका उदाहरण इराक, अफगानिस्तान, लीबिया आदि मुल्को में स्पष्ट देखा जा सकता है. दुनिया अभी भी असुरक्षित है. लेकिन बात बस इतनी नहीं कि टोनी ब्लेयर पर अन्तर्राष्टीय न्यायलय में बतौर युद्ध अपराधी मुकदमा चलाया जाए. तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति बुश भी ऐसी नीतियों के लिए बराबर के दोषी हैं. इराक के लिए इन्होंने अपनी कोई पुनर्वास योजना नहीं बनाई थी.

 जांच समिति के अध्यक्ष सर जॉन चिलकॉट

तेल के लालच में उस समय की भयंकर नीतिगत भूलों का परिणाम आज पूरा विश्व भुगत रहा है. एशिया तब से लेकर आज तक स्थिर नहीं हो पाया है और अमेरिका आज भी दरोगा बना हुआ है. अच्छी बात ये रही कि अब ब्रिटेन के भीतर से ब्लेयर के विरुद्ध आवाजे उठने लगी हैं. ऐसे में यह आवश्यक हो जाता है कि भविष्य में ऐसे झूठे तथ्यों पर होने वाले युद्ध रोके जा सकें.

इसके लिए जरूरी है कि विश्व भर में 'चिलकॉट रिपोर्ट' पर व्यापक चर्चा हो और जनमत तैयार करते हुए ब्लेयर सहित पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति बुश एवं सहयोगी एजेंसियों पर अंतर्राष्ट्रीय अदालत में मुकदमा चलाया जाए.

यह भी पढ़ें- सीरिया में 'अच्छे आतंकियों' को बचाने वाला अमेरिका कब सुधरेगा!

इसमें कोई शक नहीं कि सद्दाम तानाशाह थे और वहां की शासन व्यवस्था में कई प्रकार की खामियां आ चुकी थी. सद्दाम बेहद निरंकुश हो चुके थे. लेकिन फिर भी युद्ध से बचा जा सकता था क्योंकि तात्कालिक रूप से सद्दाम एक बड़ा खतरा नहीं बन रहे थे और बात बस कुवैत संकट तक ही थी.

इसका अन्य विकल्पों के द्वारा एक दीर्घकालिक उपाय किया जा सकता था. सद्दाम को प्रतिबंधों के द्वारा झुकाया जा सकता था. जिन लाखो नागरिकों और सैनिको ने अपनी जान गवाई उन्हें बचाया जा सकता था. हम आज दुनिया के जिन बेहतरीन मुल्कों को खो चुके हैं, वे नक़्शे पर अपनी उसी आन बान से मिलते पर तेल के लालच ने सब ख़त्म कर दिया. अब दुनिया और भी अधिक खतरनाक युद्धों के मुहाने पर खड़ी है.

इन सब से अधिक जरुरी बात जो अपने देश के संदर्भ में है वो ये कि भारत की पॉलिसी ऐसे युद्धों पर अभी भी अगर-मगर की डगर पर चलने की रही है. तटस्थता की नीति के चलते हमारे देश में अभी तक ऐसे युद्धों पर अपना विरोध दर्ज कराने की नीति अपना आकार नहीं ले सकी है जबकि बदतर होती दुनिया का खामियाजा भविष्य में भारत को भी भुगतना होगा.

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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